आभा सिन्हा, पटना
दीपावली केवल एक धार्मिक पर्व ही नहीं है, बल्कि यह भारतवर्ष की सांस्कृतिक आत्मा का उत्सव है। यह अंधकार से प्रकाश, अज्ञान से ज्ञान और दुःख से आनंद की ओर ले जाने वाली यात्रा का प्रतीक है।
उपनिषदों में कहा गया है कि "तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात् “हे प्रभु, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।” दीपावली इसी शाश्वत सत्य का प्रत्यक्ष उत्सव है। जब घर-घर दीपक जलता है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो समस्त ब्रह्मांड में बिखरे अंधकार को दूर कर दिव्य चेतना का प्रकाश प्रकट हो रहा हो। उपनिषदों में परमज्योति का उल्लेख है, जो किसी लौकिक प्रकाश से परे है। यह वही दिव्य ज्योति है जो प्राणी मात्र के हृदय में विद्यमान है। दीपावली पर जो दीप जलाए जाते हैं, वे उसी आत्मज्योति की स्मृति और जागृति के प्रतीक है।
मार्कण्डेय पुराण में दीपावली की रात को “कालरात्रि और महानिशा” कहा गया है। यह वह रात है जब समस्त ब्रह्मांड की आद्याशक्ति महालक्ष्मी का आविर्भाव होता है। यह शक्ति ही जगत की मूल प्रेरणा है। उनके बिना न सृष्टि है, न पालन, न संहार। दीपावली का महत्व केवल दीप जलाने या पूजा करने तक सीमित नहीं है। यह मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों से जुड़ा है। मनोविज्ञान के अनुसार, दीपावली पर दीपक जलाना आत्मा में आशा और सकारात्मकता का संचार करता है। समाजशास्त्र के अनुसार, दीपावली परिवार और समाज को जोड़ने वाला पर्व है। लोग आपस में मिलते हैं, उपहार देते हैं और एक-दूसरे के जीवन में सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
यह पर्व धन और ऐश्वर्य से भी जुड़ा है। किसान अपनी नई फसल घर लाते हैं, व्यापारी नए खाता-बही की शुरुआत करते हैं, गृहस्थ अपने घर को सजाते हैं। यह सब "संपन्नता" का प्रतीक है, जो महालक्ष्मी का ही स्वरूप है। धार्मिक दृष्टि से देवताओं का पूजन और पौराणिक घटनाओं की स्मृति है। दार्शनिक दृष्टि से अज्ञान पर ज्ञान का विजय है। सामाजिक दृष्टि से मेल-मिलाप, उत्सव और लोकसंस्कृति का संरक्षण है। आर्थिक दृष्टि से नया व्यापार, खरीदारी और आर्थिक गतिविधियों का विस्तार है।
भारत की धार्मिक परंपराओं में लक्ष्मी केवल धन की देवी ही नहीं हैं, बल्कि वे जीवन के हर उस तत्व का प्रतीक हैं जो समृद्धि, सुख और सौभाग्य से जुड़ा है। दीपावली का सबसे बड़ा आकर्षण महालक्ष्मी की पूजा है। हर घर में लक्ष्मी पूजन होता है, लोग अपने घरों को दीपों और सजावट से सुशोभित करते हैं ताकि लक्ष्मी माता का स्वागत किया जा सके। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि लक्ष्मी जी का दीपावली से गहरा संबंध कैसे बना?
