तेजस्वी यादव नाम आज बिहार की राजनीति में उतना ही चर्चित है, जितना कभी उनके पिता लालू प्रसाद का हुआ करता था। फर्क सिर्फ इतना है कि लालू प्रसाद ने राजनीति की जमीन गरीबों के बीच बनाई थी, जबकि तेजस्वी उस विरासत पर राजमहल की छाया में पले-बढ़े। उनके रहन-सहन, तौर-तरीका और जीवनशैली में वह सब झलकता है, जो एक “अरिस्टोक्रेट” या अभिजात वर्ग के व्यक्ति में पाया जाता है। वे संघर्ष की गंध से ज्यादा सलीके और परिष्कार के माहौल में पले। न तो उन्हें रोटी-कपड़े की चिंता रही, न ही जमीनी अभावों की कड़वाहट। किंतु सियासत की विडंबना यह है कि यह हमेशा संघर्ष की भाषा में बोली जाती है और यही वह क्षेत्र है, जहाँ तेजस्वी यादव को अपने "विशिष्ट" पालन-पोषण के बावजूद, जनता से जुड़ाव का प्रमाण देना पड़ा।
तेजस्वी यादव की कहानी को समझने के लिए पहले लालू प्रसाद की कहानी समझना जरूरी है। लालू प्रसाद, बिहार की राजनीति में उस दौर में उभरे, जब समाज में मंडल राजनीति का उफान था। पिछड़े वर्गों, दलितों, अल्पसंख्यकों और गरीबों के अधिकारों की आवाज बनकर लालू प्रसाद ने सत्ता हासिल की। उनकी बोली में लोक था, हंसी में व्यंग्य था और राजनीति में एक ऐसा करिश्मा था जो जातीय समीकरणों से ऊपर भावनाओं तक पहुंच जाता था। लालू प्रसाद ने अपनी राजनीति को “गरीबों की राजनीति” कहा और सच भी यही था कि उन्होंने बिहार के वंचित तबके को सत्ता में हिस्सेदारी का एहसास दिलाया। पर यह भी सच है कि इसी राजनीतिक विरासत के बीच जब तेजस्वी यादव का जन्म हुआ, तब तक लालू प्रसाद का परिवार सत्ता, सम्मान और संसाधनों से भर चुका था। राजनीति में अब संघर्ष नहीं, बल्कि संरक्षण का युग था और तेजस्वी यादव उसी काल के उत्तराधिकारी बने।
लालू प्रसाद के जेल जाने के बाद जब राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री बनीं, तब यादव परिवार ने सत्ता की मजबूती को बनाए रखा। इस दौरान तेजस्वी यादव का बचपन सरकारी बंगले की ऊँची दीवारों और सुरक्षा घेरे में बीता। राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं, लालू प्रसाद राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय थे, ऐसे माहौल में तेजस्वी यादव को राजनीति की जमीनी हकीकत कम, सत्ता की ऊँचाइयाँ अधिक दिखीं। बचपन में उन्हें जनता की भीड़ नहीं, सरकारी अफसरों का झुकाव दिखाई देता था, संघर्ष का पाठ नहीं, व्यवस्था की सुविधा का स्वाद मिला। कह सकते हैं कि तेजस्वी यादव उस पीढ़ी के पहले “राजवंशी राजनेता” हैं, जिनकी राजनीतिक शुरुआत सत्ता की गोद से हुई, संघर्ष की गलियों से नहीं।
तेजस्वी यादव का व्यक्तित्व देखकर यह कहना कठिन नहीं है कि उन्होंने एक सुव्यवस्थित, आधुनिक और विशेषाधिकार प्राप्त जीवन जिया है। दिल्ली के डीपीएस आर.