राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी – “हरसिद्धि माता”

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना

भारतभूमि की आत्मा सदियों से देवी-देवताओं की भक्ति, साधना और तप से सिंचित रही है। हर नगर, हर क्षेत्र में कोई न कोई शक्ति स्वरूपा देवी का वास है जो वहाँ की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। मध्यप्रदेश के उज्जैन नगरी, जो स्वयं महाकालेश्वर भगवान की नगरी है, वहीं स्थित है माँ हरसिद्धि देवी, जो न केवल उज्जैन की रक्षक हैं, बल्कि महान सम्राट राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी भी मानी जाती हैं।

माँ हरसिद्धि का मंदिर शिव और शक्ति की संयुक्त उपासना का ऐसा स्थान है, जहाँ भक्तों को एक साथ “महाकाल” और “माँ मंगलचण्डिका” का आशीर्वाद मिलता है। यह शक्तिपीठ न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और स्थापत्य की दृष्टि से भी विलक्षण है।

हरसिद्धि माता का उद्भव सीधा जुड़ा है उस महाघटना से जिसने पूरे ब्रह्मांड को हिला दिया था “माता सती का आत्मदाह”। पौराणिक ग्रंथों में वर्णन आता है कि जब दक्ष प्रजापति ने विराट यज्ञ का आयोजन किया और उसमें अपने जामाता भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया, तो भी सती अपने पिता के प्रति स्नेहवश उस यज्ञ में पहुँचीं। वहाँ उन्होंने देखा कि यज्ञमंडप में शिव का अपमान किया जा रहा है। अपमान से व्यथित सती ने अग्निकुंड में कूदकर अपने शरीर का त्याग कर दिया। जब यह समाचार शिव को मिला तो वे तांडव करते हुए सती का मृत शरीर लेकर समस्त लोकों में विचरण करने लगे। पृथ्वी पर त्राहि-त्राहि मच गई। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े कर दिए ताकि शिव का मोह भंग हो सके।

सती के अंग-प्रत्यंग जहाँ-जहाँ गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई। इन्हीं में से तेरहवाँ टुकड़ा, माँ सती की कोहनी (कूर्पर),  उज्जैन की धरती पर गिरा। इसी स्थान पर देवी हरसिद्धि ने अधिष्ठान ग्रहण किया।

संस्कृत में कहा गया है कि 

“उज्जयिन्यां कूर्परं वा मांगल्यं कपिलाम्बरः।
भैरवः सिद्धिदः साक्षात् देवी मंगल चण्डिका॥”

अर्थात्, उज्जैन में सती की कोहनी गिरी, यहाँ कपिलाम्बर भैरव इनके रक्षक हैं, और देवी मंगलचण्डिका के रूप में यहाँ विराजमान हैं। यही माँ आज हरसिद्धि देवी के रूप में प्रसिद्ध हैं।

उज्जैन के अमर सम्राट राजा विक्रमादित्य, जिनका नाम भारत के गौरव और वैभव के साथ लिया जाता है, हरसिद्धि देवी के अनन्य भक्त थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य का जीवन देवी कृपा का जीवंत उदाहरण था। कथाओं में आता है कि जब राजा विक्रमादित्य अपने जीवन के सबसे कठिन समय में थे, राज्य संकट में था, प्रजा भयभीत थी, तब वे इसी देवी के शरण में पहुँचे। उन्होंने तांत्रिक साधना आरंभ की और नवरात्र के दौरान कठोर तप किया। कहा जाता है कि उन्होंने माँ की प्रसन्नता के लिए ग्यारह बार अपना शीश काटकर देवी के चरणों में समर्पित किया। हर बार माँ ने उन्हें पुनः जीवित कर दिया। माँ हरसिद्धि ने प्रसन्न होकर उन्हें अद्वितीय ज्ञान, शक्ति और चिरयश प्रदान किया। यही कारण है कि विक्रमादित्य के शासनकाल को “स्वर्ण युग” कहा जाता है। इसी महान सम्राट ने भारतीय पंचांग का नया कालगणना प्रारंभ किया जिसे आज “विक्रम संवत्” के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार उज्जैन की हरसिद्धि देवी न केवल एक शक्ति का प्रतीक हैं बल्कि भारतीय इतिहास में राजधर्म, न्याय, वीरता और परोपकार की प्रेरक अधिष्ठात्री भी हैं।

