बिहार की राजनीति में वादों और घोषणाओं की परंपरा नई नहीं है। रोजगार, शिक्षा, आरक्षण, सामाजिक न्याय और विकास। यह विषय दशकों से चुनावी विमर्श के केंद्र में रहा है। लेकिन, हाल के महीनों में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने जो घोषणा किया है कि वह केवल चुनावी वादा नहीं, बल्कि बिहार के सामाजिक और प्रशासनिक ढांचे को झकझोर देने वाली कल्पना है।
उन्होंने बार-बार यह दोहराया है कि “राजद की सरकार बनने के 20 महीने के भीतर हर परिवार को एक सरकारी नौकरी दी जाएगी” और इसके लिए “सरकार बनते ही 20 दिनों में एक अधिनियम (कानून)” पारित किया जाएगा।
पहली दृष्टि में यह घोषणा “क्रांतिकारी” प्रतीत होती है, क्योंकि यह सीधे तौर पर बेरोजगारी, गरीबी और असमानता जैसे गहरे मुद्दों को संबोधित करता है। लेकिन जब इस घोषणा को आर्थिक यथार्थ, प्रशासनिक ढांचे, संवैधानिक प्रावधानों और आरक्षण प्रणाली के संदर्भ में देखा जाता है, तो अनेक गंभीर प्रश्न सामने आता है। क्या हर परिवार को नौकरी देना संभव है? क्या इसके लिए आरक्षण नीति में बदलाव आवश्यक होगा? क्या यह संवैधानिक रूप से टिक सकेगा? और अंततः क्या यह एक लोकलुभावन राजनीतिक वादा है या एक व्यवहार्य नीति-संकल्प?
राजद नेता तेजस्वी यादव ने यह घोषणा कई सभाओं में दोहराया है कि “राजद की सरकार बनेगी तो हर परिवार को नौकरी मिलेगी और इसके लिए अधिनियम बनेगा ताकि यह वादा चुनावी घोषणा न रह जाए बल्कि कानूनी गारंटी बने।” यह घोषणा उस समय आया है जब बिहार में बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से कई गुना अधिक है। CMIE (Centre for Monitoring Indian Economy) की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में बेरोजगारी दर कई बार 12–15% के बीच रहा है। राज्य में युवाओं की औसत आयु 27 वर्ष है, लेकिन स्थायी रोजगार पाने वालों की संख्या बेहद कम है। ऐसे में “हर परिवार को सरकारी नौकरी” का वादा, बेरोजगार युवाओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हुआ है। तेजस्वी यादव ने कहा है कि “यह ऐतिहासिक और क्रांतिकारी घोषणा है। हम रोजगार नहीं, नौकरी की गारंटी देंगे। हर परिवार में कम से कम एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी मिलेगी। इसके लिए कानून बनाया जाएगा ताकि कोई सरकार इसे पलट न सके।” यह बयान न केवल जनता के लिए आकर्षक है, बल्कि यह राजनीतिक रूप से रणनीतिक भी है। क्योंकि बिहार की राजनीति लंबे समय से न्याय, अवसर और समानता के मुद्दों पर आधारित रहा है और रोजगार इसका सबसे बड़ा आधार बन सकता है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या यह संभव भी है? बिहार की वर्तमान स्थिति को देखें तो यह घोषणा व्यवहार में अत्यंत कठिन प्रतीत होती है। बिहार सरकार के अधीन वर्तमान में लगभग 10.5 लाख स्थायी सरकारी कर्मचारी हैं। राज्य में लगभग 2.6 करोड़ परिवार (Census 2011 के अनुसार) हैं, जो अब अनुमानतः 3 करोड़ से अधिक हो चुके हैं। यदि हर परिवार को एक सरकारी नौकरी दी जाए तो 30 लाख से अधिक नई सरकारी नौकरियों का सृजन करना होगा। औसतन यदि एक सरकारी कर्मचारी पर (वेतन, भत्ता, पेंशन सहित) प्रति वर्ष 6 लाख रुपये का व्यय माना जाए, तो 30 लाख × 6 लाख = 1.8 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष का अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ेगा। जबकि बिहार का वार्षिक राजस्व बजट लगभग 2.9 लाख करोड़ रुपये है।