के. पुरम जैसे नामी स्कूल से शिक्षा ग्रहण करने वाले तेजस्वी यादव ने अंग्रेजी भाषा, आधुनिक परिवेश और पेशेवर व्यवहार का अनुभव बहुत कम उम्र से ही पा लिया था। वह क्रिकेट की दुनिया में भी उतरे, जो यह दिखाता है कि उनका बचपन सामान्य बिहारी किशोर जैसा नहीं था, बल्कि महानगरों और बोर्डिंग स्कूलों के वातावरण में बीता। वे दिल्ली, मुंबई और पटना के बीच एक ऐसा जीवन जी रहे थे, जिसमें राजनीति की धूल नहीं, बल्कि सुविधा की ठंडी हवा बहती थी। उनके पहनावे से लेकर बातचीत के तौर-तरीके तक में एक अभिजातीयता झलकती है। वह पॉलिश्ड हैं, सधी हुई भाषा बोलते हैं, कैमरे के सामने सहज रहते हैं, यह सब उस “क्लास” का परिणाम है जो संघर्षरत जनता से नहीं, बल्कि एक विशेष जीवनशैली से जन्म लेता है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि तेजस्वी यादव दिल्ली डेयरडेविल्स टीम के साथ इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के शुरुआती सीजन में शामिल रहे। भले ही उन्हें मैदान पर खेलने का मौका नहीं मिला, लेकिन इस अनुभव ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर के मंच पर पेश होने का आत्मविश्वास दिया। क्रिकेट के मैदान पर उन्होंने सीखा कि अनुशासन, रणनीति और धैर्य का क्या अर्थ होता है। यही तीन गुण बाद में उनकी राजनीति की पहचान बना जब वे बिहार की भीषण राजनीतिक तूफानों के बीच स्थिर खड़े रहे। क्रिकेट ने उन्हें ‘टीम पॉलिटिक्स’ सिखाई कैसे कप्तान को खिलाड़ियों को साथ लेकर चलना होता है, कैसे हार के बाद भी संयम रखना होता है। बाद में यही कौशल उन्हें तब काम आया जब उन्होंने अपनी पार्टी के भीतर, गठबंधन के बीच और विरोधियों के सामने संयम और संतुलन बनाए रखा।
तेजस्वी यादव का राजनीति में प्रवेश किसी चुनावी घोषणा से नहीं, बल्कि एक पारिवारिक निर्णय से हुआ है। जब लालू प्रसाद और राबड़ी देवी दोनों राजनीति में सक्रिय थे, तब घर में राजनीतिक माहौल स्वाभाविक रूप से बना रहता था। तेजस्वी यादव बचपन से ही नेताओं की भीड़, पत्रकारों की मौजूदगी और अफसरों की झुकी नजरों के बीच पले। इस वातावरण ने उन्हें यह समझने में मदद दी कि “सत्ता” कैसी दिखती है और “राजनीति” कैसे चलती है।
2015 के विधानसभा चुनाव में जब तेजस्वी यादव को राजद की ओर से उम्मीदवार बनाया गया, तब आलोचकों ने कहा कि “यह राजनीति में वंशवाद की मिसाल है।” लेकिन चुनाव के बाद नतीजों ने सबको चौंका दिया कि तेजस्वी यादव ने न केवल जीत दर्ज की, बल्कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले महागठबंधन में उपमुख्यमंत्री बन गए। यह उस युवा के लिए ऐतिहासिक क्षण था जिसे कुछ साल पहले तक “नौवीं फेल” कहकर राजनीति में नाकारा साबित किया जा रहा था।
तेजस्वी यादव की शिक्षा को लेकर बहुत व्यंग्य हुआ। विरोधियों ने उन्हें “नौवीं फेल” कहकर उपहास का पात्र बनाया, मीडिया ने इसे सुर्खियों में उछाला। लेकिन यही बात तेजस्वी की सबसे बड़ी राजनीतिक रणनीति बन गई। उन्होंने शिक्षा के आरोप का जवाब नहीं दिया, बल्कि इसे विनम्रता में बदल दिया कि “मैं भले पढ़ाई में कमजोर रहा हूँ, लेकिन जनता के दर्द को समझना जानता हूँ।” इस कथन ने जनता के बीच एक सरल, आत्मीय और विनम्र छवि बनाई। यहाँ तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी खूबी दिखी कि उन्होंने क्रिटिसिज्म को कनेक्शन में बदला। उन्होंने विरोधियों के व्यंग्य को जनता की सहानुभूति में रूपांतरित किया। यही गुण किसी भी “अरिस्टोक्रेट” नेता को जननेता बनने की राह पर अग्रसर करता है।
