2025 का वर्ष बिहार के लिए केवल चुनावी वर्ष नहीं है, बल्कि आत्ममंथन का समय है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें नजदीक आ रही हैं, राजनीतिक गलियारों में हलचल बढ़ती जा रही है, परंतु इस बार कुछ अलग है। न ढोल-नगाड़ों की उतनी गूंज, न भाषणों की बौछारें मतदाताओं को प्रभावित कर पा रही हैं। लोग सुन रहे हैं, देख रहे हैं, पर बोल नहीं रहे। यह खामोशी अस्वीकृति की है या परिपक्वता की, इस पर बहस जारी है। लेकिन एक बात निश्चित है कि बिहार का मतदाता इस बार अपने भीतर कुछ बदलता हुआ महसूस कर रहा है।
वहीं दूसरी ओर, दशहरा और दिवाली के उत्सवों के समाप्त होते ही, बिहार के हृदय में एक और महापर्व दस्तक देता है छठ महापर्व। यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि मिट्टी, नदियों और लोकजीवन की आत्मा से उपजा एक जीवंत संवाद है और यहीं से राजनीति की एक नई पटकथा लिखी जाती है, जिसमें सूप, नारियल, ईख और प्रसाद के बीच जनभावना का एक जाल बुनने की कोशिश होती है।
बिहार हमेशा से राजनीतिक रूप से सजग प्रदेश रहा है। यहाँ की जनता ने जयप्रकाश आंदोलन से लेकर मंडल और विकास की राजनीति तक सब देखा है। परंतु 2025 में यह खामोशी, यह मौन, किस ओर संकेत कर रहा है? क्या यह खामोशी इस बात का द्योतक है कि जनता अब ‘वायदों’ से आगे ‘विकल्पों’ को परखने लगी है? या फिर यह उस थकान का प्रतीक है जो लगातार छल और असफलताओं से उपजी है?
ग्रामीण इलाकों में जब आप खेत की मेड़ पर बैठे बुजुर्ग से पूछें “काका, चुनाव में क्या होगा?” तो जवाब मिलता है “अबकी हम देख रहे हैं।” यह ‘देखना’ निष्क्रियता नहीं है, यह मंथन है। जनता अब हर दल की चाल समझने लगी है। पहले जो नारों और जातीय समीकरणों पर चुनाव जीतते थे, अब उन्हें इस खामोशी से डर लगने लगा है।
बिहार की राजनीति में एक दौर ऐसा भी आया जब नेता स्वयं को ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मानने लगे अर्थात् वही सत्य, वही शक्ति, वही केंद्र। नेतृत्व जनसेवा से अधिक आत्ममुग्धता का पर्याय बनने लगा। पद और सत्ता को स्थायी मान लिया गया, जबकि जनता ने बार-बार यह सिद्ध किया है कि ‘राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं।’ आज यही ‘अहं’ बिहार की राजनीति के पतन का मूल कारण बन गया है। नेता अपने चारों ओर चाटुकारों की दीवार खड़ी कर चुके हैं, जिससे जनता की आवाज उन तक पहुँचती ही नहीं है। परिणामतः जब जनता खामोश रहती है, तो वह खामोशी उनके ‘अहं’ का आईना बन जाता है।
छठ महापर्व बिहार की आत्मा है। यह वह पर्व है जिसमें सूर्य को अर्घ्य देने के साथ मानव प्रकृति से संवाद करता है। चार दिन चलने वाला यह पर्व न किसी आडंबर से बंधा है, न किसी वर्ग या पंथ से। यह श्रम, समर्पण और सादगी की पूजा है। परंतु पिछले कुछ वर्षों में इस आस्था का राजनीतिक उपभोग भी होने लगा है। नेता घाटों पर जाकर ‘अर्घ्य’ देते हैं, कैमरे के सामने ‘दंडवत’ करते हैं, और अगले दिन अखबारों में उनकी तस्वीरें प्रकाशित होती हैं। छठ के गीतों के पीछे माइक से निकलती घोषणाएँ, बैनरों पर ‘छठ पूजा समिति, फलां पार्टी समर्थित’ का बोर्ड, यह सब बताता है कि आस्था अब प्रचार का उपकरण बन चुका है।
