भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं होता है, बल्कि यह दो परिवारों और परंपराओं का भी संगम है। विवाह के बाद पति-पत्नी एक साथ जीवन की शुरुआत करते हैं, जिसमें आर्थिक सहयोग, संपत्ति निर्माण और जिम्मेदारियों का निर्वाह भी शामिल होता है। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि विवाह के दौरान या विवाहोपरांत पति-पत्नी मिलकर संपत्ति अर्जित करते हैं। किंतु जब वैवाहिक संबंधों में तनाव उत्पन्न होता है और मामला अदालत तक पहुँचता है, तो प्रश्न खड़ा होता है कि ऐसी संपत्ति किसकी मानी जाएगी?
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसला में इस प्रश्न का उत्तर दिया है। अदालत ने साफ किया है कि यदि पति-पत्नी के नाम पर संयुक्त रूप से संपत्ति खरीदी गई है, तो यह पति की अकेली नहीं हो सकती है, भले ही ईएमआई उसने चुकाई हो। ऐसी संपत्ति पर पति-पत्नी दोनों समान रूप से हकदार हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर शामिल थे, ने एक वैवाहिक विवाद पर सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया है कि संयुक्त संपत्ति पति की नहीं मानी जाएगी केवल इस आधार पर कि उसने लोन की किस्तें भरी हैं। ऐसी संपत्ति पर पति और पत्नी दोनों 50-50 प्रतिशत हिस्सेदारी रखते हैं। यदि पति यह दावा करता है कि चूँकि किस्तें उसने चुकाईं, इसलिए वह संपत्ति का अकेला मालिक है, तो यह बेनामी लेनदेन अधिनियम (Benami Act) की धारा 4 का उल्लंघन होगा। पत्नी का यह तर्क भी अदालत ने खारिज कर दिया है कि ऐसी संपत्ति को उसके “स्त्रीधन” का हिस्सा माना जाए। अदालत ने कहा कि “स्त्रीधन” केवल वही है, जो विवाह से पहले या बाद में उपहार स्वरूप दिया जाता है और जो केवल स्त्री के स्वामित्व और उपभोग के लिए होता है। संयुक्त संपत्ति उपहार नहीं होती है, बल्कि यह दोनों पक्षों के प्रयास और योगदान से बनी हुई संपत्ति है।
भारतीय पारिवारिक और दांपत्य कानून में स्त्रीधन (Stridhan) और संयुक्त संपत्ति (Joint Property) दो अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। “स्त्रीधन” को विवाह से पहले, विवाह के समय या विवाहोपरांत उसके माता-पिता, रिश्तेदार, पति या ससुराल वालों द्वारा दिए गए उपहार, आभूषण, नकद, संपत्ति आदि “स्त्रीधन” कहलाता है। यह केवल स्त्री का होता है और उसके पति या ससुराल वालों का इस पर कोई अधिकार नहीं होता है। भारतीय दंड संहिता और हिन्दू विवाह अधिनियम में “स्त्रीधन” को स्त्री की व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में मान्यता मिली हुई है।
विवाह के दौरान पति-पत्नी द्वारा संयुक्त नाम से खरीदी गई संपत्ति। इसे परिवार के सामूहिक कोष से अर्जित किया जाता है। चाहे पति कमाता हो या पत्नी, योगदान का मतलब केवल पैसों तक सीमित नहीं है घर चलाना, बच्चों का पालन-पोषण करना, घरेलू कार्य भी योगदान माना जाता है। इस संपत्ति पर पति और पत्नी दोनों का समान हक होता है।
बेनामी लेनदेन अधिनियम (1988) की धारा 4 के अनुसार, कोई व्यक्ति यदि किसी और के नाम पर संपत्ति खरीदता है, तो उस संपत्ति पर मालिकाना हक उसी व्यक्ति का माना जाएगा, जिसके नाम पर संपत्ति दर्ज है। पति यदि पत्नी के नाम पर संपत्ति खरीदता है, तो वह उसका बेनामी मालिक नहीं कहलाएगा, बल्कि पत्नी भी वैधानिक मालिक मानी जाएगी। इसी तरह, यदि दोनों ने मिलकर संपत्ति खरीदी है, तो दोनों बराबर के मालिक होंगे।
दिल्ली हाईकोर्ट ने इस कानून का हवाला देते हुए कहा कि पति यदि यह दावा करता है कि ईएमआई उसने भरी है, इसलिए उसका हक ज्यादा है, तो यह बेनामी लेनदेन की परिभाषा के विपरीत होगा।
