बिहार में विधानसभा चुनाव की आधिकारिक घोषणा भले ही अभी बाकी हो, लेकिन राजनीतिक गलियारों से लेकर गाँव-गाँव की चौपाल तक चुनावी चर्चाएँ चरम पर पहुँच गया है। सियासी बयानबाजी तेज हो चुका है, दलों के बीच गठजोड़ और तकरार का सिलसिला भी जारी है। जनसभाओं, रैलियों और यात्राओं के माध्यम से मतदाताओं को साधने की कवायद जारी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि माहौल साफ संकेत दे रहा है कि बिहार एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़ा है।
इस बार की लड़ाई पारंपरिक एनडीए (NDA) और इंडिया गठबंधन (INDI) के बीच है। वहीं, प्रशांत किशोर (PK) की पार्टी जनसुराज अपनी अलग राजनीतिक जमीन तलाशते हुए “वोट कटवा” की छवि में उभरते दिख रहा है। प्रश्न यह है कि बिहार की जनता इस चुनाव में किसे चुनती है? कौन होगा सत्ता का असली हकदार? और किन मुद्दों पर जनता अपना वोट डालेगी?
बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरण, नेतृत्व की विश्वसनीयता और गठबंधन की मजबूती पर टिकी रही है। 1960-70 के दशक में कांग्रेस का दबदबा रहा। 1970-80 के दशक में समाजवादी धारा, कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद जैसे नेताओं के उदय ने राजनीति की दिशा बदल दी। 1990-2005 लालू-राबड़ी शासनकाल रहा, जिसे ‘जंगलराज’ और ‘पिछड़े वर्ग की राजनीति’ दोनों दृष्टियों से याद किया जाता है। 2005 के बाद नीतीश कुमार ने विकास और सुशासन के नारे पर राजनीति को नया आयाम दिया।
आज की स्थिति यह है कि बिहार की राजनीति में तीन ध्रुव स्पष्ट दिखाई दे रहा है। एनडीए (भाजपा+जदयू), इंडिया गठबंधन (राजद+कांग्रेस+अन्य सहयोगी दल) और तीसरा विकल्प जनसुराज (प्रशांत किशोर एव छोटे दल)।
एनडीए की राजनीति बिहार में मुख्य रूप से भाजपा और जदयू पर आधारित है। हालाँकि लोजपा (रामविलास) और अन्य सहयोगी दल भी हैं, लेकिन असली ताकत इन्हीं दोनों के पास है। भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत पार्टी है और बिहार में भी उसका कैडर वोट है। लेकिन इस बार पार्टी के सामने कुछ चुनौतियाँ हैं, स्थानीय नेताओं के बीच आपसी खींचतान। जमीनी कार्यकर्ताओं का असंतोष। केंद्रीय नेतृत्व पर अत्यधिक निर्भरता। नीतीश कुमार के साथ रिश्तों में आई खटास। भाजपा का परंपरागत वोट बैंक शहरी क्षेत्रों और उच्च जातियों में मजबूत है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में उसे जदयू के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ता है।
नीतीश कुमार भले ही उम्रदराज़ हो चुके हैं, लेकिन उनकी छवि आज भी सुशासन बाबू की बनी हुई है। गाँव-गाँव में सरकारी योजनाओं (सात निश्चय, महिला सशक्तिकरण, सड़क-पानी-बिजली) की छाप है। यादव-मुस्लिम वोट बैंक पर सीधा दावा भले ही न हो, लेकिन महादलित और पिछड़ों में उनकी पकड़ मज़बूत है। भाजपा के मुकाबले वे जमीनी स्तर पर अधिक सक्रिय हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि अगर आज चुनाव हो जाए तो जदयू सबसे बड़ा लाभार्थी बनकर उभरेगा।
चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोजपा (रामविलास) अभी भी अपने पिता की विरासत को भुनाने में लगा हुआ है। वह भाजपा के सहयोग से कुछ सीटें जीत सकता है, लेकिन निर्णायक ताकत नहीं है।
इंडिया गठबंधन की सबसे बड़ी ताकत राजद है। लालू प्रसाद के करिश्मा और तेजस्वी यादव के नेतृत्व का मेल। यादव-मुस्लिम समीकरण अभी भी मजबूत है। ग्रामीण इलाकों में कैडर वोट पूरी तरह एकजुट है। भ्रष्टाचार और जंगलराज की छवि अब धीरे-धीरे धुँधली पड़ रही है, खासकर नई पीढ़ी में। इस चुनाव में राजद के वोट में बिखराव लगभग शून्य है। यही वजह है कि राजद अपने परंपरागत वोट बैंक से आगे बढ़कर गैर-यादव पिछड़ों को भी जोड़ने की कोशिश कर रहा है।