लक्ष्मी जी की उत्पत्ति का वर्णन विष्णु पुराण, भागवत पुराण और रामायण में मिलता है। त्रेतायुग से पहले सतयुग में देवता और दानव, दोनों ने अमृत प्राप्त करने के लिए क्षीरसागर का मंथन किया। यह मंथन मंदार पर्वत को मथनी और वासुकि नाग को रज्जु बनाकर किया गया। जब समुद्र मंथन शुरू हुआ तो अनेक अद्भुत वस्तुएं प्रकट हुईं, जिसमें हलाहल विष, कामधेनु गाय, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ और चंद्रमा प्रमुख है। इन्हीं रत्नों में सबसे विलक्षण रूप में महालक्ष्मी प्रकट हुईं। वे कमल पर विराजमान थीं, उनके हाथों में कमल और सोने की वर्षा होती थी। उस क्षण समस्त लोकों में आनंद की लहर दौड़ गई। कहा जाता है कि लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव कार्तिक अमावस्या की रात को हुआ। इसीलिए उस दिन को उनकी पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया।
समुद्र मंथन के बाद सभी देवताओं और दानवों ने लक्ष्मी जी को अपने-अपने साथ रहने के लिए आग्रह किया। परंतु लक्ष्मी जी ने अपने लिए भगवान विष्णु को जीवनसाथी चुना। विष्णु ही पालक हैं, जो सृष्टि का संतुलन बनाए रखते हैं। लक्ष्मी और विष्णु जी का यह मिलन इस बात का प्रतीक है कि धन और शक्ति का सही उपयोग तभी संभव है जब वह धर्म और पालनकर्ता के साथ जुड़ा हो। यदि धन अधर्म के साथ हो, तो वह अलक्ष्मी बन जाता है यानि दुख, कलह और विनाश का कारण होता है।
मार्कण्डेय पुराण और अन्य ग्रंथों में महालक्ष्मी के तीन स्वरूप बताए गए हैं। तामसिक रूप में लक्ष्मी क्षुधा (भूख), तृष्णा (लालच), निद्रा (आलस्य), कालरात्रि (विनाश) और महामारी के रूप में प्रकट होती हैं। यदि धन का उपयोग गलत दिशा में हो, तो यही लक्ष्मी अलक्ष्मी का रूप धारण कर लेती हैं। राजसिक रूप में लक्ष्मी "श्री" कहलाती हैं। वे भरण-पोषण करने वाली, ऐश्वर्य प्रदान करने वाली और समृद्धि की दात्री हैं। वे उन परिवारों और व्यक्तियों के घर आती हैं जिन्होंने शुभ कर्म किए होते हैं। परंतु यदि कर्म पाप की ओर बढ़ जाएँ तो वे वहीं से हटकर अलक्ष्मी का रूप ले लेती हैं। सात्विक रूप में लक्ष्मी विद्या, वाणी और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी बनती हैं। वे महाविद्या, भारती और सरस्वती के रूप में प्रकट होती हैं। सात्विक लक्ष्मी का अर्थ होता है धन के साथ-साथ ज्ञान और विवेक की प्राप्ति।
दीपावली की रात को लोग लक्ष्मी पूजन क्यों करते हैं? इसका उत्तर तीन स्तरों पर मिलता है। पौराणिक कारण समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव कार्तिक अमावस्या को हुआ, इसलिए यह दिन उनकी उपासना के लिए सबसे शुभ माना गया। दार्शनिक कारण दीपावली अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है। अंधकार केवल बाहरी नहीं, बल्कि भीतरी होता है गरीबी, अज्ञान और भय। लक्ष्मी की पूजा इन अंधकारों से मुक्ति और समृद्धि की प्राप्ति का प्रतीक है। सामाजिक कारण वर्ष भर की मेहनत और फसल कटाई के बाद किसान अपने घर धन-धान्य लाते हैं। व्यापारी अपने नए लेखा-जोखा (खाताबही) की शुरुआत करते हैं। गृहस्थ अपने घर को साफ-सुथरा और सुंदर बनाते हैं। यह सब लक्ष्मी पूजन से जुड़ा होता है।
प्रश्न अक्सर उठता है कि लक्ष्मी के साथ विष्णु की पूजा क्यों नहीं होती? इस प्रश्न का उत्तर परंपरा और कथा दोनों में निहित है। भगवान विष्णु योगनिद्रा में होते हैं। कार्तिक अमावस्या को वे शयन कर रहे होते हैं और ग्यारह दिन बाद देवउठनी एकादशी को जागते हैं। लक्ष्मी जी जब पृथ्वी पर भ्रमण के लिए आती हैं, तो उनके साथ गणेश जी होते हैं। गणेश जी विघ्नहर्ता हैं। धन की देवी लक्ष्मी तो कृपा कर सकती हैं, लेकिन यदि विघ्न आ जाएं तो धन का सही उपयोग संभव नहीं होता है। इसलिए गणेश जी साथ रहते हैं ताकि हर रुकावट दूर हो सके। पौराणिक कथा के अनुसार, लक्ष्मी जी ने धन वितरण का कार्य कुबेर को सौंपा। परंतु कुबेर कंजूस थे, वे धन बाँटते ही नहीं थे। तब भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को सलाह दी कि वे गणेश जी को यह कार्य सौंपें। गणेश जी ने वचन दिया कि वे जिस व्यक्ति का नाम लेंगे, उस पर लक्ष्मी कृपा करेंगी। इस प्रकार गणेश जी ने धन वितरण का संतुलन बनाया। तभी से लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजा होने लगी।