हरसिद्धि मंदिर का मूल स्वरूप अत्यंत प्राचीन माना जाता है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि यह मंदिर रुद्र सरोवर के तट पर स्थित था। सरोवर सदैव कमल पुष्पों से भरा रहता था, जो समृद्धि और सौंदर्य का प्रतीक था। इसके पश्चिमी तट पर हरसिद्धि देवी का मंदिर था और पूर्वी तट पर महाकालेश्वर मंदिर। अर्थात् एक ओर शक्ति, दूसरी ओर शिव, दोनों का यह संगम स्थल स्वयं में ब्रह्मांडीय संतुलन का प्रतीक था। 18वीं शताब्दी में मराठा शासन के दौरान इस मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया। वर्तमान स्वरूप इसी कालखंड का है। मराठों ने इस मंदिर की मरम्मत के साथ-साथ दो विशाल दीपमालाएँ (दीप स्तंभ) भी बनवाए, जो आज भी मंदिर की पहचान हैं।

वर्तमान हरसिद्धि मंदिर चारों ओर से ऊँची दीवारों से घिरा है। भीतर प्रवेश करते ही श्रद्धालु को माँ की अलौकिक ऊर्जा का अनुभव होता है। गर्भगृह में माँ हरसिद्धि की मुख्य प्रतिमा के स्थान पर श्री यंत्र प्रतिष्ठित है। यह श्री यंत्र “सिद्ध यंत्र” माना जाता है,  कहा जाता है कि मात्र इसके दर्शन से ही मनुष्य के पाप नष्ट हो जाता है और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। श्री यंत्र पर सिंदूर चढ़ाया जाता है, जबकि मंदिर की अन्य प्रतिमाओं पर नहीं। इसके पीछे का रहस्य यह है कि सिंदूर शक्ति और जीवनशक्ति का प्रतीक है। श्री यंत्र, शक्ति का सार रूप है, इसलिए इसे ही लाल रंग से अलंकृत किया जाता है। गर्भगृह के पीछे भगवती अन्नपूर्णा की प्रतिमा विराजमान है, जो “अन्न और संतोष की देवी” हैं। यह संकेत है कि हरसिद्धि केवल बल की नहीं, पालन की शक्ति भी हैं।

मंदिर में प्रवेश करते ही सामने माँ के वाहन सिंह की विशाल प्रतिमा दिखाई देती है, जो साहस और शक्ति का प्रतीक है। मंदिर के सामने दो भव्य दीप स्तंभ हैं, एक का नाम शिव और दूसरे का पार्वती है। “शिव दीप स्तंभ” में 501 दीपमालाएँ और “पार्वती दीप स्तंभ” में 500 दीपमालाएँ हैं। दोनों में कुल 1001 दीपक प्रज्वलित होता है। दीपदान के समय इन दीपों को जलाने में लगभग 45 लीटर तेल लगता है। जब ये दीप एक साथ प्रज्वलित होता है, तो पूरा परिसर प्रकाशपुंज में परिवर्तित हो जाता है। यह दृश्य स्वयं में दिव्यता का साक्षात रूप है। दीपमालिकाओं के ये स्तंभ मराठाकालीन हैं और भारत में दीप स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।

मंदिर के सभागृह में स्थित श्री यंत्र को “सिद्ध श्री यंत्र” कहा जाता है। हिन्दू तांत्रिक परंपरा में श्री यंत्र ब्रह्मांड का ज्यामितीय रूप है,  इसमें समस्त सृष्टि का सृजन, स्थिति और लय निहित है। कहा जाता है कि उज्जैन के इस श्री यंत्र का दर्शन मात्र करने से साधक को अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है। यह यंत्र मन, धन, और आध्यात्मिक शक्ति का त्रिवेणी संगम है। इस यंत्र की ऊर्जा के कारण ही हरसिद्धि मंदिर को सिद्धपीठ भी कहा गया है। यहाँ की साधना सिद्धियों के लिए अत्यंत प्रभावी माना जाता है।

