“भ्रामरी शक्तिपीठ” देवी सती का बायाँ पैर गिरा था

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना


भारतवर्ष देवी उपासना की भूमि है, यहाँ पर्वत, नदी, वन, ग्राम, नगर, हर दिशा में माँ की शक्ति का आलोक व्याप्त है। इन्हीं दिव्य शक्तियों में से एक हैं “माँ भ्रामरी”, जिनका शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी जिला के बोडा मंडल के सालबाड़ी ग्राम में स्थित है। इस स्थान को त्रिस्रोत कहा जाता है, क्योंकि यहाँ तीन नदियों का संगम होता है। कहा जाता है कि यही वह पावन स्थल है जहाँ माँ सती का बायाँ पैर गिरा था। इसलिए इसे “भ्रामरी शक्तिपीठ” कहा गया है।

भ्रामरी देवी स्वयं महाकाली का एक रूप हैं, जो दुष्ट शक्तियों का नाश करती हैं और भक्तों को रोग, भय, महामारी और नकारात्मक ऊर्जा से मुक्त करती हैं। यह स्थान न केवल शक्ति साधना का केंद्र है, बल्कि सदियों से बंगाल, असम, सिक्किम और भूटान के श्रद्धालुओं का तीर्थ बन चुका है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, जब भगवान शिव की अर्धांगिनी सती ने अपने पिता राजा दक्ष के यज्ञ में अपमानित होकर आत्मदाह किया, तब शोकाकुल शिव ने उनके शरीर को अपने कंधे पर उठाया और तांडव करने लगे। पूरे ब्रह्मांड में विकंपन उत्पन्न हो गया। तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ताकि शिव का तांडव थमे। सती के शरीर के जो अंग, आभूषण या वस्त्र जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ बना। कुल मिलाकर 51 शक्तिपीठों का उल्लेख है, जबकि कुछ ग्रंथों में इनकी संख्या 108 भी बताई गई है। प्रत्येक पीठ में देवी का एक विशिष्ट अंग गिरा है और उसके साथ एक भैरव भी प्रतिष्ठित हुए हैं। भ्रामरी शक्तिपीठ भी उन्हीं में से एक है, जहाँ माँ का बायाँ चरण गिरा था। यहाँ देवी का नाम भ्रामरी और भैरव का नाम अंबर या भैरवेश्वर बताया गया है।

‘भ्रामरी’ नाम स्वयं में ही अत्यंत रहस्यमय और गूढ़ है। यह शब्द संस्कृत के ‘भ्रमर’ अर्थात मधुमक्खी से बना है। देवी भ्रामरी का उल्लेख देवीभागवत पुराण और कलिका पुराण में मिलता है। कथा के अनुसार, एक बार पृथ्वी पर एक अत्यंत बलवान दैत्य अरुणासुर ने ऐसा तप किया कि देवता भी भयभीत हो उठे। उसने वरदान पाया कि कोई पुरुष, देवता या दानव उसे नहीं मार सकेगा। अहंकारी होकर वह पृथ्वी पर अत्याचार करने लगा। तब देवताओं ने महादेवी से प्रार्थना की। देवी ने कहा कि “मैं स्त्री रूप में उसका अंत करूंगी।” तब देवी ने अपना रूप बदलकर असंख्य भ्रमरों (मधुमक्खियों) का रूप धारण किया, और अपने शरीर से अनगिनत भौरें उत्पन्न कर दिए। ये भौरें अरुणासुर के शरीर में समा गए और उसे क्षणभर में भस्म कर दिया। उसी दिन से देवी का नाम पड़ा “भ्रामरी देवी”। इस कथा का प्रतीकात्मक अर्थ यह है कि जब मन में अहंकार, अंधकार या नकारात्मकता बढ़ती है, तब आत्मशक्ति (देवी) ही अपने ‘भ्रमर रूप’ से उसे समाप्त करती है। माँ भ्रामरी बाहरी दुष्टों के साथ-साथ आंतरिक विषैले विचारों को भी नष्ट करती हैं।