इसका अर्थ यह हुआ कि केवल इस योजना को लागू करने के लिए राज्य को अपने बजट का 60% से अधिक हिस्सा केवल वेतन भुगतान में लगाना पड़ेगा, जो आर्थिक रूप से असंभव है। इतनी बड़ी संख्या में नियुक्तियाँ करने के लिए संवर्ग (cadre) का पुनर्गठन, नए विभागों की स्थापना, प्रशिक्षण, पद-क्रम निर्धारण और सेवा-नियमों में भारी बदलाव आवश्यक होगा। यह सब न केवल प्रशासनिक दृष्टि से जटिल है, बल्कि इसके लिए केंद्र सरकार की स्वीकृति और वित्तीय सहयोग भी आवश्यक होगा।
अब सबसे संवेदनशील प्रश्न उठता है कि जब हर परिवार को नौकरी मिलेगी, तो क्या आरक्षण समाप्त हो जाएगा? भारत में अनुच्छेद 15(4), 16(4) और 46 सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का संवैधानिक आधार प्रदान करता है। बिहार में वर्तमान आरक्षण संरचना लगभग इस प्रकार है अनुसूचित जाति (SC) 16%, अनुसूचित जनजाति (ST) 1%, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) 12%, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) 18% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) 10%, कुल = 57% (EWS सहित लगभग 67%)। यदि हर परिवार को सरकारी नौकरी दी जाती है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या इस योजना में जातीय आरक्षण का पालन होगा या “हर परिवार” का अर्थ “समान अवसर” से है?
यदि योजना जाति-आधारित आरक्षण के तहत ही लागू होती है, तो जिन परिवारों में पहले से कोई सरकारी नौकरी में है, वह परिवार बाहर रहेंगे। परंतु यदि योजना “हर परिवार” के लिए समान रूप से लागू होती है, तो आरक्षण की अवधारणा अप्रासंगिक हो जाएगा। इसका सीधा अर्थ यह होगा कि “हर परिवार को नौकरी” की नीति और आरक्षण नीति एक-दूसरे के विरोधाभासी बन जायेगा।
आरक्षण समाप्त किए बिना “हर परिवार” को नौकरी देना असंभव प्रतीत होता है, क्योंकि राज्य कानूनी रूप से आरक्षण का उल्लंघन नहीं कर सकता है। यदि सरकार आरक्षण को दरकिनार करती है तो यह न केवल न्यायालय में चुनौती योग्य होगा, बल्कि संविधान के मूल ढाँचे (basic structure) का उल्लंघन माना जा सकता है।
राज्य सरकार किसी नीति के तहत “रोजगार गारंटी अधिनियम” बना सकती है, जैसे कि केंद्र सरकार ने “मनरेगा” (ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005) बनाया था। लेकिन सरकारी नौकरी की कानूनी गारंटी देना एक अलग और जटिल मामला है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 309 से 311 तक सरकारी सेवाओं की नियुक्ति, पदोन्नति और सेवा शर्तें केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा विनियमित की जाती हैं। किसी भी “अधिनियम” को इन्हीं अनुच्छेदों के अधीन रहना होता है। अनुच्छेद 16(1) कहता है कि “सभी नागरिकों को सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर का अधिकार होगा।” अतः यदि सरकार केवल “हर परिवार” को नौकरी देने की नीति बनाएगी तो यह “परिवार-आधारित आरक्षण” के समान हो जाएगा, जो संवैधानिक दृष्टि से भेदभावपूर्ण (discriminatory) माना जाएगा। यदि यह अधिनियम पारित होता भी है, तो न्यायालय में इसे “समान अवसर के अधिकार के उल्लंघन” के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। क्योंकि सरकार “परिवार” को नियुक्ति का आधार नहीं बना सकता है, जबकि संविधान “व्यक्ति” को अधिकार प्रदान करता है।
