दुनिया आज जिस समय भू-राजनीति (Geo-Politics) के नए समीकरण गढ़ रही थी, उस वक्त भारत भी वैश्विक मंच पर अपनी बुलंदी का झंडा गाड़ रहा था। लेकिन, इसी समय बिहार की धरती पर कांग्रेस और राजद की राजनीतिक गहमागहमी अपने चरम पर थी। राहुल गांधी की “वोटर अधिकार यात्रा” ने सियासी हलचल मचा दी। इस यात्रा में हाइड्रोजन बम छोड़ने की बात हुई, लेकिन सियासी विश्लेषकों के मुताबिक अब तक जो ‘बम’ छोड़े गए, वे छुरछुरी से ज्यादा प्रभावी साबित नहीं हो सका।
जहाँ एक ओर भारत वैश्विक स्तर पर अमेरिका, यूरोप और एशियाई देशों के बीच शक्ति संतुलन के खेल में सक्रिय भूमिका निभा रहा था, वहीं बिहार में स्थानीय राजनीति ने अपना रंग दिखाया। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को अब उभरती महाशक्ति के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन बिहार की धरती पर समीकरण उलटे हैं। यहाँ विकास, जाति, धर्म और गठबंधन की राजनीति ही अंतिम निर्णायक शक्ति है।
राहुल गांधी ने अपनी यात्रा के दौरान जब ‘हाइड्रोजन बम’ का जिक्र किया, तो उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से भाजपा और मोदी सरकार को चुनौती देने की कोशिश की। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह प्रतीकात्मक राजनीति, बिहार जैसे जटिल राज्य में व्यावहारिक सफलता दिला पाएगी?
यात्रा की अवधि: 16 दिन थी, 23 जिला के 67 विधानसभा सीट में से कांग्रेस के खाते की 9 सीट, सहयोगियों (राजद आदि) की 19 सीट और एनडीए की 39 सीट शामिल था। यह आँकडा इस यात्रा की वास्तविक तस्वीर पेश करता है। कांग्रेस ने अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाने की कोशिश की, वहीं राजद को महसूस हुआ कि उनका परंपरागत वोट बैंक अब कांग्रेस की ओर खिसक सकता है।
कांग्रेस इस यात्रा के जरिए दो बड़े लक्ष्य साधना चाहता था। एक अपना परंपरागत वोट बैंक वापस पाना और दूसरा राष्ट्रीय स्तर पर संदेश देना। वर्षों से राजद के हिस्से में सिमटी मुस्लिम-यादव समीकरण की राजनीति में कांग्रेस के पास बहुत कम गुंजाइश बची थी। इस यात्रा ने कम से कम कांग्रेस को यह ताकत दी है कि वह अपने हिस्से की दावेदारी फिर से मजबूत कर सके। बिहार की यह यात्रा केवल प्रादेशिक राजनीति तक सीमित नहीं था। इसका संदेश राष्ट्रीय स्तर पर भी गया कि, कांग्रेस संगठनात्मक रूप से सक्रिय हो रहा है और ‘मोदी विरोध’ की अगुआई करने का दावा कर सकती है। परिणाम यह रहा कि कांग्रेस ने अपने खाते का वोट कुछ हद तक वापस पाया।
राजद का राजनीतिक समीकरण लंबे समय से यादव-मुस्लिम वोट बैंक पर टिका है। लेकिन कांग्रेस की आक्रामकता और राहुल गांधी के इस नए प्रयोग ने राजद के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। बंटवारे की राजनीति में अब राजद को बराबरी से बात करनी होगी।
यह स्थिति राजद के लिए दोहरी चुनौती है। एक तरफ भाजपा-एनडीए की पोलराइजेशन रणनीति और दूसरी तरफ कांग्रेस का संगठनात्मक पुनरुत्थान।
यात्रा के दौरान एक खास वर्ग को छोड़कर एनडीए का वोट बैंक और ज्यादा मजबूती से पोलराइज हो गया। भाजपा और उसके सहयोगी इस स्थिति से बेहद संतुष्ट नजर आए। मतदाताओं को कांग्रेस-राजद की साझेदारी ने स्पष्ट विकल्प दिया और इस स्पष्टता ने ही एनडीए के वोटों को और मजबूती प्रदान की।