भ्रामरी देवी का वर्णन देवीभागवत पुराण में अत्यंत मनोहर रूप में किया गया है। वे पीतवर्णा, चार भुजाओं वाली, कमलासनस्थ हैं और उनके आसपास हजारों भ्रमर गूंजते रहते हैं। उनके नेत्र मधुर हैं, किंतु क्रोध में वे भयंकर रूप धारण करती हैं। उनके हाथों में त्रिशूल, खड्ग, घंटा और वरमुद्रा होती है। कहा जाता है कि उनकी उपासना करने से रोग, महामारी, विष और शत्रु का भय समाप्त होता है। भ्रामरी देवी की उपासना विशेषकर भाद्रपद मास और नवरात्र के दौरान की जाती है। बंगाल और असम के तांत्रिक संप्रदाय में माँ भ्रामरी को महाकाली का तीसरा अवतार माना गया है, जो बाह्य और आंतरिक दोनों स्तरों पर शुद्धि प्रदान करती हैं।

प्रत्येक शक्तिपीठ में देवी के साथ एक भैरव की उपस्थिति होती है। “भ्रामरी शक्तिपीठ” में यह भैरव अंबर कहलाते हैं। “अंबर” शब्द का अर्थ है “आकाश”, जो असीमता और सर्वव्यापकता का प्रतीक है। भैरव अंबर, शिव का ही एक रूप हैं, जो भ्रामरी देवी की शक्ति को संतुलित करते हैं। उनका स्वरूप अत्यंत शांत, ध्यानमग्न और रक्षक के रूप में वर्णित है। श्रद्धालु जब भ्रामरी देवी के दर्शन के बाद अंबर भैरव के मंदिर में जाते हैं, तो यह माना जाता है कि उनकी साधना पूर्ण होती है। भैरव यहाँ ‘भैरवेश्वर’ नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वह क्षेत्र के सभी देवस्थलों के रक्षक माने जाते हैं। लोककथाओं के अनुसार, रात में जब मंदिर के द्वार बंद हो जाते हैं, तो अंबर भैरव स्वयं भ्रमरों के रूप में देवी की परिक्रमा करते हैं।

“भ्रामरी शक्तिपीठ” पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी जिला में स्थित है, जो भारत-भूटान सीमा के समीप है। यहाँ का सालबाड़ी ग्राम अत्यंत हरित, शांत और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। त्रिस्रोत नाम इस कारण पड़ा क्योंकि यहाँ तीन पवित्र नदियाँ तीस्ता, जोराई और डूआर्स क्षेत्र की एक उपधारा, मिलती हैं। प्राचीन शिलालेखों और तांत्रिक ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख कामरूप क्षेत्र के रूप में मिलता है, जो तंत्र साधना का मुख्य केंद्र था। माना जाता है कि गुप्तकाल में यहाँ देवी का पहला मंदिर निर्मित हुआ था। उसके बाद पाल वंश के शासकों ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। मंदिर की वास्तुकला बंगाल की पारंपरिक छाल शैली में बनी है, जिसमें टेराकोटा (मिट्टी की नक्काशी), झरोखे और त्रिकोणाकार शिखर हैं। गर्भगृह में माँ भ्रामरी की मूर्ति काले पत्थर से निर्मित है, जिनके चारों ओर स्वर्णाभ आभूषण और पीले वस्त्र होते हैं।

