बिहार की राजनीति का बदलता चेहरा

Jitendra Kumar Sinha
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मनुष्य का जीवन समय के चक्र पर टिका ह,  कभी उत्थान, कभी पतन। जो आज राजसत्ता पर है, कल उसे उस ताज को उतारकर जमीन पर आना ही पड़ता है। यही नियति है। लेकिन जब कोई व्यक्ति या दल अपने दिन, दशा और ओहदे को स्थायी मान लेता है, तो वही से उसका पतन का आरंभ होता है। राजनीति में यह सत्य सबसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, विशेषकर बिहार की मिट्टी में, जहां सत्ता का सूरज हर पांच साल में दिशा बदल लेता है।

बिहार का चुनाव केवल लोकतंत्र का उत्सव नहीं है, बल्कि सत्ता, स्वार्थ और सिद्धांतों का संग्राम भी है। यहां रिश्तों से ज्यादा वजन विरासत का है और विचारधारा से ज्यादा महत्व समीकरणों का। जिस नेता की कारों का काफिला देखकर सड़कें खाली हो जाया करती थीं, आज वही भीड़ में जगह ढूंढता फिरता है। जो कल तक दूसरों की औकात बताता था, आज अपनी स्थिति समझाने पर मजबूर है। यही राजनीति है,  निष्ठुर, निर्मम और निरंतर बदलती हुई।

बिहार की राजनीति हमेशा से ही संघर्ष, साहस और सत्ता के मोह का केंद्र रही है। यहां नेता केवल पार्टी के नहीं, बल्कि परंपरा के प्रतीक माने जाते हैं। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से लेकर लालू प्रसाद के सामाजिक न्याय तक, बिहार ने राजनीति की हर दिशा देखी है। लेकिन आज यह राजनीति वैचारिक नहीं, बल्कि वाणिज्यिक हो चुकी है, जहां मूल्य नहीं, मतगणना मायने रखती है।

राजनीति का यह रंगमंच हर पांच साल में नया नाटक पेश करता है। किरदार वही रहते हैं, बस भूमिका बदल जाती है। कभी कोई "विकास पुरुष" बनकर आता है, तो कभी कोई "गरीबों का मसीहा" कहलाता है। पर पर्दे के पीछे कहानी हमेशा सत्ता की होती है,  कुर्सी की, जो न किसी की सगी है न स्थायी।

"जब दिन होता है तब गरूर सर पर मोरमुकुट बन नृत्य करता है",  यह पंक्ति केवल साहित्यिक सौंदर्य नहीं है, बल्कि राजनीतिक सत्य है। सत्ता में आने के बाद नेता को लगता है कि वह अजेय है, अविनाशी है। उसके आगे जनता झुकेगी, पार्टी उसके इशारे पर चलेगी, और विरोधी हमेशा पराजित रहेंगे। पर यही अहंकार पतन की पहली सीढ़ी बनता है।

बिहार में कई ऐसे नेता हैं जिनका एक समय में नाम ही पर्याप्त था। जिनकी झलक पाने को लोग सड़कों पर उतर आते थे। पर आज वही चेहरे जनता की भीड़ में गुम हैं। जो कभी दूसरों को 'औकात' याद दिलाते थे, अब जनता उन्हें 'याद' नहीं करती। राजनीति में समय का यह उतार-चढ़ाव किसी प्राकृतिक नियम की तरह है, न कोई इसे रोक सकता है, न मोड़ सकता है।

राजनीति में सफलता और असफलता दोनों स्थायी नहीं हैं। बिहार में जो कल तक सत्ता के शिखर पर थे, आज वही आलोचना के घेरे में हैं। कुछ नेताओं के लिए सत्ता केवल प्रतिष्ठा का साधन थी, पर जनता ने जब उन्हें अस्वीकार किया, तो वही ओहदा उनके लिए अभिशाप बन गया।

यह स्थिति वैसी ही है जैसे कोई सम्राट अपने ही राज्य में निर्वासित हो जाए। बिहार के चुनावी मैदान में इस बार ऐसे कई दृश्य देखने को मिल रहे हैं जहां पुराने रिश्ते टूटी डोर की तरह बिखर रहे हैं, जहां परिवार की विरासत ने परिवार को ही बाँट दिया, और जहां ‘समर्पण’ का स्थान ‘समझौते’ ने ले लिया।

जो नेता कभी जनता की नब्ज पर हाथ रखते थे, अब वही जनता की नाराज़गी से अनजान हैं। क्योंकि सत्ता का स्वाद, जब ज्यादा देर तक जीभ पर रहता है, तो वह संवेदना को सुन्न कर देता है।

बिहार में विरासत राजनीति की सबसे बड़ी पूंजी मानी जाती है। पिता की कुर्सी, भाई की पहचान, या पति की लोकप्रियता,  यही उत्तराधिकार की तीन धुरी हैं। पर इस चुनाव में यही विरासत सबसे बड़ी विभाजन रेखा भी बनी है। 

जहां एक ओर कुछ नेता अपने पारिवारिक गौरव को ढाल बनाकर जनता के बीच उतरे, वहीं दूसरी ओर जनता ने उन्हें यह याद दिला दिया कि “विरासत नहीं, विरुद्धता ही राजनीति की सच्चाई है।”

कई राजनीतिक घरानों में बेटे ने पिता की पार्टी छोड़ी, भाई ने भाई के खिलाफ प्रचार किया, और पुराने साथी अब दुश्मन बन बैठे। सत्ता की इस दौड़ में रिश्ते, संस्कार और सिद्धांत सब कुर्बान हो गए। ऐसा प्रतीत होता है जैसे बिहार की राजनीति अब रक्त-संबंधों की नहीं, बल्कि 'रक्तचाप' की राजनीति बन चुकी है, जहां हर चेहरा तनाव में है।

