भारत की राजनीति एक विचित्र रंगमंच है। यहाँ हर पाँच साल में एक नया नाटक मंचित होता है। पहले के दौर में चुनाव सिर्फ विचारधारा, संघर्ष और नेताओं के व्यक्तिगत त्याग की कहानियों पर आधारित होता था। मतदाता अपनी सारी व्यथा, शिकायतें और दुःख-दर्द को भुलाकर उस कला से रिझ जाते थे, जिसे कोई नेता मंच से प्रस्तुत करता था। लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल अलग है। अब गाँव के खलिहान से लेकर शहर के किचन तक, सब जगह मोबाइल और सोशल मीडिया की रीलें छा चुकी हैं। नतीजा यह हुआ है कि जो कला कभी दिल जीत लेती थी, वह अब डिजिटल भीड़ में दब चुकी है। फिर भी सियासत अपनी पुरानी चालें छोड़ने को तैयार नहीं है। आस्था पर सियासत का अतिक्रमण कोई नया खेल नहीं है। देवी-देवताओं से लेकर धार्मिक त्योहारों तक को राजनीतिक मंच पर इस्तेमाल करने की परंपरा दशकों से चलती आई है। उसी कड़ी में हाल ही में प्रियंका गांधी का बिहार में तीज मनाना चर्चा का विषय बना। सवाल उठता है कि क्या यह आस्था का सम्मान था या चुनावी रणनीति का हिस्सा?
भारत जैसे देश में आस्था की जड़ें बहुत गहरी हैं। यहाँ हर गली-मोहल्ले में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च मिलेंगे। लोग अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी को धार्मिक रीति-रिवाज़ों से जोड़कर जीते हैं। ऐसे में राजनीति ने हमेशा आस्था को अपने चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है।
आजादी के बाद से ही मंदिरों, मस्जिदों और धार्मिक आयोजनों का चुनावी मंचों पर इस्तेमाल होता रहा है। राम मंदिर आंदोलन से लेकर दुर्गा पूजा पंडालों में नेताओं की उपस्थिति, सब इस बात के गवाह हैं कि आस्था राजनीति का अहम आधार रही है।
महिलाओं की आस्था और त्योहारों से जुड़ाव को राजनीति ने अक्सर भुनाया है। करवा चौथ, तीज, छठ जैसे पर्वों में महिलाओं की बड़ी भागीदारी रहती है। इन मौकों पर राजनीतिक चेहरे जनता के बीच आसानी से पहुँच बनाते हैं। प्रियंका गांधी का बिहार में तीज करना इसी परंपरा का हिस्सा है।
पहले नेता मंच पर भाषण देकर या जनता से आमने-सामने मिलकर संवाद करते थे। लेकिन अब मोबाइल फोन ने पूरी राजनीति को बदल दिया है। आज चुनावी रैलियों से ज्यादा असरदार मानी जाती हैं सोशल मीडिया की रीलें। नेता मंच से बोलते हैं लेकिन जनता व्हाट्सएप और फेसबुक से अपना मूड बनाती है। इस डिजिटल लहर में आस्था और त्योहारों की तस्वीरें, वीडियो और ‘लाइव’ इवेंट्स सबसे ज्यादा शेयर किए जाते हैं।
हालांकि डिजिटल माध्यम ने राजनीति को आसान कर दिया है, लेकिन इसने वास्तविक जुड़ाव की कला को कमजोर कर दिया है। पहले नेता जनता के दुःख-दर्द सुनते थे, अब वे कैमरे के सामने तैयार स्क्रिप्ट बोलते हैं। यही वजह है कि मतदाता अक्सर भ्रमित रहते हैं कि आस्था और राजनीति के बीच वास्तविकता कहाँ है।
बिहार धार्मिक और सांस्कृतिक त्योहारों का गढ़ है। यहाँ छठ, तीज और सावन का महीना महिलाओं और परिवारों के लिए विशेष महत्व रखता है। ऐसे में किसी बड़े राजनीतिक चेहरे का इन त्योहारों से जुड़ना जनता में भावनात्मक प्रभाव डालता है।
