आभा सिन्हा, पटना
भारतवर्ष के शक्तिपीठों की श्रृंखला में “देवगर्भा शक्तिपीठ” का विशेष आध्यात्मिक और ऐतिहासिक महत्त्व है। यह पवित्र स्थान पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला में, बोलपुर रेलवे स्टेशन से उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित कोपई नदी के तट पर कांची नामक स्थान पर अवस्थित है। यहाँ माँ सती की अस्थि (हड्डी) गिरी थी। यही कारण है कि यह स्थल “देवगर्भा” के नाम से विख्यात हुआ अर्थात् वह स्थान जहाँ देवी का पवित्र अंगस्थल स्थापित हुआ।
यहाँ की अधिष्ठात्री देवी को देवगर्भा कहा जाता है और उनके साथ विराजमान भैरव हैं रुरु। माँ देवगर्भा की उपासना तन, मन और आत्मा को पवित्र कर देती है।
जब भगवान शंकर अपनी प्रिया सती के दग्ध शरीर को लेकर तांडव कर रहे थे, तब ब्रह्मांड में प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माँ सती के शरीर के अंग-प्रत्यंग काटकर विभिन्न स्थानों पर गिराए। जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई।
इन्हीं पवित्र स्थलों में एक है देवगर्भा, जहाँ सती की अस्थि गिरी थी। अस्थि का अर्थ है शरीर की हड्डी, जो स्थायित्व और दृढ़ता का प्रतीक है। अतः देवगर्भा स्थान अविचल शक्ति और अटल आस्था का द्योतक है।
“देवगर्भा शक्तिपीठ” बोलपुर-शांतिनिकेतन क्षेत्र के समीप स्थित है, जो बंगाल की सांस्कृतिक राजधानी कहलाता है। कोपई नदी का शांत तट इस स्थल की प्राकृतिक सुंदरता को और बढ़ा देता है।
यहाँ आने वाले श्रद्धालु प्रकृति और अध्यात्म के अद्भुत संगम का अनुभव करते हैं। इस क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की साहित्यिक प्रेरणाओं का प्रवाह भी रहा है, इसलिए यह स्थल भक्ति और संस्कृति का संगम माना जाता है।
देवगर्भा नाम स्वयं में दार्शनिक गहराई रखता है। ‘देव’ अर्थात् दिव्यता, और ‘गर्भा’ अर्थात् स्रोत या उद्गम। अर्थात् यह वह स्थान है जहाँ दिव्यता का उद्गम हुआ।
यहाँ की अधिष्ठात्री देवी को अस्थि-शक्ति का प्रतीक माना जाता है, जो मानव शरीर की स्थिरता और शक्ति का आधार होती है।
भैरव रुरु का अर्थ है ‘जो भय को रौंदता है’। रुरु भैरव का स्वरूप ज्ञान, साहस और संरक्षण का प्रतीक है। इस प्रकार देवगर्भा और रुरु मिलकर साधक को आध्यात्मिक स्थिरता और आत्मबल प्रदान करता है।
“देवगर्भा शक्तिपीठ” में नवरात्र, कालीपूजा और माघ-पूर्णिमा पर विशेष उत्सव आयोजित किया जाता है। इन अवसरों पर आसपास के गाँवों और जिलों से हजारों भक्त देवी के दर्शन के लिए आते हैं।
माँ की प्रतिमा सामान्यतः अस्थिभाव मुद्रा में प्रतिष्ठित होती है, जो शरीर के भीतर छिपी शक्ति का प्रतीक है। यहाँ भक्त देवी को सिंदूर, लाल वस्त्र, पुष्प और नैवेद्य अर्पित करते हैं।
एक विशेष परंपरा यहाँ यह भी है कि साधक अस्थि से बने छोटे ताबीज या प्रतीक अपने साथ रखते हैं, जो उन्हें नकारात्मक ऊर्जाओं से बचाता है।
स्थानीय मान्यता के अनुसार, जो भी व्यक्ति श्रद्धापूर्वक माँ देवगर्भा के दर्शन करता है, उसके जीवन से भय और बाधाएँ दूर हो जाती हैं। यह भी कहा जाता है कि देवी की कृपा से शारीरिक पीड़ा, हड्डियों से जुड़ी बीमारियाँ और आत्मिक दुर्बलता का नाश होता है।