यह कहना गलत नहीं होगा कि राहुल गांधी की यात्रा से एनडीए के कार्यकर्ताओं का मनोबल और बढ़ा है, क्योंकि उन्हें समझ आ गया है कि विपक्ष अभी भी बिखरा हुआ है।
राहुल गांधी ने जब हाइड्रोजन बम का जिक्र किया, तो उसका सीधा मतलब था कि भाजपा और मोदी सरकार के खिलाफ अब एक बड़ा और निर्णायक हमला होगा। लेकिन बीते 14 सालों का इतिहास गवाह है कि कांग्रेस जिन ‘बमों’ की बात करती रही, वे अक्सर ‘फुस्स पटाखे’ ही साबित हुए हैं।
2014 में भ्रष्टाचार और घोटाला मुद्दा बना, लेकिन भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला। 2019 में राफेल और ‘चौकीदार चोर है’ जैसे नारा चला, लेकिन असर उल्टा हुआ। 2024 में न्याय योजना और आर्थिक मुद्दा उठाया गया, लेकिन जनता ने भाजपा को दोबारा मौका दिया।
अब सवाल उठता है कि 2025-26 में छोड़ा जाने वाला ‘हाइड्रोजन बम’ क्या सचमुच प्रभावी होगा, या यह भी एक छुरछुरी ही साबित होगा?
बिहार की राजनीति बिना जातीय समीकरण के समझी ही नहीं दलित वोटर एनडीए और महागठबंधन दोनों के बीच खिंचता है। सवर्ण वोट बैंक मजबूती से भाजपा के पास है। इस समीकरण को देखते हुए कांग्रेस के लिए चुनौती यह होगी कि वह अपने हिस्से का वोट खींचे और राजद से टकराव से बचे।
पत्रकारों के लिए यह यात्रा किसी ‘सांस लेने के अवसर’ जैसी रही। लगातार रिपोर्टिंग के बाद उन्हें भी चैन मिला। जनता की प्रतिक्रिया मिश्रित रही गाँवों में राहुल की पदयात्रा ने युवाओं और किसानों को आकर्षित किया। शहरों में इसका असर सीमित रहा, क्योंकि शहरी वोटर विकास और रोजगार की राजनीति को ज्यादा महत्व देता है। मुस्लिम वर्ग में कांग्रेस को राहत मिली, क्योंकि इस वर्ग में भाजपा का डर अब भी बना हुआ है।
अब जबकि यात्रा पूरी हो चुकी है, बड़ा सवाल यही है कि आने वाले चुनावों में इसका कितना असर दिखेगा। संभावनाएँ तीन स्तर पर देखी जा सकती हैं। कांग्रेस अपने हिस्से का वोट वापस पाएगी और संगठन को मजबूत करेगी। राजद को बराबरी की राजनीति के लिए तैयार रहना होगा। एनडीए पोलराइजेशन से और मजबूत होकर उभरेगा।
राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा बिहार की राजनीति में नया अध्याय तो खोलती है, लेकिन इसका प्रभाव कितना स्थायी होगा, यह कहना मुश्किल है। कांग्रेस ने अपने हिस्से की जमीन वापस पाने की दिशा में कदम जरूर बढ़ाया है। लेकिन एनडीए के वोट का पोलराइज होना और राजद की बेचैनी इस बात का संकेत है कि असली जंग अभी बाकी है।
राहुल गांधी का ‘हाइड्रोजन बम’ अगर केवल प्रतीकात्मक राजनीति रह गया, तो यह भी अतीत की तरह फुस्स साबित होगा। लेकिन अगर कांग्रेस ने इसे ठोस रणनीति, संगठन और जमीनी काम से जोड़ा, तो बिहार ही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति में भी नया समीकरण देखने को मिल सकता है।
कुल मिलाकर, यह यात्रा कांग्रेस को आत्मविश्वास, राजद को बेचैनी और एनडीए को मजबूती देने वाली साबित हुई है। बिहार की राजनीति का यही यथार्थ है कि यहाँ कोई भी बम तब तक धमाका नहीं कर सकता, जब तक जाति और वोट का संतुलन उसके साथ न हो।
