वक्त का भी एक अजीब स्वभाव होता है। यह कभी किसी के पक्ष में चलता है तो कभी उसी के खिलाफ इतिहास लिख देता है। राजनीति के लंबे गलियारों में जब कोई नेता सत्ता की ऊँचाइयों पर होता है, तब उसे लगता है कि वह अजेय है, लेकिन समय जब पलटता है, तो वही ताक़तवर व्यक्ति न्यायालय के कटघरे में खड़ा नज़र आता है। यही दृश्य लालू प्रसाद और उनके परिवार के जीवन में उपस्थित है। वह लालू प्रसाद, जिन्होंने कभी बिहार की राजनीति में “आम आदमी के मसीहा” के रूप में अपनी पहचान बनाई, दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट में अपने परिवार सहित एक ऐसे मामले में खड़े हैं, जो न केवल कानूनी दृष्टि से गंभीर है, बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी गहरे निहितार्थ रखता है। यह कहानी सिर्फ एक घोटाले की नहीं है, बल्कि उस तंत्र की भी है जिसमें सत्ता, संपत्ति और स्वार्थ का गठजोड़ वर्षों से हमारे लोकतंत्र के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगाता रहा है।
12 अप्रैल 2017 को बिहार की राजनीति में यह तारीख किसी इतिहास के अध्याय की तरह दर्ज है। उस दिन बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने मीडिया के सामने दस्तावेजों का एक मोटा बस्ता खोला था। उस बस्ते में क्या था? दरअसल, यह वही दस्तावेज था, जो IRCTC होटल टेंडर घोटाले से जुड़ा हुआ था और जिनसे कथित रूप से यह साबित किया गया कि रेलवे के दो प्रमुख होटलों के रखरखाव का ठेका गलत तरीके से लालू परिवार से जुड़ी कंपनी को दिलाया गया था।
सुशील मोदी ने उस दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि “लालू यादव ने रेलवे के टेंडर प्रोसेस में सीधा हस्तक्षेप किया। होटल का अनुबंध एक ऐसी कंपनी को दिलवाया गया जिसके शेयर बाद में लालू परिवार के नाम पर ट्रांसफर कर दिए गए।” उस समय बहुतों ने इसे राजनीति की रणनीति समझा, लेकिन यही बिंदु बाद में सीबीआई जांच और कोर्ट केस का आधार बना।
यह मामला वर्ष 2004-2009 के बीच का है, जब लालू प्रसाद यादव भारत सरकार में रेलमंत्री थे। भारतीय रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन (IRCTC) ने दो रेलवे होटलों, रांची स्थित BNR Hotel और पुरी स्थित BNR Hotel, को निजी कंपनियों को लीज पर देने का निर्णय लिया। इस प्रक्रिया में सुजाता होटल्स प्रा. लि., जिसके मालिक विजय और विनय कोचर हैं, को यह ठेका मिला। आरोप है कि इस अनुबंध के बदले में कोचर बंधुओं ने ‘डिलाइट मार्केटिंग कंपनी’ के शेयर राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव के नाम पर ट्रांसफर कर दिए।
सीबीआई के अनुसार यह पूरी प्रक्रिया एक “quid pro quo” यानी लेन-देन के बदले में एहसान थी। रेल मंत्री के रूप में लालू प्रसाद ने टेंडर प्रोसेस में बदलाव कराया ताकि सुजाता होटल्स को लाभ मिल सके। इसके बदले कोचर बंधुओं ने तीन एकड़ जमीन पटना में लालू परिवार की कंपनी को बाजार दर से बहुत कम मूल्य पर दी। सीबीआई का यह आरोप है कि “लालू प्रसाद ने सरकारी पद का दुरुपयोग किया, निजी कंपनी को फायदा पहुँचाया और बदले में परिवार के नाम पर जमीन ली।”