दीपावली की अमावस्या को महालक्ष्मी पृथ्वी पर आती हैं। कहा जाता है कि वे उन घरों में प्रवेश करती हैं जो स्वच्छ और सुसज्जित हो, जहाँ दीपक जल रहे हो, जहाँ परिवारजन आपसी प्रेम और सौहार्द से रहते हो। इसलिए लोग दीपावली की रात को घर की सफाई, सजावट और दीपमालिका से वातावरण को पवित्र और आकर्षक बनाते हैं।
दार्शनिक रूप से लक्ष्मी का अर्थ होता है धन (संपत्ति), धान्य (अन्न), धैर्य (सहनशीलता), धर्म (नीति) संतान, कीर्ति और ऐश्वर्य। लक्ष्मी जी का यह बहुआयामी स्वरूप यह सिखाता है कि लक्ष्मी जी केवल धन तक सीमित नहीं है, बल्कि जीवन की हर सकारात्मक शक्ति लक्ष्मी जी ही है।
ग्रामीण भारत में दीपावली की रात लक्ष्मी माता को बुलाने के लिए विशेष परंपराएँ निभाई जाती हैं। घर के मुख्य द्वार पर अल्पना या रंगोली बनाई जाती है। चौखट पर दीपक रखे जाते हैं। ताले, झाड़ू और अनाज की ढेरी पर भी दीपक जलाए जाते हैं, ताकि लक्ष्मी जी घर में आएं और दरिद्रता बाहर जाए।
महालक्ष्मी का स्वरूप बहुआयामी है वे धन भी हैं, विद्या भी हैं और सौभाग्य भी। दीपावली उनकी पूजा का पर्व इसलिए बना क्योंकि इसी दिन वे प्रकट हुईं। उनके साथ गणेश जी की पूजा इसलिए होता है क्योंकि वे विघ्नहर्ता और सौभाग्य प्रदाता हैं। इस प्रकार दीपावली केवल प्रकाशोत्सव नहीं है, बल्कि महालक्ष्मी और गणेश जी की कृपा प्राप्त करने का दिन होता है।
भारत की सांस्कृतिक धरोहर में दीपावली सामाजिक एकता, पारिवारिक बंधन और उत्सवधर्मिता का भी अद्भुत उदाहरण है। इसकी जड़ें त्रेतायुग तक जाती हैं, जब श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास समाप्त कर लंका विजय के उपरांत माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे थे। वाल्मीकि रामायण और पुराणों के अनुसार, श्रीराम के अयोध्या आगमन पर नगरवासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। अंधकार पर प्रकाश की विजय और धर्म की स्थापना का यह प्रतीक उत्सव आज भी दीपावली के रूप में मनाया जाता है। यह केवल एक धार्मिक स्मृति नहीं है, बल्कि न्याय, सत्य और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों की जीवंत धरोहर है।
दीपावली मात्र एक दिन का त्योहार नहीं होता है, बल्कि पाँच दिनों तक चलने वाला महोत्सव है, जिसके प्रत्येक दिन की विशेषता होता है। पहला दिन धनतेरस होता है। इस दिन स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना की जाती है। घरों में बर्तन, धातु और धन के प्रतीक खरीदे जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि की जयंती भी इसी दिन मनाया जाता है। दूसरे दिन नरक चतुर्दशी (काली चौदस) होता है। इस दिन स्नान-दान और आरोग्य की परंपरा है। माना जाता है कि इस दिन श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। तीसरा दिन दीपावली (लक्ष्मी पूजन) होता है। कार्तिक अमावस्या की रात्रि को दीप जलाकर माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा की जाती है। यह रात संपन्नता, सुख-शांति और प्रकाश का पर्व है। चौथा दिन गोवर्धन पूजा/अन्नकूट होता है। इस दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा होती है, जो श्रीकृष्ण की प्रकृति संरक्षण की शिक्षा का प्रतीक है। पांचवाँ और अंतिम दिन भाई दूज होता है। इस दिन भाई-बहन के पवित्र संबंध का उत्सव मनाया जाता है। बहनें भाइयों की दीर्घायु की कामना करती हैं और भाई उन्हें सुरक्षा का वचन देता है।
दीपावली का उत्सव परिवार और समाज के बीच आपसी सौहार्द को बढ़ाता है। दीपों से सजे घर और गलियाँ केवल प्रकाश से ही नहीं, बल्कि आपसी रिश्तों की ऊष्मा से भी जगमगाता है। इस अवसर पर लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, मिठाइयाँ बाँटते हैं और सामूहिक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। यह पर्व गरीब और अमीर, छोटे और बड़े सबको एक सूत्र में बाँधता है।
आज दीपावली का स्वरूप बदल रहा है। पारंपरिक दीपों की जगह पटाखों और बिजली की झालरों ने ले ली है। पर्यावरण प्रदूषण और स्वास्थ्य पर इसके दुष्प्रभाव भी सामने आए हैं। इसलिए समाज में अब ग्रीन दीपावली की अवधारणा उभर रही है, जिसमें लोग पटाखों से दूरी बनाकर पर्यावरण-सुरक्षा का संदेश देता है। लेकिन पारिवारिक मिलन और पूजा-अर्चना की परंपरा अब भी जीवित है।