“भ्रामरी शक्तिपीठ” में वर्ष भर पूजा-अर्चना चलती रहती है, परंतु तीन अवसर विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र,  भ्रामरी जयंती (भाद्रपद शुक्ल पंचमी), शिवरात्रि और अंबर भैरव महोत्सव। नवरात्र के दौरान यहाँ दूर-दूर से साधक और तांत्रिक साधना हेतु आते हैं। भ्रामरी देवी को शहद, काले तिल, और पीले फूलों से प्रसन्न किया जाता है। मधुमक्खी के छत्ते का प्रतीक यहाँ अत्यंत पवित्र माना जाता है। भ्रामरी जयंती के दिन भक्त देवी का भ्रमर आरती करते हैं, जिसमें घंटों तक भ्रमरों जैसी गूंजती ध्वनि उत्पन्न की जाती है। यह माना जाता है कि इस ध्वनि से वातावरण से नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है। स्थानीय ब्राह्मण और साधक ‘भैरव अंबर’ की आराधना कर साधना पूर्ण करते हैं। यहाँ ‘कौलाचार’ और ‘स्मार्त’ दोनों पद्धतियों से पूजा होती है।

“भ्रामरी शक्तिपीठ” से अनेक जनश्रुतियां जुड़ी हैं। एक कथा के अनुसार, एक बार गाँव में भीषण महामारी फैली। कोई औषधि काम नहीं कर रही थी। तब एक वृद्धा को स्वप्न में देवी ने दर्शन दिए और कहा कि “मेरे स्थान की उपेक्षा मत करो, वहाँ दीप जलाओ।” जब ग्रामीणों ने ऐसा किया, तो अगले ही दिन महामारी शांत हो गई। तब से यह परंपरा चली कि हर संध्या यहाँ “दीप-भ्रमर” आरती होती है, जिसमें सैकड़ों दीप प्रज्वलित कर देवी को अर्पित किए जाते हैं। एक और कथा के अनुसार, मंदिर के निकटवर्ती जंगल में मधुमक्खियों का एक प्राचीन छत्ता है, जो कभी नष्ट नहीं होता। कई बार आँधी, तूफान या वर्षा से मंदिर का शिखर हिलता है, पर वह छत्ता सुरक्षित रहता है। ग्रामीण इसे देवी का जीवंत प्रतीक मानते हैं।

“भ्रामरी शक्तिपीठ” केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक ऊर्जा केंद्र है। यहाँ आने वाले साधक ध्यान, जप और योग द्वारा मानसिक शांति प्राप्त करते हैं। बंगाल और भूटान की सीमा पर स्थित होने के कारण यहाँ की संस्कृति मिश्रित है  बंगाली, नेपाली, राजवंशी और भूटानी परंपराओं का संगम। हर वर्ष भाद्र मास में यहाँ भ्रामरी मेला लगता है। हजारों श्रद्धालु दूर-दराज से आकर देवी का दर्शन करते हैं। यहाँ लोकनृत्य, भक्ति संगीत, और कीर्तन का आयोजन होता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि भ्रामरी देवी “रोगनाशिनी माता” हैं, जो विष, महामारी, दुष्ट आत्मा और भय से रक्षा करती हैं। इसलिए इस क्षेत्र में जब भी कोई महामारी फैलती है, लोग सबसे पहले भ्रामरी शक्तिपीठ में दीप जलाकर प्रार्थना करते हैं।

“भ्रामरी शक्तिपीठ” का तांत्रिक महत्व अत्यंत गहरा है। यहाँ के साधक मानते हैं कि माँ भ्रामरी ‘मन के विक्षोभ’ को शांत करती हैं। उनका भ्रमर मंत्र ध्यान के दौरान गूँजता है  “ॐ भ्रामरी देव्यै नमः”। यह मंत्र शरीर में सूक्ष्म स्पंदन उत्पन्न करता है, जो मन को स्थिर करता है। भ्रामरी को कुंडलिनी शक्ति का भी प्रतीक माना गया है, जो मेरुदंड के शीर्ष तक पहुँचकर सहस्रार चक्र को सक्रिय करती है। कुछ साधक यहाँ भैरव अंबर साधना भी करते हैं, जिसमें रात्रिकालीन ध्यान, दीपजप और मंत्रोच्चार शामिल होता है। लोककथाओं के अनुसार, जिन्होंने भ्रामरी देवी के मंत्र का 1.25 लाख जाप किया, उन्हें “भ्रमर सिध्दि” प्राप्त होती है अर्थात वे किसी भी भय, रोग या नकारात्मक ऊर्जा से अछूते रहते हैं।