2025 की अक्टूबर में, जब दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट ने लालू यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव के खिलाफ आरोप तय किए, तब यह मामला एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया। सीबीआई ने अदालत को बताया कि सबूतों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि टेंडर प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं रही, नियमों का उल्लंघन कर चयन किया गया और यह सब लालू प्रसाद के निर्देश पर हुआ। कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए कहा कि “अभियोजन के पास पर्याप्त सबूत हैं कि आरोपीगण ने अपने पद का दुरुपयोग कर अनुचित लाभ पहुंचाया। इस प्रकार लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव के खिलाफ धारा 120B (आपराधिक साजिश), धारा 420 (धोखाधड़ी) और धारा 13(1)(d) (भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम) के तहत आरोप तय हुआ।
लालू यादव की राजनीतिक यात्रा जितनी संघर्षशील रही, उतनी ही विवादों से भी घिरी रही। “गरीबों का मसीहा” कहे जाने वाले लालू प्रसाद आज उन गरीबों के बीच नहीं हैं, बल्कि अदालत के कटघरे में खड़े हैं। कई लोगों का मानना है कि यह मुकदमा राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित है, जबकि दूसरी ओर एक वर्ग का मानना है कि “कानून के सामने सभी बराबर हैं”, चाहे वह आम नागरिक हो या लालू प्रसाद जैसा कद्दावर नेता।
इस विवाद ने एक बार फिर उस प्रश्न को जन्म दिया है कि क्या हमारे देश में राजनीति और न्याय अलग-अलग चल सकता है? या हर न्यायिक कार्रवाई का राजनीतिक अर्थ निकलता रहेगा?
लालू प्रसाद परिवार के लिए यह मामला सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्तित्व का सवाल बन गया है। 2017 में महागठबंधन टूटने के बाद से ही लालू प्रसाद परिवार पर भ्रष्टाचार के मामलों की लंबी श्रृंखला चली आ रही है, चारा घोटाला, भूमि के बदले नौकरी मामला, और अब IRCTC होटल लीज़ केस। इन सबके बीच तेजस्वी यादव को राजनीतिक विरासत संभालनी है। अगर इस केस में फैसला उनके खिलाफ आता है, तो इसका सीधा असर 2025 बिहार विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा। विपक्ष इसे “नैतिक संकट” के रूप में प्रस्तुत करेगा, वहीं समर्थक इसे “राजनीतिक साजिश” बताएंगे।
भारतीय राजनीति में अक्सर दो अदालतें चलती हैं, वास्तविक अदालत, जो साक्ष्य और कानून के आधार पर फैसला सुनाती है। दूसरा जनता की अदालत, जो भावनाओं और धारणाओं के आधार पर निर्णय देती है। लालू प्रसाद का मामला इन दोनों अदालतों में लड़ा जा रहा है। जनता के बीच अब भी उनका प्रभाव और जनाधार मौजूद है, खासकर ग्रामीण और पिछड़े वर्गों में। परंतु जब कोर्ट का फैसला “दोषी” ठहराता है, तो वही जनता भी धीरे-धीरे “नैतिकता” के प्रश्न उठाने लगती है।
सुशील कुमार मोदी को इस प्रकरण का “मुख्य उद्घाटक” कहा जा सकता है। उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस ने न सिर्फ बिहार की राजनीति में हलचल मचाई थी, बल्कि केंद्र की एजेंसियों को भी सक्रिय किया था। कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सुशील मोदी और भाजपा ने इस प्रकरण को “लालू परिवार की नैतिकता पर चोट” के रूप में इस्तेमाल किया। परंतु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि अगर आरोपों में सच्चाई नहीं होती, तो जांच एजेंसियों के पास इतने वर्षों तक मामला टिकता नहीं। इसलिए यह कहना कि “सब राजनीति है”, पूरी तरह उचित नहीं होगा।
भारत की राजनीति में भ्रष्टाचार किसी एक दल या व्यक्ति का विषय नहीं है। आज लालू प्रसाद पर आरोप हैं, कल किसी और पर। यह सिलसिला स्वतंत्र भारत के शुरुआती वर्षों से चला आ रहा है, चाहे बोफोर्स हो, 2G हो या कोयला घोटाला। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ऐसे मामलों से देश में राजनीतिक शुचिता की नींव मजबूत होती है या फिर जनता के विश्वास में और दरारें पड़ती हैं? क्योंकि हर बार जब कोई नेता अदालत में कटघरे में खड़ा होता है, तो जनता के मन में यह भावना जन्म लेती है कि “सत्ता का मतलब है अवसर का दुरुपयोग।”
