बिहार की राजनीति इस वक्त एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ विरासत और वास्तविकता के बीच गहरी खाई दिखाई दे रही है। नकल से अर्जित लोकप्रियता और वसीहत से मिले राजनीतिक अधिकार, दोनों ही तब तक टिकाऊ नहीं हो सकता है जब तक नेतृत्व अपने वाजिब वजूद को सिद्ध न कर दे। तेजस्वी यादव इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं, एक ऐसा चेहरा जो अपने पिता लालू प्रसाद की राजनीतिक छवि का प्रतिबिंब बनना चाहता है, लेकिन समय का आईना उन्हें बार-बार यह याद दिला रहा है कि “नकल कभी मौलिकता का विकल्प नहीं बन सकती है।”
2025 के विधानसभा चुनाव की आहट ने बिहार में राजनीतिक समीकरणों को गर्मा दिया है। इंडी गठबंधन, जो कभी सत्ता परिवर्तन का सपना लेकर चला था, अब धीरे-धीरे अपनी ही दिशा खो चुका है। और इस पूरी प्रक्रिया में तेजस्वी यादव की भूमिका वह रही है, जहाँ महत्वाकांक्षा ने रणनीति को निगल लिया है।
तेजस्वी यादव, लालू प्रसाद की उस विरासत के उत्तराधिकारी हैं जो बिहार की राजनीति में गरीब, पिछड़े और वंचित वर्ग की आवाज बनकर उभरी थी। लालू प्रसाद ने अपने वक्त में “सत्ता का विकेंद्रीकरण” किया, सामाजिक न्याय का नारा दिया और राजनीति को जातीय समीकरणों से जोड़ दिया। लेकिन तेजस्वी यादव के सामने चुनौती यह रही है कि उन्होंने उस विरासत को दोहराने की कोशिश तो की, पर समय बदल चुका था।
आज का मतदाता डिजिटल, शिक्षित और सवाल पूछने वाला है। लालू प्रसाद के दौर की राजनीति भावनाओं पर टिकी थी, जबकि आज की राजनीति परिणाम और प्रदर्शन मांगती है। तेजस्वी यादव इस फर्क को समझ नहीं पाए, उन्होंने अपने पिता लालू प्रसाद की भाषा अपनाई, पर जनता के नए मिजाज को समझने में चूक गए। उनकी राजनीति लालू प्रसाद की नकल और वसीहत की छाया में सिमटकर रह गई। वही नारों का दोहराव, वही जातीय समीकरण, वही ‘हम बनाम वे’ की सोच, लेकिन अब जनता उस दौर से आगे निकल चुकी है।
जब विपक्षी दलों ने 2023-24 में “इंडी गठबंधन” बनाया, तो उसका उद्देश्य था भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा तैयार करना। राहुल गांधी, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, तेजस्वी यादव सब एक मंच पर आए। लेकिन बिहार में इस गठबंधन का नेतृत्व तेजस्वी यादव के हाथ में गया, और यहीं से समस्याएँ शुरू हो गईं। तेजस्वी यादव को लगा कि यह उनके लिए अवसर है कि वे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी छवि बना सकें। लेकिन गठबंधन में उनका रवैया सहयोगी के बजाय “उत्तराधिकारी” का रहा। वे खुद को “भावी मुख्यमंत्री” के रूप में प्रस्तुत करने लगे, जबकि गठबंधन में अन्य दल अपनी भूमिका और सम्मान चाहता था। धीरे-धीरे संवाद खत्म हुआ, रणनीति बिखरने लगी, और अंततः “इंडी गठबंधन” बिहार में छिनभिन्न हो गया। कांग्रेस का स्थानीय संगठन हाशिए पर चला गया, वामदलों का भरोसा टूटा, और नीतीश कुमार ने अपनी पारंपरिक “लचीलापन” दिखाते हुए दूरी बना ली।