राजनीति में विरासत एक वरदान भी है और अभिशाप भी। तेजस्वी यादव के लिए लालू प्रसाद की छाया इतनी गहरी थी कि अपनी स्वतंत्र पहचान बनाना आसान नहीं था। उनकी हर बात, हर भाषण, हर निर्णय की तुलना लालू प्रसाद से होती थी। विपक्ष उन्हें “लालू का लड़का” कहकर सीमित करना चाहता था, जबकि तेजस्वी यादव खुद को “नए बिहार का चेहरा” कहना पसंद करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपने भाषणों, संवादों और चुनावी रणनीतियों के जरिए अपनी शैली विकसित की। वे लालू प्रसाद के अंदाज की नकल नहीं करते, बल्कि एक संयत, तर्कसंगत और आधुनिक नेता की तरह पेश आते हैं। उनका यह rebranding प्रयास सफल भी रहा, खासकर युवा मतदाताओं के बीच।
तेजस्वी यादव की शुरुआती राजनीति घर की सीमाओं में रही, पार्टी दफ्तर, पारिवारिक बैठकें, मीडिया से बयान। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने खुद को जनता के बीच प्रस्तुत करना शुरू किया। उनकी यात्राएँ, सड़क आंदोलन, रोजगार पर भाषण, इन सबने उन्हें एक सक्रिय जननेता के रूप में स्थापित किया। 2019 के लोकसभा चुनाव में भले ही राजद का प्रदर्शन कमजोर रहा, लेकिन उसी के बाद तेजस्वी यादव ने अपने आपको रीब्रांड किया। उन्होंने सोशल मीडिया को हथियार बनाया, खुद के भाषणों को सरल भाषा में जनता तक पहुँचाया। तेजस्वी यादव का यह चरण बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि यहीं से उन्होंने “सत्ता के उत्तराधिकारी” से “संघर्षशील नेता” बनने की दिशा में पहला ठोस कदम उठाया।
राजनीति में जनता से जुड़ाव सबसे कठिन कला होती है। तेजस्वी यादव इस तथ्य को बखूबी समझते हैं। उनकी सभाओं में वे भावनात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं कि “हम गरीबों के बेटे हैं”, “हमने जनता की सेवा में खुद को समर्पित किया है।” यह भाषा भावनाओं को जगाती है, भले ही आलोचक इसे रणनीति कहें। तेजस्वी यादव जानते हैं कि जनता की स्मृति छोटी होती है, लेकिन भावना गहरी। इसलिए उन्होंने अपने हर भाषण में सहानुभूति का स्वर रखा, आक्रोश नहीं, अपनापन। यही कारण है कि बिहार में युवा वर्ग उन्हें “लालू का बेटा” नहीं, बल्कि “अपना नेता” मानने लगा। उनकी सभाओं में भीड़ उमड़ती है, और सोशल मीडिया पर उनका नाम लोकप्रियता में शीर्ष नेताओं के साथ गिना जाता है।
तेजस्वी यादव ने अपनी शुरुआती राजनीतिक गलतियों से सीखा। कभी भावनाओं में बयान दे देना, कभी पार्टी कार्यकर्ताओं के असंतोष पर विलंबित प्रतिक्रिया, ये सब शुरुआती चरण की सामान्य कमियाँ थीं। लेकिन उन्होंने एक बात पर ध्यान दिया कि हर गलती को सुधारने का समय होना चाहिए। यहाँ भी उनका क्रिकेट अनुभव काम आया, हार के बाद अगले मैच की रणनीति बनाना, यही उनका दृष्टिकोण रहा। आज वे विपक्ष के नेता के रूप में जिस सधे हुए तरीके से बोलते हैं, वह इसी अनुशासन और आत्म-नियंत्रण का परिणाम है। उनके चेहरे पर आत्मविश्वास है, शब्दों में ठहराव है, और राजनीतिक उत्तरदायित्व का बोध है।
