भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक मतभेद और विचारों की विविधता स्वाभाविक हैं। परंतु जब यह मतभेद सीमाओं को लांघकर विदेशी धरती पर गूंजने लगता है, तो सवाल उठना भी वाजिब है, क्या किसी भारतीय नेता को देश के आंतरिक राजनीतिक मुद्दों को विदेश में उठाना चाहिए?
हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कोलंबिया की ईआईए यूनिवर्सिटी में कहा है कि “भारत में लोकतांत्रिक ढांचा दबाव में है, संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है और असहमति को कुचला जा रहा है।” उनका यह बयान देश के भीतर और बाहर दोनों जगह बहस का विषय बन गया है। आलोचकों ने इसे “विदेश में देश की छवि धूमिल करने” वाला बताया है, जबकि समर्थकों ने कहा कि “लोकतंत्र में पारदर्शिता और आलोचना, उसकी सबसे बड़ी ताकत है।”
लेकिन इस बहस को समझने के लिए जरूरी है कि हम राहुल गांधी के इन बयानों की तुलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उन बयानों से करें, जो उन्होंने विदेशी मंचों पर भारत की राजनीति या पूर्ववर्ती सरकारों पर दिए हैं।
राहुल गांधी के हालिया वक्तव्यों को अगर पिछले कुछ वर्षों की कड़ी में देखा जाए, तो यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने विदेश में भारत के लोकतंत्र की स्थिति पर चिंता जताई हो। उनके मुख्य तर्क रहे हैं न्यायपालिका, मीडिया और निर्वाचन आयोग जैसे संवैधानिक संस्थानों पर सत्तारूढ़ दल का प्रभाव बढ़ गया है। असहमति रखने वालों को राष्ट्रविरोधी ठहराया जा रहा है, जिससे लोकतंत्र की आत्मा कमजोर हो रही है। आर्थिक शक्ति कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों तक सीमित हो गई है। राहुल गांधी ने अपनी बात को “भारतीय लोकतंत्र में सुधार की आवश्यकता” के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन विदेशी मंच पर बोलने के कारण इसे “देश की आलोचना” की तरह देखा गया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अनेक अवसरों पर विदेशी धरती से भारत की स्थिति पर अपनी राय दी है। उनके वक्तव्यों की दिशा और उद्देश्य अलग रहा है। नरेन्द्र मोदी ने अपने विदेश दौरों पर अक्सर भारत को "विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, निवेश का अवसर और प्रतिभा का केंद्र" बताया है। उन्होंने “गुड गवर्नेंस, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया” जैसे अभियानों का वैश्विक स्तर पर प्रचार किया है।
नरेन्द्र मोदी ने कई बार यह कहा है कि “पहले की सरकारों ने देश को भ्रष्टाचार और नीतिगत जड़ता में फंसा दिया था, अब भारत बदल रहा है।” उदाहरण के तौर पर, 2014 में सिडनी के ऑलफोन्स एरिना में उन्होंने कहा था कि “पहले लोग भारत को संदेह की दृष्टि से देखते थे, अब गर्व से देखते हैं।” 2016 में यूएई में भाषण के दौरान उन्होंने कहा था कि “भारत अब स्कैम इंडिया नहीं, स्किल इंडिया है।” इन बयानों को विपक्ष ने ‘विदेश में पूर्ववर्ती सरकारों की आलोचना’ बताया, जबकि भाजपा समर्थकों ने इसे ‘नए भारत की आत्मविश्वासपूर्ण प्रस्तुति’ कहा।
दोनों नेताओं के बयानों की दिशा और परिणाम भले अलग हों, लेकिन दोनों ही स्थितियां एक गहरे प्रश्न को जन्म देती हैं। क्या भारत की राजनीति को विदेशी मंचों पर ले जाना लोकतांत्रिक परंपरा के अनुरूप है?