लालू यादव का व्यक्तित्व विरोधाभासों से भरा है। जहाँ एक ओर वे सामाजिक न्याय के प्रतीक माने जाते हैं, वहीं दूसरी ओर वे भ्रष्टाचार के प्रतीक बनते जा रहे हैं। उनका राजनीतिक सफर 1970 के दशक में जयप्रकाश आंदोलन से शुरू हुआ था। उन्होंने 1990 में मुख्यमंत्री बनते ही बिहार की राजनीति को एक नया सामाजिक आयाम दिया, पिछड़ों और दलितों को सत्ता की साझेदारी दी। लेकिन समय के साथ सत्ता की राजनीति ने उनके चारों ओर “परिवारवाद और भ्रष्टाचार” की परतें चढ़ा दीं। आज उनकी छवि दो छोरों पर झूलती है एक ओर “जननायक लालू”, दूसरी ओर “दोषी लालू”।
अब जब कोर्ट ने आरोप तय कर दिया हैं, तो ट्रायल शुरू होगा। अगर अदालत में आरोप सिद्ध होता हैं, तो लालू प्रसाद को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत सजा हो सकती है। राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव भी इस प्रक्रिया से बाहर नहीं हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह मामला अगर दोष सिद्ध करता है, तो राजद की साख पर गहरा असर पड़ेगा। लेकिन अगर आरोपों से मुक्ति मिलती है, तो यह राजद के लिए “राजनीतिक पुनर्जन्म” साबित हो सकता है।
हर केस में अंततः जनता यही चाहती है कि “सत्य की जीत” हो। लेकिन हमारे देश में यह राह बहुत लंबी और धुंधली होती है। अक्सर न्यायिक प्रक्रिया में वर्षों लग जाते हैं, जिससे जनता का विश्वास कमजोर होता है। लालू प्रसाद के मामले में भी यही प्रश्न उठ रहा है कि क्या न्याय मिलेगा? या फिर यह भी राजनीति की फाइलों में एक और लंबा अध्याय बनकर रह जाएगा?
बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद एक प्रतीक हैं। उनका नाम न केवल एक व्यक्ति, बल्कि एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। यदि इस केस में सजा होती है, तो यह विपक्षी एकता पर भी प्रभाव डाल सकता है। 2025 का चुनाव नजदीक है। इस केस का फैसला चाहे जब आए, पर इसकी राजनीतिक गूंज हर मोड़ पर सुनाई देगी। राजद के समर्थक इसे “सत्ता का षड्यंत्र” कहेंगे, जबकि भाजपा इसे “भ्रष्टाचार पर न्याय की जीत” बताएगी।
यह मामला एक महत्वपूर्ण संदेश भी देता है, चाहे कोई कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो, कानून के सामने सभी समान हैं। लोकतंत्र में यही सबसे बड़ी ताकत है कि न्यायालय किसी के भी विरुद्ध साक्ष्यों के आधार पर फैसला सुना सकता है। भारत में लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब जनता यह महसूस करेगी कि न्याय व्यवस्था राजनीतिक प्रभाव से मुक्त है।
दिलचस्प बात यह है कि लालू प्रसाद ने इस पूरे मामले पर कोई आक्रामक बयान नहीं दिया है। उनकी चुप्पी बहुत कुछ कहती है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि वे अब “सियासी शोर” नहीं, बल्कि “कानूनी रणनीति” पर ध्यान दे रहे हैं। वहीं जनता के बीच यह धारणा है कि लालू प्रसाद अब पहले जैसे नहीं रहे। उनकी छवि अब जननायक से आरोपी में बदल चुका है। लेकिन बिहार का समाज भावनात्मक है, और यह भावनाएं अक्सर तर्क पर भारी पड़ जाता है।
वक्त की चाल को कोई नहीं रोक सकता है। जिस लालू प्रसाद ने कभी कहा था, कि “जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू,” आज वही लालू अदालत के दरवाजे पर हैं।
