रक्त की एक बूंद भी नहीं गिरती है और पूरी हो जाती है बलि - “माँ मुंडेश्वरी धाम”

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना

भारत एक धार्मिक और आध्यात्मिक देश है। यहाँ की धरती पर अनगिनत देवस्थल, मंदिर और आस्था का केंद्र मौजूद हैं। हिमालय की गुफाओं और समुद्र तटों से लेकर जंगलों के बीच बसे मंदिरों तक, हर जगह भक्ति की अलौकिक शक्ति विद्यमान है। इन्हीं में से एक अद्वितीय मंदिर है “माँ मुंडेश्वरी धाम”, जो बिहार के कैमूर जिला के पंवरा पहाड़ी पर स्थित है। यह मंदिर अपनी रहस्यमयी परंपराओं, प्राचीन स्थापत्य और धार्मिक महिमा के कारण सदियों से श्रद्धालुओं को आकर्षित करता आया है। यहाँ बलि की परंपरा है, लेकिन विशेषता यह है कि यहाँ रक्त की एक भी बूंद नहीं गिरती है।

“माँ मुंडेश्वरी मंदिर” कैमूर जिला के रामगढ़ क्षेत्र में पंवरा पहाड़ी पर बसा हुआ है। यह मंदिर समुद्र तल से लगभग 600 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों का मार्ग और अब रोपवे की भी सुविधा उपलब्ध है। मंदिर परिसर से पूरे कैमूर का प्राकृतिक सौंदर्य दिखाई देता है। घने जंगल, चारों ओर फैली हरियाली, पहाड़ी की ठंडी हवा और भक्ति की गूंज वातावरण को अद्भुत बना देता है।

“माँ मुंडेश्वरी मंदिर” को एशिया का सबसे प्राचीन जीवित मंदिर माना जाता है। पुरातत्व विभाग (ASI) के अनुसार, इसकी स्थापना लगभग पहली शताब्दी ईस्वी में हुई थी। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण शक- कुशाण काल में किया गया है। इसकी स्थापत्य शैली नागर शैली से मेल खाती है। मंदिर अष्टकोणीय आकार में बना हुआ है, जो इसे अन्य सभी मंदिरों से अलग बनाता है।

“माँ मुंडेश्वरी मंदिर” की सबसे बड़ी विशेषता इसका अष्टकोणीय आकार है। भारतीय मंदिर वास्तुकला में यह शैली अत्यंत दुर्लभ है। गर्भगृह के मध्य में एक चतुर्मुखी शिवलिंग स्थापित है, जिसकी चारों दिशाओं में मुखाकृति है। शिवलिंग सुबह, दोपहर और शाम के समय अलग-अलग रंग का आभास देता है। सुबह में सुनहरा, दोपहर में नीला-धूसर, और शाम में लाल आभा से युक्त दिखाई देता है। यह दृश्य भक्तों को दिव्य अनुभूति प्रदान करता है।

“माँ मुंडेश्वरी धाम” में देवी वाराही की मूर्ति विराजमान है। वे महिष पर सवार हैं और उनका स्वरूप अत्यंत भव्य एव आकर्षक है। वाराही को माँ दुर्गा का ही एक रूप माना जाता है, जो दुष्ट शक्तियों का संहार करती हैं। मान्यता है कि यहाँ माँ ने राक्षस मुंड का वध किया था, इसलिए मंदिर का नाम पड़ा “मुंडेश्वरी”।




इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है यहाँ की अद्भुत बलि प्रथा। सामान्यतः बलि में पशु का वध कर दिया जाता है और रक्त बहता है। लेकिन यहाँ पुजारी मंत्रोच्चार करते हैं, फूल-अक्षत चढ़ाते हैं और बलि के लिए लाए गए बकरे के शरीर पर हाथ रखते हैं। इसके बाद बकरा अचानक अचेत हो जाता है और लड़खड़ाते हुए गर्भगृह से बाहर निकल जाता है। थोड़ी देर बाद वह फिर से जीवित और स्वस्थ हो उठता है। इसे माँ द्वारा बलि स्वीकार किया जाना माना जाता है। इस अद्भुत घटना को देखने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं।