भारत में लंबे समय से यह धारणा रही है कि घर-परिवार चलाने और संपत्ति अर्जित करने की जिम्मेदारी पति की है। पत्नी को "गृहिणी" मानकर केवल घरेलू कार्यों तक सीमित कर दिया जाता है। लेकिन आधुनिक समय में पति-पत्नी दोनों मिलकर आर्थिक और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। यह फैसला एक तरह से सामाजिक समानता और लैंगिक न्याय की दिशा में बड़ा कदम है। अब पति यह नहीं कह सकता कि उसने ईएमआई चुकाई, इसलिए घर सिर्फ उसका है। पत्नी का योगदान, चाहे वह घर संभालने का हो या सीधे आर्थिक, दोनों का महत्व है। यह फैसला उन महिलाओं के लिए भी राहतकारी है, जो वैवाहिक विवादों के दौरान आर्थिक सुरक्षा खोने के डर से समझौता करने पर मजबूर हो जाती थी।
अधिकतर मामलों में पति संपत्ति पर अपना अधिकार जताता था। तलाक या विवाद की स्थिति में पत्नी को सिर्फ भरण-पोषण (maintenance) तक सीमित कर दिया जाता था। संयुक्त संपत्ति को अक्सर पति की कमाई मानकर पत्नी को उसका उचित हिस्सा नहीं मिलता था। लेकिन हाईकोर्ट का फैसला स्पष्ट करता है कि संयुक्त संपत्ति में पत्नी का भी 50% हिस्सा है। तलाक के मामलों में संपत्ति का बंटवारा निष्पक्ष होगा। इससे महिला की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित होगी।
यह फैसला स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता और समान अधिकार को मजबूती देता है। स्त्री को अब यह भरोसा रहेगा कि यदि उसने विवाह के दौरान अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा परिवार और बच्चों को समर्पित किया है, तो उसके योगदान को अनदेखा नहीं किया जाएगा। पति और पत्नी दोनों के अधिकार बराबर होंगे, जिससे विवाह संस्था में न्याय और विश्वास मजबूत होगा।
भारत में विवाह और संपत्ति के अधिकार को लेकर कई बदलाव हुए हैं। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) बेटियों को संपत्ति में बराबर का हक देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। हिन्दू विवाह अधिनियम (1955) विवाह, तलाक, भरण-पोषण और दांपत्य अधिकारों को कानूनी रूप प्रदान किया है। स्त्रीधन की मान्यता अदालतों ने समय-समय पर स्पष्ट किया है कि स्त्रीधन पर केवल स्त्री का अधिकार है। हालिया फैसला अब अदालतें यह भी मान रही हैं कि संयुक्त संपत्ति केवल पति की कमाई नहीं है, बल्कि पत्नी के घरेलू योगदान का भी परिणाम है।
अमेरिका और यूरोप के कई देशों में "Community Property Law" है, जिसके अनुसार विवाह के बाद अर्जित संपत्ति पति-पत्नी की संयुक्त मानी जाती है। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में भी तलाक की स्थिति में संपत्ति का समान बंटवारा होता है। भारत अब धीरे-धीरे उसी दिशा में बढ़ रहा है।
इस फैसले के बावजूद कुछ चुनौतियाँ मौजूद हैं। ग्रामीण भारत में अभी भी स्त्रियों को संपत्ति पर अधिकार दिलाना कठिन है। कई पुरुष इसे अपने खिलाफ मान सकते हैं और विवादों में वृद्धि हो सकती है। संपत्ति के दस्तावेजों में यदि केवल पति का नाम हो, तो पत्नी को अधिकार दिलाना जटिल होगा।
दिल्ली हाईकोर्ट का यह फैसला केवल कानूनी निर्णय नहीं है, बल्कि एक सामाजिक क्रांति है। इसने यह संदेश दिया है कि विवाह केवल जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि समानता का संबंध है। पति और पत्नी दोनों के योगदान की मान्यता जरूरी है, चाहे वह आर्थिक हो या भावनात्मक। यह फैसला आने वाले समय में भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष समानता, विवाह में न्याय और परिवारिक संपत्ति के निष्पक्ष बंटवारे की नींव रखेगा।