मंदिर प्रांगण में दो अखंड ज्योतियाँ निरंतर जलती रहती हैं। ये ज्योतियाँ भक्तों के लिए आशा, शांति और श्रद्धा का प्रतीक हैं। ऐसा माना जाता है कि इन ज्योतियों के दर्शन से मन के सारे संशय दूर हो जाते हैं और जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। मंदिर परिसर में स्थित कर्कोटकेश्वर महादेव मंदिर भी अत्यंत पूजनीय है। यह चौरासी महादेव में से एक हैं। जनमान्यता है कि यहाँ दर्शन करने से कालसर्प दोष का निवारण होता है।

मंदिर प्रांगण में चार दिशाओं में चार प्रवेश द्वार हैं, यह चार द्वार चारों दिशाओं की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही जो अलौकिक आभा का अनुभव होता है, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। मुख्य द्वार के भीतर सभागृह के सामने दो काले पत्थर के दीपस्तंभ खड़े हैं, जो आकाश की ओर मुख किए हुए हैं। यह रहस्यमय वैभव का वातावरण रचता है, मानो पृथ्वी और आकाश के बीच देवी की ऊर्जा प्रवाहित हो रही हो।

हरसिद्धि मंदिर तेरहवाँ शक्तिपीठ माना गया है। ज्योतिषियों के अनुसार, यह शक्तिपीठ मांगल्य और सिद्धि दोनों का संगम है। उज्जैन स्वयं कालपुरुष की नाभि कहा गया है, और इस नाभि में विराजित शक्ति हरसिद्धि हैं,  जो सृष्टि की गति और संतुलन को नियंत्रित करती हैं।




माँ हरसिद्धि की आराधना करने से शिव और शक्ति दोनों की पूजा का फल प्राप्त होता है। यह अनोखा योग केवल उज्जैन में ही संभव है। भक्तों का विश्वास है कि जो भी व्यक्ति मनोयोग से माँ हरसिद्धि की पूजा करता है, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। विवाह, संतान, व्यवसाय, और जीवन के संकटों के निवारण के लिए यहाँ पूजा-अर्चना करने से अद्भुत परिणाम मिलता है।

उज्जैन तांत्रिक साधना का प्राचीन केंद्र रहा है। माँ हरसिद्धि का यह शक्तिपीठ तंत्रसाधकों के लिए अत्यंत पवित्र स्थल है। नवरात्र के दौरान यहाँ गुप्त साधनाएँ, हवन, और मंत्रोच्चारण की परंपरा सदियों से चली आ रही है। कहा जाता है कि जो साधक यहाँ विधिपूर्वक साधना करता है, उसे “सिद्धि” की प्राप्ति होती है। इसीलिए देवी को “हरसिद्धि” अर्थात् सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाली कहा गया है।

राजा विक्रमादित्य की भक्ति केवल आडंबर नहीं था, वह भक्ति बलिदान था, हरसिद्धि माता के प्रति उनकी श्रद्धा इतनी प्रगाढ़ थी कि जब भी वे युद्ध में जाते, सबसे पहले माँ के चरणों में शीश नवाते। कथाओं में आता है कि जब एक बार उज्जैन पर संकट आया, तब विक्रमादित्य ने माँ से रक्षा की प्रार्थना की। देवी ने वरदान दिया “जब तक उज्जैन में मेरी आराधना होगी, यह नगर कभी विनाश नहीं देखेगा।” विक्रमादित्य ने उसी क्षण निर्णय लिया कि हरसिद्धि माता का मंदिर सदा राज्य की रक्षा का केंद्र रहेगा। उन्होंने देवी की महिमा को जन-जन तक पहुँचाया।