हाल के वर्षों में राज्य सरकार और स्थानीय समितियों ने भ्रामरी शक्तिपीठ के संरक्षण के लिए कई प्रयास किए हैं। मंदिर परिसर का जीर्णोद्धार हुआ, संगमरमर से गर्भगृह की मरम्मत की गई, और यात्रियों के लिए धर्मशालाएँ निर्मित हुईं। पर्यटन विभाग ने इसे “शक्ति सर्किट” योजना में भी शामिल किया है, जिससे कालीघाट, तारापीठ, नलहाटी, और भ्रामरी जैसे शक्तिपीठों को जोड़ने वाला तीर्थ मार्ग विकसित हो रहा है। साल में दो बार विशेष उत्सवों पर यहाँ भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है, जिसमें भैरव और देवी की प्रतिमाएँ एक साथ नगर परिक्रमा करती हैं। यह दृश्य श्रद्धालुओं के लिए दिव्य अनुभव बन जाता है।

भ्रामरी देवी को “प्रकृति के सूक्ष्म स्पंदन” की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। जिस प्रकार भ्रमर फूलों से रस लेता है और परागण द्वारा जीवनचक्र को आगे बढ़ाता है, उसी प्रकार माँ भ्रामरी सृष्टि के संतुलन की देवी हैं। उनका पीला वस्त्र सूर्य की ऊर्जा का, और काला पत्थर वाला रूप पृथ्वी की स्थिरता का प्रतीक है। इसीलिए यहाँ की साधना “सूर्य-चंद्र संतुलन” की प्रतीक मानी जाती है। देवी की पूजा करते समय गूंजती हुई घंटियों और शंखों की ध्वनि वातावरण को मानो मधुमक्खियों की गूंज में परिवर्तित कर देती है। कहा जाता है कि यह गूंज ही भ्रामरी देवी का आशीर्वाद है।

तांत्रिक ग्रंथों में भ्रामरी शक्तिपीठ को कामाख्या शक्तिपीठ की बहन कहा गया है। दोनों स्थानों पर साधना का स्वरूप रहस्यमय और गूढ़ है। कहा जाता है कि जो साधक कामाख्या से दीक्षा लेकर भ्रामरी में साधना करता है, उसे अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। भ्रामरी का संबंध त्रिपुरा सुंदरी, तारापीठ की काली, और जयंती देवी (भूटान सीमा) से भी जोड़ा गया है। इस प्रकार यह स्थान “उत्तर-पूर्व भारत का शक्ति केंद्र” माना जाता है।

भ्रामरी शक्तिपीठ न केवल एक तीर्थ है, बल्कि भक्ति और तंत्र के संगम का केंद्र है। यहाँ की वायु में माँ की गूंज सुनाई देती है, जो कहती है कि “भय मत करो, मैं तुम्हारे भीतर हूँ।” भक्त जब सालबाड़ी ग्राम के उस त्रिस्रोत तट पर खड़ा होता है, तो उसे अनुभव होता है कि तीन नदियों की संगमधारा में केवल जल नहीं, बल्कि शक्ति, श्रद्धा और आत्मा का भी संगम है। भ्रामरी देवी आज भी अपने भ्रमर रूप में अपने भक्तों की रक्षा कर रही हैं, अदृश्य परंतु अनुभव योग्य रूप में। जो कोई भी मन की नकारात्मकता, भय, रोग या अस्थिरता से मुक्ति चाहता है, उसे “भ्रामरी शक्तिपीठ” की एक यात्रा अवश्य करनी चाहिए। यहाँ देवी के चरणों में बैठकर जब कोई “ॐ भ्रामरी देव्यै नमः” का जप करता है, तो उसके भीतर भी अनंत गूंज उठती है, वही गूंज, जो कभी अरुणासुर का अंत बनी थी और आज भी संसार के दुःखों का नाश करती है।



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