धरती का जीवित नीलम है - “निऑन ब्लू मशरूम”

Jitendra Kumar Sinha
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प्रकृति ने अपनी गोद में असंख्य रहस्य और अद्भुत चमत्कार समेटे हैं। इन्हीं में से एक है “निऑन ब्लू मशरूम”। एक ऐसा जीव जो रात के अंधेरे में अपनी खुद की नीली रोशनी से चमक उठता है। इसका वैज्ञानिक नाम एंटोलोमा होख्सटेटेरी (Entoloma hochstetteri) है। यह मशरूम मुख्य रूप से न्यूजीलैंड और भारत के पश्चिमी घाटों के वर्षा वनों में पाया जाता है। अपनी अनोखी आभा और चमकदार नीले रंग के कारण यह पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों और प्रकृति-प्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

निऑन ब्लू मशरूम की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह बायोल्यूमिनसेंट यानि स्वयं प्रकाश उत्सर्जित करने वाला जीव है। इसकी टोपी और तने में पाया जाने वाला लुसिफेरिन (Luciferin) नामक प्राकृतिक तत्व जब ऑक्सीजन के संपर्क में आता है, तो हल्की नीली रोशनी पैदा होती है। यह प्रक्रिया ठीक उसी तरह होती है जैसे जुगनू (Fireflies) अंधेरे में चमकते हैं। यह नीली रोशनी जंगल की नमी भरी रातों में किसी जादुई दृश्य की तरह दिखती है।

वैज्ञानिक दृष्टि से “निऑन ब्लू मशरूम” बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। यह केवल स्वच्छ, नम और संतुलित पर्यावरण में ही उगता है। इसलिए वैज्ञानिक इसे ‘इकोलॉजिकल हेल्थ इंडिकेटर’ यानि पर्यावरणीय स्वास्थ्य का सूचक कहते हैं। यदि किसी क्षेत्र में यह मशरूम पाया जाए, तो यह संकेत होता है कि वहाँ की मिट्टी, हवा और पानी प्रदूषण से मुक्त हैं। इस कारण यह मशरूम जैव विविधता के संरक्षण में अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देता है।

न्यूजीलैंड के मूल निवासी माओरी जनजाति इस मशरूम को प्रकृति का वरदान मानते हैं। वहाँ के लोककथाओं में यह “धरती का जीवित नीलम (Living Sapphire of the Earth)” कहलाता है। इसके चमकदार रंग और जादुई आभा को कई कलाकारों और फोटोग्राफरों ने अपने चित्रों और कैमरों में अमर कर दिया है। यहां तक कि न्यूजीलैंड की पुरानी मुद्रा के नोट पर भी इस मशरूम की छवि अंकित की गई थी, जो इसके सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है।

वैज्ञानिक इस मशरूम का अध्ययन न केवल इसकी सुंदरता के लिए, बल्कि इसके बायोल्यूमिनसेंस तंत्र को समझने के लिए भी कर रहे हैं। भविष्य में इस तंत्र का उपयोग चिकित्सा, पर्यावरण निगरानी और जैव-प्रकाश तकनीक में किया जा सकता है। हालांकि, बढ़ते जंगल विनाश और जलवायु परिवर्तन के कारण इसकी प्रजाति खतरे में है। इसलिए वैज्ञानिक और पर्यावरणविद इसके संरक्षण की दिशा में प्रयासरत हैं।



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