कभी बिहार की गलियों में कुछ नाम ऐसे थे जिनकी गूंज से दीवारें थर्राती थीं। उनकी हनक से प्रशासन कांपता था, और उनकी एक नजर से टिकट बंटते थे। पर आज वही चेहरे मीडिया की सुर्खियों में ‘विस्मृत हस्तियां’ बन चुके हैं।

यह दृश्य केवल व्यक्ति का नहीं, बल्कि युग परिवर्तन का संकेत है। सत्ता के सूर्य का अस्त होना अनिवार्य है। फर्क इतना है कि कोई इसे विनम्रता से स्वीकार कर लेता है, तो कोई इसे विद्रोह से नकारने की कोशिश करता है। पर परिणाम एक ही होता है,  इतिहास उसे याद नहीं रखता जो ‘समय’ को चुनौती देता है।

लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। वह न तो स्थायी शत्रु है, न स्थायी मित्र। जो नेता जनता की भावनाओं को समझता है, वही सत्ता में लौटता है। बिहार की जनता ने बार-बार यह सिद्ध किया है कि वह केवल भाषण से नहीं, अनुभव से निर्णय लेती है।

इस बार के चुनाव में जनता ने भावनाओं पर नहीं, भरोसे पर वोट करेगा। उसने यह स्पष्ट कर दिया कि अब केवल जातीय समीकरण या वादों का जमघट नहीं, बल्कि काम की राजनीति चलेगी। यही वजह है कि कई पुराने चेहरे जो दशकों से बिहार की राजनीति पर छाए थे, अब जनता की अदालत में - कठघरे में हैं।

सत्ता केवल अवसर नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक परीक्षा भी है। यह आदमी के भीतर के वास्तविक चरित्र को उजागर करती है। जब नेता विपक्ष में होता है तो वह संघर्षशील, संवेदनशील और जनसरोकार से जुड़ा दिखता है, लेकिन जैसे ही सत्ता का ताज सिर पर चढ़ता है, उसके भीतर का ‘स्व’ ‘सत्ता’ से बड़ा हो जाता है। यही कारण है कि सत्ता अहंकार को जन्म देती है, और अहंकार पतन का मार्ग प्रशस्त करता है।

बिहार के अनेक नेताओं ने इस चक्र को देखा है,  सत्ता, सुख, स्वार्थ और फिर सुनापन। लेकिन शायद ही किसी ने इससे सबक लिया हो। इतिहास साक्षी है कि जिन्होंने समय की नब्ज़ नहीं समझी, वे समय की धूल में मिल गए।

बिहार की राजनीति अब ‘दल’ से ज्यादा  ‘दलदल’ बन चुकी है। हर कोई किसी न किसी गठबंधन, समझौते या समीकरण का हिस्सा है। विचारधारा केवल भाषण तक सीमित है, जमीन पर सब ‘संभावना’ देखते हैं। इस बार के चुनाव में कई दलों ने अपना वैचारिक चोला उतारकर नया परिधान पहना, ताकि वे सत्ता के समीकरण में फिट बैठ सकें।

लेकिन जनता अब समझदार है। वह यह देख रही है कि कौन सिद्धांत से चलता है और कौन सत्ता के लिए पलटी मारता है। यही कारण है कि बिहार की राजनीति अब संक्रमण काल में है,  पुरानी सोच और नई पीढ़ी के बीच टकराव का काल।

कभी राजनीति ‘सेवा’ का माध्यम था, आज ‘संपत्ति’ का साधन बन गई है। इस परिवर्तन ने समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना को क्षीण कर दिया है। नेताओं के भाषणों में विकास की बातें हैं, पर उनके कर्मों में निजी स्वार्थ झलकता है।

बिहार का मतदाता अब इस विरोधाभास को भलीभांति समझने लगा है। वह जानता है कि जो नेता अपने गिरते ग्राफ को नहीं देखता, वह समाज के उत्थान की क्या बात करेगा? शायद यही कारण है कि आज जनता बदलाव चाहती है न केवल चेहरे का, बल्कि चरित्र का भी।

वक्त सबसे बड़ा शिक्षक है। वह हर किसी को उसकी औकात और औचित्य दोनों दिखा देता है। सत्ता में रहने वाला व्यक्ति जब विनम्र होता है, तो वह इतिहास बनता है; जब अहंकारी होता है, तो इतिहास का हिस्सा बन जाता है।

बिहार की राजनीति में अब वही टिकेगा जो जनता की धड़कन सुन सके, जो सत्ता को ‘सेवा’ का अवसर माने, न कि ‘स्वार्थ’ का माध्यम। क्योंकि समय का पहिया रुकता नहीं है जो आज शिखर पर है, कल वही नीचे भी आ सकता है।

राजनीति में गरूर का अंत सुनिश्चित है। बिहार चुनाव ने यह साक्षात दिखा देगा कि जनता ही असली मालिक है। जो जनता की भावनाओं से खेलता है, वह देर-सबेर जनता की अदालत में दंडित होता ही है। इसलिए जब वक्त साथ हो,  जब दिन और दशा दोनों अनुकूल हों, तब विनम्रता ही सबसे बड़ी शक्ति होती है। क्योंकि जब यही वक्त विमुख होता है, तब वही भीड़ जो जयघोष करती थी, वही हूटिंग करने लगती है।



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