कई साधकों के अनुभव बताता है कि यहाँ साधना के दौरान शरीर में कंपन और ऊर्जा का संचार स्वतः होने लगता है, मानो माँ की शक्ति साधक के शरीर में प्रवाहित हो रही हो।
देवगर्भा का परिवेश अत्यंत शांत और अलौकिक है। कोपई नदी का तट, चारों ओर फैली हरियाली, और मंदिर से उठती आरती की ध्वनि, यह सब मिलकर एक अद्भुत ध्यानयोग वातावरण तैयार करता है।
यहाँ आने वाला हर श्रद्धालु किसी अदृश्य शक्ति की अनुभूति करता है। कहा जाता है कि रात्रि के समय मंदिर परिसर में दीप्तिमान प्रकाश-कण दिखाई देता है, जिन्हें भक्त “देवी की ज्योति” मानते हैं।
देवगर्भा मंदिर का निर्माण पारंपरिक बंगाल शैली में हुआ है, जिसमें ईंटों की नक्काशी, कमल पुष्प आकृतियाँ और शिखर के शीर्ष पर त्रिशूल एवं ध्वज अंकित हैं। मंदिर के गर्भगृह में माँ की प्रतिमा के साथ भैरव रुरु का स्थान भी है।
मंदिर के चारों ओर परिक्रमा पथ, दीपस्तंभ और छोटा सरोवर स्थित है, जिसे ‘अस्थि-कुंड’ कहा जाता है। यहाँ श्रद्धालु जल अर्पण करते हैं और अपनी मनोकामना-सूत्र बाँधते हैं।
देवगर्भा न केवल एक शक्तिपीठ है, बल्कि यह तीर्थ-मार्ग का भी एक प्रमुख पड़ाव है। शक्तिसाधना के अनुयायी इसे “पूर्वांचल की अस्थि-पीठ” कहते हैं।
यहाँ हर वर्ष ‘देवी-शक्ति यात्रा’ के अंतर्गत साधक इस स्थल को अवश्य सम्मिलित करते हैं। कहा जाता है कि कामाख्या (असम) से आरंभ हुई शक्ति-परिक्रमा देवगर्भा में पूर्ण होती है, जिससे साधक की साधना सिद्ध मानी जाती है।
स्थानीय लोगों के बीच एक कथा प्रसिद्ध है कि एक बार एक साधक ने माँ से वरदान माँगा कि वह अमर ज्ञान प्राप्त करे। तब देवी ने कहा कि “जिसे अस्थि की स्थिरता समझ में आ जाए, वही आत्मा की अमरता को जान सकता है।” इसके बाद से यहाँ ध्यान योग और शरीर-ध्यान साधना की परंपरा प्रारंभ हुई।
हाल के वर्षों में देवगर्भा शक्तिपीठ को पुरातात्विक और धार्मिक महत्व दोनों दृष्टि से संरक्षित किया गया है। बीरभूम जिला प्रशासन और स्थानीय समितियाँ मिलकर मंदिर परिसर का जीर्णोद्धार कर रही हैं।
इसके साथ ही पर्यटकों के लिए पहुँच मार्ग, विश्राम स्थल, और तीर्थ सुविधाएँ विकसित की जा रही हैं। शांतिनिकेतन आने वाले कई पर्यटक अब देवगर्भा दर्शन को अपनी यात्रा का हिस्सा बनाते हैं।
“देवगर्भा शक्तिपीठ” यह सिखाता है कि शक्ति का सार स्थायित्व में है, जैसे अस्थि शरीर को स्थिर रखता है, वैसे ही श्रद्धा और साधना जीवन को संतुलित रखता है।
माँ देवगर्भा की कृपा से व्यक्ति अविचल, निर्भय और आत्म-बल से परिपूर्ण होता है। भैरव रुरु के साथ यह स्थान साधक को बाहरी भय और आंतरिक संशय दोनों से मुक्त करता है।
“देवगर्भा शक्तिपीठ” एक प्राचीन, रहस्यमय और अतुलनीय साधना-स्थल है, जहाँ माँ सती की अस्थि ने धरती को पवित्र किया। यहाँ की शक्ति साधक को स्थिरता, धैर्य और आत्मविश्वास प्रदान करती है। कोपई नदी के तट पर स्थित यह स्थान केवल एक मंदिर नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा का जीवंत स्रोत है, जहाँ आने से आत्मा शुद्ध होती है और मन देवी की अनंत कृपा में लीन हो जाता है।