प्रियंका गांधी ने बिहार में तीज मनाकर महिलाओं से भावनात्मक रिश्ता जोड़ने की कोशिश की। तीज को पति की लंबी उम्र और परिवार की सुख-समृद्धि से जोड़ा जाता है। महिलाओं का बड़ा वर्ग इससे भावनात्मक रूप से जुड़ा रहता है। प्रियंका का यह कदम चुनावी दृष्टि से एक संदेश था “मैं आपकी परंपराओं और भावनाओं का सम्मान करती हूँ।”
लोगों को असली अचंभा तब होगा जब चुनाव 25 अक्टूबर के बाद घोषित हों। क्योंकि तीज और छठ जैसे पर्व बिहार की राजनीति में बड़ा असर डालता हैं। त्योहारों से पहले भावनात्मक माहौल बनाकर वोटरों पर असर डालना चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा होता है।
2022 के पंजाब चुनाव को भला कौन भूल सकता है? उस चुनाव में ‘बिहारी भैयों’ पर हुई टिप्पणियों ने गहरी चोट दी थी। मंच से नेताओं की ताली की गूंज पर बिहारी मजदूरों की आस्तीनें चढ़ाई जा रही थीं। यह दृश्य आज भी बहुतों के दिल को चुभता है।
बिहारियों को अक्सर “सस्ते मजदूर” या “पलायन करने वाले” कहकर राजनीति ने छोटा दिखाने की कोशिश की है। पंजाब में जब यह सियासी हथकंडा चला, तब बिहार की जनता ने इसे गहरी चोट की तरह महसूस किया। यही कारण है कि बिहार के मतदाता अब हर चुनाव में नेताओं की नीयत और भाषा को तौलते हैं।
भारत में महिला मतदाता निर्णायक भूमिका निभाती हैं। कई राज्यों में महिला वोट प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा हो चुका है। ऐसे में त्योहार और आस्था के जरिये उनसे जुड़ना नेताओं की प्राथमिक रणनीति बन चुका है।
महिलाओं का दिल कोमल माना जाता है। वे धार्मिक त्योहारों और पारिवारिक परंपराओं से गहराई से जुड़ी रहती हैं। इसीलिए सियासी दल अक्सर महिलाओं को आकर्षित करने के लिए आस्था से जुड़े कदम उठाते हैं। प्रियंका गांधी का तीज मनाना इसी दिशा का हिस्सा है।
नेता जब आस्था से जुड़ते हैं तो सवाल यह उठता है कि उनका मकसद आस्था का सम्मान है या वोट की राजनीति। यही राजनीति का दोहरा चेहरा है। कई बार राजनीति में आस्था का अपमान भी वोट जुटाने का हथियार बनता है। किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुँचाकर या किसी त्योहार की उपेक्षा करके भी वोट बैंक की राजनीति की जाती है।
भारत की राजनीति में आस्था का हस्तक्षेप कोई नया नहीं है। लेकिन समय के साथ इसका स्वरूप बदलता गया है। पहले जहाँ मंच और भाषण से जनता को रिझाया जाता था, वहीं आज मोबाइल और रीलों ने यह भूमिका ले ली है। लेकिन मतदाता अब ज्यादा सतर्क है। उसे पता है कि राजनीति आस्था को सिर्फ चुनावी औजार के रूप में इस्तेमाल करती है।
प्रियंका गांधी का बिहार में तीज करना इस बात का प्रतीक है कि त्योहारों का राजनीतिक महत्व आज भी बरकरार है। लेकिन सवाल यह है कि क्या जनता सिर्फ आस्था से प्रभावित होगी या फिर पंजाब 2022 जैसे अनुभवों को याद रखेगी? यही लोकतंत्र की असली परीक्षा होगी।