राहुल गांधी का दृष्टिकोण कहता है कि लोकतंत्र का स्वास्थ्य सिर्फ राष्ट्रीय नहीं है, बल्कि वैश्विक चिंता का विषय होना चाहिए। उनके अनुसार, “अगर भारत का लोकतंत्र कमजोर होता है, तो दुनिया का लोकतांत्रिक संतुलन प्रभावित होता है।” परंतु विरोधियों के अनुसार, विदेशी धरती पर ऐसी बातें भारत की संस्थाओं पर अविश्वास का संकेत देती हैं।
नरेन्द्र मोदी का दृष्टिकोण है कि आमतौर पर भारत की उपलब्धियों की चर्चा करते हैं, लेकिन “पिछली सरकारों की विफलताओं” का उल्लेख कर अप्रत्यक्ष रूप से अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाते हैं। इसका प्रभाव यह होता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के “अतीत बनाम वर्तमान” का विरोधाभास उभरता है।
राजनीति में असहमति आवश्यक है, पर लोकतंत्र में एक मर्यादा भी होती है। विदेश नीति और राष्ट्रीय छवि से जुड़े मामलों में राजनीतिक दलों के बीच एक “राष्ट्रीय सहमति” (National Consensus) आवश्यक मानी जाती है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों में विपक्षी नेता आम तौर पर विदेशों में अपने देश की आलोचना करने से बचते हैं। वे आलोचना संसद या घरेलू मंचों पर करते हैं।
भारत में भी पंडित नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक यह परंपरा रही कि विदेश में “भारत की छवि” को सर्वोपरि रखा जाए। परंतु 21वीं सदी की “वैश्विक मीडिया राजनीति” में जब सोशल मीडिया के माध्यम से हर बयान सीमाओं को लांघ जाता है, तब यह विभाजन और अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगा है।
प्रश्न यह है कि क्या इन बयानों से आम भारतीय नागरिक पर कोई असर पड़ता है? देखा जाए तो प्रत्यक्ष रूप से नहीं पड़ता है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से अवश्य पड़ता है। ऐसे बयान अंतरराष्ट्रीय निवेशकों, वैश्विक मीडिया और कूटनीतिक संबंधों पर प्रभाव डाल सकता है। एक ओर, अगर राहुल गांधी लोकतंत्र के क्षरण की बात करते हैं, तो विदेशी विश्लेषक भारत की संस्थाओं को संदिग्ध दृष्टि से देख सकता है। दूसरी ओर, अगर नरेन्द्र मोदी “पहले की सरकारों की अयोग्यता” पर जोर देते हैं, तो यह देश की नीतिगत निरंतरता पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है।
भारतीय नेताओं के विदेशी भाषणों का इतिहास लंबा है। पंडित नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्वतंत्र नीति का उद्घोष किया था कि “हम न तो पश्चिम के हैं, न पूर्व के, हम स्वतंत्र हैं।” अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में भाषण देकर भारत की गरिमा को बढ़ाया था। मनमोहन सिंह ने विश्व मंचों पर भारत की आर्थिक प्रगति को विश्वसनीयता दी थी। इन सब बयानों में एक समानता थी, वह भारत की स्थिति का विश्लेषण करते थे, लेकिन कभी भारत की लोकतांत्रिक नींव या संस्थाओं को विदेशी आलोचना के लिए प्रस्तुत नहीं करते थे। यहीं पर वर्तमान परिदृश्य में फर्क महसूस होता है।
आज जब मीडिया का बड़ा हिस्सा राजनीतिक रूप से विभाजित दिखता है, तब विदेशी मंचों पर दिए गए बयान तुरंत “वायरल विमर्श” का रूप ले लेता है। राहुल गांधी के बयानों को “भारत की छवि धूमिल करने” वाला बताया गया क्योंकि यह बयान “संस्थागत आलोचना” का है, जबकि नरेन्द्र मोदी के बयानों को “भारत की शान बढ़ाने” वाला बताया गया है क्योंकि यह बयान “राष्ट्रीय गौरव” का है।
भारत का संविधान हर नागरिक को चाहे वह प्रधानमंत्री हो या विपक्ष का नेता, को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। परंतु इस स्वतंत्रता के साथ एक “संवैधानिक जिम्मेदारी” भी जुड़ी है कि देश की एकता, अखंडता और संस्थाओं पर विश्वास बनाए रखा जाए। अगर विपक्ष यह कहता है कि लोकतंत्र खतरे में है, तो उसे अपने तर्कों को देश के भीतर लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से मजबूत करना चाहिए, न कि विदेशों में।
विदेशी मंचों पर बयान देना अपने आप में गलत नहीं है, अगर वह राष्ट्रहित में हो, भारत की साख बढ़ाने वाला हो। परंतु जब ऐसे वक्तव्य आंतरिक राजनीतिक मतभेदों को वैश्विक मुद्दा बना देता हैं, तब लोकतंत्र की मर्यादा प्रभावित होती है। राहुल गांधी का लोकतंत्र पर दिया गया बयान भारतीय राजनीतिक विमर्श में आवश्यक आत्ममंथन की मांग करता है और नरेन्द्र मोदी के विदेशी मंचों पर दिए गए भाषण भारत की आत्मविश्वासपूर्ण कूटनीति को प्रदर्शित करता है।