बिहार में छठ के दौरान सूप, नारियल, ईख, ठेकुआ और फल केवल प्रसाद नहीं है बल्कि प्रतीक हैं। इसमें श्रम, समर्पण और सांस्कृतिक एकता की झलक होती है। पर जब इन्हीं प्रतीकों को ‘वोट बैंक’ का माध्यम बनाया जाता है, तो उनकी पवित्रता क्षीण होने लगती है। गाँवों में यह परंपरा रही है कि चुनाव से पहले नेता घर-घर जाकर ‘छठ की बधाई’ देते हैं, सूप या नारियल भेंट करते हैं। यह भेंट अब प्रतीक से अधिक ‘संकेत’ बन चुकी है कि “हम आपके अपने हैं, हमें याद रखिए।” मगर जनता अब समझदार हो गई है। वह यह भलीभाँति जानती है कि छठ की पूजा घाट पर होती है, लेकिन ‘वोट की पूजा’ मन में होती है।
छठ के समय लाखों प्रवासी बिहारी दिल्ली, मुंबई, सूरत, पंजाब, बंगाल और यहाँ तक कि विदेशों से अपने गाँव लौटते हैं। उनका लौटना केवल भावनात्मक नहीं, राजनीतिक भी होता है। क्योंकि यह वही समय होता है जब गाँव की चौपालें जीवंत हो जाती हैं, राजनीतिक चर्चा जोरों पर होती है, और हर व्यक्ति ‘मतदाता’ के रूप में स्वयं को पुनः महसूस करता है। प्रवासी मतदाता वह वर्ग है जो अपने अनुभवों से नया दृष्टिकोण लेकर आता है। वह देख चुका है कि बाहर की दुनिया में व्यवस्था कैसे चलती है, विकास कैसे होता है, और सरकार जनता से कैसे जुड़ी रहती है। इसलिए जब वह बिहार लौटता है, तो वह नारे नहीं, नीतियाँ देखता है। यही कारण है कि छठ के मौसम में प्रवासी मतदाताओं की भूमिका निर्णायक हो जाती है।
पटना का कंकड़बाग, सोनपुर, भागलपुर, दरभंगा या सहरसा, हर जगह घाट पर भीड़ होती है। राजनीतिज्ञ इस भीड़ में अपनी ‘मौजूदगी’ दर्ज कराने का कोई मौका नहीं छोड़ते। बैनर, झंडे, पोस्टर और ‘सेवा शिविर’, सब एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। पर अब जनता पहचानने लगी है कि कौन ‘सेवा’ कर रहा है और कौन ‘सेल्फी’। छठ घाटों पर अब नेता के स्वागत में फूल बरसाने वाले कम, प्रश्न पूछने वाले ज्यादा हैं। लोग अब यह जानना चाहते हैं कि “जब बाढ़ आई थी, तब आप कहाँ थे?” “जब रोजगार छिना, तब आपने क्या किया?” यह सीधा संवाद है, जिसमें आस्था और जवाबदेही एक साथ उपस्थित हैं।
बिहार में प्रतीकवाद की राजनीति पुरानी है। कभी लालटेन ने पहचान बनाई, कभी तीर-कमान, तो कभी चिराग। अब छठ के प्रतीक, सूर्य, अर्घ्य और सूप, भी राजनीतिक अर्थ ग्रहण करने लगे हैं। नेता सूर्यदेव की पूजा कर जनता को ‘प्रकाश’ देने का दावा करते हैं, परंतु उनके शासन में जनता को अंधेरे में रखा जाता है। यह विरोधाभास जनता की आँखों से ओझल नहीं है। इसलिए अब प्रतीकवाद से अधिक ‘प्रामाणिकता’ की माँग उठ रही है।
छठ के दिनों में बिहार की गलियाँ पोस्टरों से भर जाती हैं “फलाँ नेता की ओर से छठ पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ।”
यह शुभकामना असल में ‘खैरमकदम’ होती है अर्थात् चुनावी मैदान में प्रवेश का सूक्ष्म संकेत। इन पोस्टरों का डिज़ाइन, भाषा और रंग संयोजन भी सोच-समझकर बनाए जाते हैं। पीले और नारंगी रंग सूर्य के प्रतीक हैं, और उनका प्रयोग आस्था से जुड़ाव दिखाने के लिए किया जाता है। लेकिन जनता अब जानती है कि असली ‘खैरमकदम’ वह होगा जब नेता उसके जीवन में स्थायी उजाला लाएँ, न कि केवल चुनावी मौसम में दीप जलाएँ।
