विज्ञान की दुनिया में हर दिन कुछ न कुछ ऐसा घटित होता है जो पारंपरिक ज्ञान को नई दृष्टि से देखने को मजबूर कर देता है। डेनमार्क की तकनीकी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने हाल ही में एक ऐसा ही चौंकाने वाला शोध प्रस्तुत किया है, जिसमें चींटियों की मदद से ‘दही’ बनाने की प्राचीन विधि को फिर से खोजा गया है। यह खोज न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से रोचक है, बल्कि यह भी बताती है कि प्रकृति में छिपे जीवाणु और सूक्ष्मजीव किस तरह से भोजन और स्वास्थ्य से गहराई से जुड़े हुए हैं।
वैज्ञानिकों की यह खोज “रेडवुड चीटियों” (Formica प्रजाति) पर केंद्रित है। इन चींटियों के शरीर में मौजूद विशेष प्रकार के बैक्टीरिया, अम्ल और एंजाइम दूध में प्राकृतिक रूप से उपस्थित लैक्टोज को तोड़कर उसे लैक्टिक अम्ल में बदल देता है। यही प्रक्रिया दही बनने की मूल वैज्ञानिक क्रिया है। पारंपरिक दही में भी लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया की भूमिका होती है, लेकिन यहां आश्चर्यजनक यह है कि वही कार्य चींटियां अपने जैव-रासायनिक गुणों से कर देती हैं।
शोधकर्ताओं ने इस रहस्य को समझने के लिए बुल्गारिया के एक गांव का दौरा किया, जहां अब भी कुछ बुजुर्ग लोग चींटियों की सहायता से दही तैयार करने की पारंपरिक विधि को जानते हैं। स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि पुराने समय में जब आधुनिक कल्चर या स्टार्टर उपलब्ध नहीं था, तब वे दूध में कुछ विशेष प्रकार की चींटियां डालते थे। कुछ ही घंटों में दूध गाढ़ा होकर दही बन जाता था। यह प्रक्रिया पूरी तरह प्राकृतिक होती थी और तैयार दही में विशिष्ट स्वाद और गंध होती थी।
डेनमार्क के वैज्ञानिकों का मानना है कि यह खोज खाद्य विज्ञान में एक नई दिशा खोल सकता है। यदि चींटियों में पाए जाने वाले एंजाइम और बैक्टीरिया को नियंत्रित परिस्थितियों में अलग कर लिया जाए, तो इसका उपयोग पारंपरिक कल्चर की जगह किया जा सकता है। इससे दही बनाने की प्रक्रिया और भी प्राकृतिक, पर्यावरण-अनुकूल और ऊर्जा-किफायती बन सकता है।
यह शोध यह भी बताता है कि मानव सभ्यता की पुरानी परंपराओं और प्रकृति के अवलोकन में अनेक ऐसे रहस्य छिपा है जिसे आधुनिक विज्ञान ने अभी पूरी तरह समझा नहीं है। प्राचीन ग्रामीण समुदायों का ज्ञान आज भी वैज्ञानिक नवाचारों को प्रेरणा दे सकता है।
“चींटियों से बनी दही” सुनने में भले ही अजीब लगे, पर यह इस बात का प्रमाण है कि प्रकृति में हर जीव अपने भीतर किसी न किसी उपयोगी जैविक रहस्य को समेटे हुए है। डेनमार्क की यह खोज यह संदेश देता है कि आधुनिक तकनीक तभी सार्थक है जब वह पुरानी परंपराओं और प्रकृति के गहरे ज्ञान से जुड़ी रहे। आने वाले समय में यह संभव है कि इस ‘चींटी तकनीक’ से विकसित बायो-कल्चर से और भी स्वास्थ्यवर्धक एव टिकाऊ खाद्य उत्पाद बना सकें।