इस चमत्कारी बलि को लेकर वैज्ञानिक भी उत्सुक रहे हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि मंदिर के गर्भगृह का वातावरण विशेष प्रकार की ऊर्जा और ध्वनि तरंगों से भरा है। मंत्रोच्चार और घंटियों की ध्वनि से उत्पन्न सोनिक वेव्स का प्रभाव बकरे की नसों पर पड़ता है, जिससे वह कुछ समय के लिए अचेत हो जाता है। इसे एक प्रकार की ट्रांस स्थिति कहा जा सकता है। हालांकि विज्ञान इस रहस्य को पूरी तरह सुलझा नहीं पाया है, इसलिए श्रद्धालुओं के लिए यह अब भी चमत्कार है।

माँ मुंडेश्वरी मंदिर से जुड़ी अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं। राक्षस मुंड का वध- कथा है कि एक समय दैत्य मुंड ने यहाँ आतंक मचाया था। माँ भवानी ने युद्ध कर उसका वध किया। तभी से माँ को मुंडेश्वरी कहा जाने लगा। शिव-पार्वती का निवास स्थल- मान्यता है कि इसी पहाड़ी पर भगवान शिव और माता पार्वती ने कुछ समय तक निवास किया था। चतुर्मुखी शिवलिंग का रहस्य- कहा जाता है कि यह शिवलिंग स्वयंभू है और काल के हर चरण में भक्तों को दिव्य दर्शन देते है।

यहाँ हर वर्ष चैत्र और शारदीय नवरात्र में विशाल मेला लगता है। हजारों श्रद्धालु दूर-दूर से यहाँ आते हैं। नवरात्र के दौरान भजन-कीर्तन, अखंड ज्योति और विशेष पूजा होती है। यहाँ बकरे की बलि भी इन्हीं अवसरों पर विशेष रूप से दी जाती है। इसके अलावा सावन और महाशिवरात्रि पर भी यहाँ भक्तों का बड़ा जमावड़ा होता है।

माँ मुंडेश्वरी मंदिर सिर्फ धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यहाँ का लोकजीवन, गीत, परंपराएँ और त्योहार माँ से गहराई से जुड़े हैं। कैमूर क्षेत्र की लोककथाओं और लोकगीतों में माँ मुंडेश्वरी का उल्लेख मिलता है। आसपास के गाँवों में लोग अपने शुभ कार्यों की शुरुआत माँ के आशीर्वाद से करते हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस मंदिर को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया है। समय-समय पर इसके जीर्णोद्धार और संरक्षण का कार्य किया गया है। मंदिर की दीवारों पर अंकित मूर्तियाँ, शिल्प और अभिलेख प्राचीन भारतीय कला की अद्भुत झलक पेश करता है। यहाँ मिले शिलालेखों से पता चलता है कि गुप्तकाल और पाल काल में भी इस मंदिर की बड़ी मान्यता थी।

आज के समय में “माँ मुंडेश्वरी मंदिर” बिहार के प्रमुख पर्यटन स्थलों में गिना जाता है। यहाँ आने वाले श्रद्धालु न केवल माँ के दर्शन करते हैं, बल्कि कैमूर की प्राकृतिक छटा का भी आनंद उठाते हैं। बिहार सरकार और पर्यटन विभाग ने इसे धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना बनाई है। रोपवे, सड़क और आवासीय सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रही हैं।

श्रद्धालुओं का मानना है कि यहाँ आने से जीवन की सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। माँ की कृपा से संतान, धन, स्वास्थ्य और सफलता की प्राप्ति होती है। बलि की अद्भुत परंपरा को देखकर वे स्वयं को धन्य मानते हैं। कई भक्त बताते हैं कि उनकी मनोकामनाएँ पूरी होने के बाद वे हर वर्ष यहाँ दर्शन करने अवश्य आते हैं।

भारत में अनेक स्थानों पर बलि की परंपरा रही है, जैसे कामाख्या मंदिर (असम), तारापीठ (पश्चिम बंगाल) इत्यादि। लेकिन माँ मुंडेश्वरी मंदिर अद्वितीय है क्योंकि यहाँ रक्त नहीं बहता है। बकरा मरता नहीं है, केवल अचेत होता है। यह प्रथा सदियों से बिना किसी परिवर्तन के चल रही है।

यह मंदिर इस तथ्य को सिद्ध करता है कि आस्था किसी भी तर्क से बड़ी होती है। भले ही विज्ञान इसे समझाने की कोशिश करता हो, लेकिन भक्तों के लिए यह माँ की ही शक्ति है। लोकमानस में यह विश्वास गहराई से बैठा है कि यहाँ माँ स्वयं बलि स्वीकार करती हैं और भक्तों की रक्षा करती हैं।



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