उज्जैन भारत की उन नगरीयों में से है जहाँ शक्ति, शिव और काल तीनों का संगम है। महाकालेश्वर समय के स्वामी, मृत्यु पर भी विजय देने वाले। हरसिद्धि माता शक्ति की अधिष्ठात्री, जीवन का स्रोत। कालभैरव रक्षक और न्याय के देवता। इन तीनों के संयुक्त दर्शन से भक्त को पूर्णता का अनुभव होता है। इसलिए कहा जाता है कि “उज्जैन में दर्शन से शिव-सिद्धि एक साथ प्राप्त होती है।”

नवरात्र के दौरान हरसिद्धि मंदिर का दृश्य स्वर्ग जैसा होता है। मंदिर की दोनों दीपमालिकाओं में एक साथ दीप जलाए जाते हैं, हजारों दीपक जब एक साथ टिमटिमाते हैं, तो पूरा आकाश देवी के वैभव से आलोकित हो उठता है। श्रद्धालु दिन-रात माता के जयकारे लगाते हैं  “जय हरसिद्धि माँ की! जय मांगलचण्डिका की!” मंदिर में आरती के समय बजने वाले विशाल नगाड़े भक्तों को ऊर्जा से भर देता है। प्रातः और संध्या आरती के समय पूरा वातावरण “ॐ जय हरसिद्धि माता” के गूंज से प्रकम्पित होता प्रतीत होता है।

मध्यप्रदेश ही नहीं, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र तक हरसिद्धि माता की अपार श्रद्धा फैली हुई है। गुजरात के पोरबंदर के पास भी “हरसिद्धि माता मंदिर” है, जिसे उज्जैन की ही शक्ति का विस्तार माना जाता है। भक्तों का विश्वास है कि हरसिद्धि माता हर जाति, हर वर्ग, हर व्यक्ति के लिए समान रूप से कृपालु हैं। जो सच्चे मन से पुकारता है, माँ उसकी सुनती ही हैं।

हरसिद्धि मंदिर केवल उपासना का स्थान नहीं है, बल्कि शक्ति और भक्ति के एकत्व का जीवंत प्रतीक है। यहाँ ज्ञान और विश्वास, तंत्र और वेद, शिव और शक्ति, सब एक हो जाता है। माँ हरसिद्धि सिखाती हैं कि जीवन में सिद्धि तभी संभव है जब अहंकार का समर्पण करें। राजा विक्रमादित्य की कथा इसी का साक्षात उदाहरण है, उन्होंने अपनी सबसे बड़ी संपत्ति “शीश” तक देवी को समर्पित किया, और देवी ने उन्हें “अमर यश” दिया।



ग्रंथों में कहा गया है कि “जो उज्जैन में हरसिद्धि का दर्शन करता है, उसे सप्तपातक नष्ट होते हैं और सप्तलोक का पुण्य प्राप्त होता है।” यहाँ की पूजा करने से जीवन के कष्टों का निवारण होता है, परिवार में सुख-शांति बनी रहती है, मन की अशांति दूर होती है और साधक को आत्मसिद्धि की अनुभूति होती है।

उज्जैन का हरसिद्धि मंदिर न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि भारतीय संस्कृति की निरंतरता का साक्ष्य भी है। यह बताता है कि कैसे एक ही स्थान पर इतिहास, पुराण और अध्यात्म मिलकर जीवंत होते हैं। यहाँ राजा विक्रमादित्य की गाथा, सती की शक्ति, शिव का वैराग्य, विष्णु की नीति और भक्त की श्रद्धा सब एक सूत्र में गुँथे हुए हैं।

माँ हरसिद्धि केवल उज्जैन की देवी नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्ण भारत की साधना का प्रतीक हैं। उनका नाम ही बताता है “हर-सिद्धि” अर्थात् हर प्रकार की सिद्धि देने वाली। राजा विक्रमादित्य की भक्ति ने सिखाया है कि सच्ची आराधना में त्याग, समर्पण और श्रद्धा तीनों आवश्यक हैं। माँ हरसिद्धि के मंदिर में आने वाला हर भक्त यही अनुभव करता है कि यहाँ केवल पूजा नहीं होता है, यहाँ आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है। आज भी जब उज्जैन की संध्या आरती में दीपमालाएँ जलती हैं।



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