राजनीति का यह दिलचस्प संयोग है कि राहुल गांधी और तेजस्वी यादव दोनों ही एक जैसी नियति साझा करते हैं। दोनों अपने पिता की विरासत के वारिस हैं, दोनों को विरासत में मिली पहचान, लेकिन जनता की कसौटी पर बार-बार फिसलते रहे। राहुल गांधी ने कांग्रेस को बचाने की लाख कोशिशें की, पर वे जमीनी राजनीति की नब्ज़ पकड़ नहीं पाए। तेजस्वी यादव भी उसी रास्ते पर बढ़ रहे हैं। दोनों को जनता “राजकुमार” की तरह देखती है, न कि “जननेता” की तरह। राजनीति में केवल वंश नहीं, बल्कि संघर्ष का प्रमाण चाहिए। राहुल गांधी को यह एहसास हो गया है कि केवल भाषणों से चुनाव नहीं जीते जाते। लेकिन तेजस्वी अभी भी “लालू मॉडल” की नकल में उलझे हुए हैं। नतीजा जनता उन्हें गंभीर विकल्प नहीं मानती।
इंडी गठबंधन के बिखरने के बाद राहुल गांधी ने अब सीधे हस्तक्षेप का निर्णय लिया है। पार्टी सूत्रों के अनुसार, उन्होंने अपने सबसे भरोसेमंद रणनीतिकार और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को बिहार भेजने का निर्णय लिया है।
गहलोत को यह जिम्मेदारी इसलिए दी गई है कि वे कांग्रेस संगठन को दोबारा जीवित करें और गठबंधन की नई राह तलाशें। लेकिन सवाल यह है कि क्या अब बहुत देर हो चुकी है? तेजस्वी यादव और राहुल गांधी दोनों ने जिस तरह अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन खोई है, क्या उसे गहलोत जैसे अनुभवी नेता बचा सकते हैं? बिहार की राजनीति में यह पहला मौका नहीं है जब कांग्रेस ने पुनर्जीवन की कोशिश की हो। लेकिन इस बार चुनौती केवल भाजपा या एनडीए नहीं है। चुनौती है जनता के विश्वास को दोबारा अर्जित करना।
तेजस्वी यादव के पास अवसर था कि वे “नई पीढ़ी के नेता” के रूप में उभरते। उन्होंने बेरोजगारी, शिक्षा और पलायन जैसे मुद्दे उठाए भी। लेकिन इन मुद्दों को लेकर उन्होंने जो मंच बनाया, वह केवल भाषणों तक सीमित रह गया। वे युवाओं के नेता के रूप में सामने तो आए, पर जमीनी संगठन नहीं बना पाए। पार्टी के अंदर गुटबाजी, उम्मीदवारों की मनमानी और रणनीतिक असंतुलन ने उनकी छवि को कमजोर किया है। इंडी गठबंधन के दौरान उन्होंने कांग्रेस के साथ तालमेल को गंभीरता से नहीं लिया। वाम दलों के साथ विचार-विमर्श का अभाव रहा। नतीजा यह हुआ कि गठबंधन केवल कागजों पर रह गया, जमीनी स्तर पर उसका कोई असर नहीं दिखा।
2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने अप्रत्याशित प्रदर्शन किया था। उन्होंने 75 सीटें जीतकर यह साबित किया था कि वे बिहार की राजनीति में गंभीर दावेदार हैं। लेकिन उसके बाद से उनकी रफ़्तार धीमी होती चली गई। जनता को लगा था कि तेजस्वी विपक्ष में रहते हुए “वैकल्पिक सरकार” का मॉडल दिखाएंगे। लेकिन उन्होंने इस भूमिका को केवल ट्विटर तक सीमित कर दिया। जनता के मन में यह धारणा बनने लगी कि तेजस्वी यादव केवल “राजनीतिक वारिस” हैं, कोई दूरदर्शी नेता नहीं। जब गठबंधन टूटने लगा तो उन्होंने इसके लिए दूसरों को दोष देना शुरू कर दिया, जबकि वास्तविक कारण नेतृत्व की दिशा और दृष्टि की कमी थी।
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार हमेशा संतुलन साधने वाले नेता माने गए हैं। वे जानते हैं कि कब कौन-सा कदम उठाना है। इंडी गठबंधन के टूटने के बाद उन्होंने जो दूरी बनाई, वह दरअसल उनकी रणनीति का हिस्सा था।