बिहार का मतदाता अब केवल ‘जाति’ या ‘धर्म’ से प्रभावित नहीं होता है। वह अब ‘काम’ पूछता है, सड़क बनी या नहीं, रोजगार मिला या नहीं, स्कूल-हॉस्पिटल चल रहा है या नहीं। उसकी प्राथमिकताएँ अब बदल रही हैं। यह बदलाव धीमा है, पर गहरा है। छठ की तरह ही यह परिवर्तन भी तपस्या का परिणाम है। लंबे समय से झूठे वादों, असमान विकास और राजनीतिक स्वार्थों की आँच में तपकर जनता अब ‘प्रबुद्ध’ हो चुकी है। वह अब केवल ‘कथन’ नहीं, ‘कर्म’ पर भरोसा करती है।
मीडिया के लिए भी छठ का पर्व किसी अवसर से कम नहीं। हर चैनल घाटों की लाइव कवरेज करता है, नेताओं के ‘अर्घ्य देने’ के दृश्य बार-बार दिखाए जाते हैं। समाचार की जगह दृश्य राजनीति हावी रहती है। परंतु यही दृश्य जब जनता के अनुभव से मेल नहीं खाते, तो ‘विश्वसनीयता’ संकट में पड़ जाती है। आज बिहार का मतदाता सोशल मीडिया के माध्यम से स्वयं समाचार का विश्लेषक बन चुका है। वह जानता है कि किसने आस्था को आदर दिया और किसने उसे मंच बनाया।
छठ एक ऐसा पर्व है जो समाज के हर वर्ग को जोड़ता है। न ऊँच-नीच, न भेदभाव, सब एक साथ घाट पर खड़े होते हैं। यह पर्व बिहार की सामाजिक एकता का प्रतीक है। लेकिन राजनीति इस समरसता में भी दरार डालने की कोशिश करता है। कभी जाति के नाम पर, कभी क्षेत्र के नाम पर।
छठ के अवसर पर ‘दलित घाट’, ‘महिला घाट’, ‘विशेष पूजा समिति’ जैसे विभाजन इसके मूल संदेश को कमजोर करता हैं। जनता अब ऐसे विभाजनकारी प्रतीकवाद से थक चुकी है।
राजनीतिक दल जानते हैं कि छठ का माहौल जनता के साथ भावनात्मक जुड़ाव का स्वर्णिम अवसर देता है। इसलिए इस समय में प्रचार सामग्री का लहजा भी बदल जाता है ‘आस्था’, ‘संस्कृति’, ‘गौरव’, ‘बिहार की पहचान’ जैसे शब्दों का प्रयोग बढ़ जाता है। परंतु यह रणनीति तभी सफल होती है जब उसके पीछे ईमानदार संवेदना हो। जनता अब यह फर्क समझने लगी है कि कौन ‘व्रत’ निभा रहा है और कौन ‘ड्रामा’। छठ के पवित्र जल में झूठ की परत ज्यादा देर नहीं टिकती।
बिहार के युवा आज राजनीति को नए दृष्टिकोण से देख रहे हैं। उनके लिए धर्म और जाति से ऊपर रोजगार, शिक्षा, और अवसर की राजनीति अधिक महत्त्वपूर्ण है। वे छठ पर्व को ‘रूट्स रिवाइवल’ यानि अपनी जड़ों की ओर लौटने का अवसर मानते हैं, पर इसके साथ यह भी चाहते हैं कि विकास उनकी धरती तक पहुँचे। सोशल मीडिया पर चल रहे अभियानों में अब युवाओं की आवाज प्रमुख है “छठ हमारी संस्कृति है, राजनीति नहीं।” यह कथन उस नई चेतना की निशानी है जो बिहार की लोकतांत्रिक आत्मा को परिपक्व बना रही है।
2025 का बिहार शायद पहली बार उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ ‘मौन’ ही सबसे बड़ा संदेश है। छठ के घाटों से उठती आरती की लौ इस खामोशी को आलोकित कर रही है। जनता अब किसी चमत्कार की प्रतीक्षा नहीं कर रही, बल्कि अपने विवेक से नया इतिहास रचने को तत्पर है। नेताओं के ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का युग ढल रहा है। अब आरंभ हो रहा है ‘जन ब्रह्मास्मि’ का युग, जहाँ सत्ता नहीं, जनता केंद्र में होगी और यह परिवर्तन नारे से नहीं, इस खामोशी से जन्म ले रहा है।
बिहार की चुनावी कथा इस बार केवल वोटों की नहीं, बल्कि मूल्यों की होगी। आस्था, आचरण और आत्मा के इस त्रिकोण में जनता अपना निर्णय स्वयं करेगी।