कांग्रेस बिहार में कमजोर है, लेकिन राजद के सहारे वह कुछ सीटें जीत लेती है। कांग्रेस की सक्रियता का सबसे बड़ा फायदा राजद को मिल रहा है। कांग्रेस अपने संगठन को जमीन पर उतारने की कोशिश कर रहा है। लेकिन चुनावी समीकरणों में उसकी अहमियत राजद को मजबूत करने तक ही सीमित दिख रहा है।
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी दल और कुछ छोटे-छोटे दल इंडिया गठबंधन में शामिल हैं। इनकी जमीनी पकड़ भले ही सीमित हो, लेकिन विपक्षी एकजुटता का संदेश देने में अहम हैं।
प्रशांत किशोर लंबे समय तक चुनावी रणनीतिकार के रूप में सक्रिय रहे हैं। लेकिन जब उन्होंने राजनीति में उतरने का फैसला किया तो जनता की अपेक्षाएँ बड़ी थी। उनकी जनसुराज यात्रा गाँव-गाँव तक पहुँची। युवा वर्ग में उनकी कुछ अपील है। लेकिन फिलहाल उनकी पार्टी को वोट कटवा की श्रेणी में ही देखा जा रहा है। जनसुराज (PK) की चुनौती है संगठन की कमी। विश्वसनीय चेहरा नहीं बन पाना। जमीनी कार्यकर्ताओं का अभाव। यही कारण है कि उनकी मौजूदगी फिलहाल एनडीए और इंडिया गठबंधन के समीकरण बिगाड़ने तक ही सीमित दिखता है।
एनडीए की ओर से चलाई जा रही वोटर अधिकार यात्रा को लेकर काफी चर्चा है। लेकिन विश्लेषण से पता चलता है कि इसका असर बहुत सीमित है। यात्रा उन्हीं इलाकों से गुजर रही है जहाँ पहले से एनडीए की पकड़ मज़बूत है। नए मतदाताओं को जोड़ने या विपक्ष के वोट बैंक में सेंध लगाने की संभावना नगण्य है। यह यात्रा ज्यादा प्रचार अभियान बनकर रह गई है, वास्तविकता में वोट पर असर नहीं दिख रहा है।
बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों के बिना अधूरी है। राजद की यादव और मुस्लिम दीवार मजबूत है। वहीं जदयू का कुर्मी, अति पिछड़ा और महादलित आधार मजबूत है। भाजपा का परंपरागत वोट बैंक ऊँची जातियाँ (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ) है। लोजपा का पासवान समाज ही आधार है । यही कारण है कि हर पार्टी चुनाव प्रचार में विकास के साथ-साथ जातीय प्रतिनिधित्व की राजनीति को भी साधने में जुटी है।
भले ही दल गठबंधन और रणनीति बनाते रहें, लेकिन जनता का मूड मुद्दों पर भी निर्भर करेगा। रोजगार और बेरोजगारी के लिए बिहार से सबसे अधिक पलायन हुआ है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी व्यवस्था की बदहाल स्थिति है। कानून व्यवस्था के लिए अपराध दर और महिला सुरक्षा का प्रश्न है। मंहगाई और गरीबी आम आदमी की सबसे बड़ी समस्या है। इन मुद्दों पर कौन-सी पार्टी जनता को विश्वास दिला पाएगी, वही निर्णायक भूमिका निभाएगी।
अगर आज बिहार में चुनाव हो तो परिदृश्य कुछ ऐसा दिखता है कि एनडीए को 128 सीटें, इंडिया गठबंधन को 109 सीटें और अन्य को 6 सीटें मिल सकता है। लेकिन यह तस्वीर पूरी तरह स्थिर नहीं है। 113 सीटों पर बेहद कड़ी टक्कर होगी जहां जीत-हार का अंतर 3% से भी कम हो सकता है। यही वह जगह है जहाँ जनसुराज (PK या छोटे दलों) की मौजूदगी नतीजा पलट सकता है।
बिहार का चुनाव इस बार सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं है, बल्कि राजनीतिक ध्रुवीकरण और नेतृत्व की विश्वसनीयता की भी परीक्षा है। जदयू सबसे बड़े लाभार्थी के रूप में दिख रहा है। भाजपा अपने कैडर वोट में दरार से जूझ रही है। राजद पूरी तरह एकजुट होकर इंडिया गठबंधन का नेतृत्व कर रहा है। कांग्रेस अपनी जमीन तलाशने के चक्कर में राजद को और मजबूत कर रही है। प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी मौजूदगी नतीजों में उलटफेर कर सकता है, लेकिन अभी वह निर्णायक नहीं दिखता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बिहार का चुनावी रण बेहद दिलचस्प होने जा रहा है। यहाँ सिर्फ सीटों का गणित ही नहीं, बल्कि जातीय समीकरण, नेतृत्व की विश्वसनीयता और मुद्दों पर जनता का भरोसा भी तय करेगा कि 2025 में बिहार में किसकी सरकार बनेगी।