तेजस्वी यादव के साथ मतभेदों को उन्होंने सार्वजनिक नहीं किया, पर अंदरखाने वे गठबंधन की दिशा से असंतुष्ट थे। आज वे फिर से भाजपा के साथ सधे हुए समीकरण में हैं, और भाजपा इस विभाजन का पूरा लाभ उठा रही है। भाजपा के लिए सबसे बड़ा तोहफा यही है कि विपक्ष खुद ही अपने मतभेदों से कमजोर हो गया है।
यह राजनीति का बड़ा व्यंग्य है कि जिन गलतियों से राहुल गांधी बार-बार सीखने की बात करते हैं, वही गलतियाँ तेजस्वी यादव आज दोहरा रहे हैं। राहुल गांधी को जब कांग्रेस में संगठन की कमजोरी का एहसास हुआ, तब तक पार्टी राज्यों में सिमट चुकी थी। तेजस्वी यादव भी अब उसी मोड़ पर हैं जहाँ जनता के बीच भरोसा घट रहा है, और पार्टी में आंतरिक असंतोष बढ़ रहा है। दोनों ही नेता अपनी “राजकुमार” छवि से बाहर नहीं निकल पाए। राहुल गांधी का संघर्ष वैचारिक है, जबकि तेजस्वी यादव का संघर्ष आत्मिक उन्हें अपने भीतर वह आत्मविश्वास नहीं दिखता जो जनता को प्रेरित कर सके।
बिहार की जनता राजनीति की सबसे पुरानी प्रयोगशाला है। यहाँ के मतदाता भावनात्मक भी हैं और विवेकशील भी। वे नेताओं को परिवार की तरह अपनाते हैं, पर जब उम्मीद टूटती है तो दंड देने में भी देर नहीं करते हैं। 2025 के चुनाव में बिहार की जनता का मूड यह बता रहा है कि अब वे केवल नारों या वंश के नाम पर वोट नहीं देंगे। वे प्रदर्शन, दृष्टि और ईमानदार नेतृत्व चाहते हैं। तेजस्वी यादव ने यदि अपने राजनीतिक सफर को बचाना चाहते है, तो उन्हें यह समझना होगा कि पिता लालू प्रसाद की छाया में जीना अब राजनीतिक आत्महत्या के समान है।
राहुल गांधी को यह समझ आ गया है कि बिहार जैसे राज्य में कांग्रेस की जड़ें तभी मजबूत होगी जब स्थानीय चेहरों को बढ़ाया जाए। गहलोत की नियुक्ति इसी दिशा में एक रणनीतिक कदम है। गहलोत न केवल संगठनात्मक राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं, बल्कि वे यह भी जानते हैं कि कैसे गठबंधन में नेतृत्व का संतुलन बनाए रखा जाए। यदि कांग्रेस बिहार में अपनी खोई जमीन वापस पाना चाहती है, तो उसे तेजस्वी यादव के साथ रिश्ते को “समान साझेदारी” के रूप में परिभाषित करना होगा, न कि “वसीहत आधारित”।
भारत में राजनीतिक उत्तराधिकार की कहानियाँ कई हैं, नेहरू-गांधी परिवार से लेकर करुणानिधि और मुलायम सिंह यादव तक। लेकिन हर जगह एक समान सत्य दिखाई देता है, विरासत मिल सकती है, पर जनाधार कमाना पड़ता है। तेजस्वी यादव और राहुल गांधी दोनों को विरासत मिली है, लेकिन जनाधार के लिए जो संघर्ष चाहिए था, वह उन्होंने नहीं किया। दोनों के बीच एक समानता यह भी है कि दोनों “सहानुभूति” पर राजनीति करते हैं, “संघर्ष” पर नहीं।
2025 का चुनाव बिहार के लिए निर्णायक होगा। यह केवल सत्ता परिवर्तन का चुनाव नहीं है, बल्कि राजनीतिक संस्कृति के परिवर्तन का भी समय है। यदि तेजस्वी यादव वास्तव में नेतृत्व का दावा करना चाहते हैं, तो उन्हें अपने भीतर से “लालू की छाया” को हटाकर “तेजस्वी की पहचान” बनानी होगी। उन्हें यह दिखाना होगा कि वे केवल वंश के उत्तराधिकारी नहीं है, बल्कि विचार के वाहक हैं।