बिहार में हर वर्ष लगभग 35 लाख युवा रोजगार बाजार में प्रवेश करते हैं। इनमें से केवल 2–3% को सरकारी नौकरी मिलती है। शेष निजी या असंगठित क्षेत्र में जाते हैं या बेरोजगार रह जाते हैं। ऐसे में “हर परिवार” को सरकारी नौकरी देने के लिए राज्य को 30 गुना अधिक रोजगार सृजन करना होगा, जो अब तक किसी भी राज्य ने नहीं किया है। राष्ट्रीय स्तर पर भी सरकारी नौकरियों की हिस्सेदारी 2000 में 5.5% से घटकर अब 2.8% रह गई है। इसलिए, आर्थिक ढांचा “सरकारी” नौकरियों की बजाय “निजी, सेवा और उद्यमिता” की ओर जा रहा है। ऐसे में राज्य-नियोजित रोजगार मॉडल एक विकास-विरोधी दिशा में जा सकता है।
तेजस्वी यादव की यह घोषणा केवल नीति नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक संदेश भी है। इसका उद्देश्य दोहरा है बेरोजगार युवाओं को सीधा भरोसा देना, और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में “सबसे बड़ा वादा” पेश करना। बिहार में बड़ी संख्या में युवा बेरोजगार हैं, और प्रवासी मजदूरों का दर्द अब भी सामाजिक मुद्दा है। ऐसे में “हर परिवार को नौकरी” का वादा भावनात्मक रूप से अत्यंत प्रभावी है। जनता को लगता है कि यह गरीबी और पलायन दोनों का स्थायी समाधान देगा। इस घोषणा से भाजपा, जदयू और कांग्रेस सभी दलों पर दबाव बढ़ा है कि वे भी रोजगार पर ठोस योजना पेश करें। इससे राजद को नैरेटिव कंट्रोल का लाभ मिलता है। तेजस्वी यादव ने 2020 में भी 10 लाख नौकरियाँ देने का वादा किया था। विपक्ष का आरोप है कि उस वादे का कोई ठोस परिणाम नहीं दिखा। इसलिए “हर परिवार को नौकरी” वाला नया वादा जनता में विश्वसनीयता की परीक्षा बनेगा।
यदि इस घोषणा का उद्देश्य वास्तव में बेरोजगारी घटाना है, तो इसके लिए कुछ व्यवहार्य उपाय संभव होगा। राज्य स्तरीय “रोजगार गारंटी मिशन”- जिसमें सरकारी नौकरी नहीं, बल्कि सरकारी प्रायोजित रोजगार (public works, skill-based contracts) दिए जाएँ। कौशल आधारित रोजगार योजना- युवाओं को प्रशिक्षण देकर निजी कंपनियों में प्लेसमेंट की गारंटी दिए जाएँ। स्टार्टअप एवं उद्यमिता सहायता- हर परिवार को नौकरी देने के बजाय, “हर परिवार को आजीविका” की दिशा में प्रोत्साहन। डिजिटल नौकरियों का सृजन- आईटी, ई-गवर्नेंस, ग्रामीण सेवा केंद्रों के माध्यम से नए पद। इस प्रकार की नीतियाँ आर्थिक रूप से अधिक यथार्थवादी और संवैधानिक रूप से सुरक्षित होगी।
तेजस्वी यादव का “हर परिवार को सरकारी नौकरी” देने का वादा निश्चित रूप से राजनीतिक दृष्टि से ऐतिहासिक और जनभावनात्मक है। यह गरीब और बेरोजगार तबके के लिए आशा की किरण जैसा प्रतीत होता है। लेकिन, जब इसे आर्थिक, प्रशासनिक और संवैधानिक दृष्टि से परखा जाता है, तो यह घोषणा व्यवहारिकता की कसौटी पर टिकती नहीं दिखती है। क्योंकि राज्य का सीमित बजट, प्रशासनिक ढांचे की क्षमता, आरक्षण नीति की बाध्यता और संवैधानिक प्रावधानों की मर्यादा, इन सबके कारण यह योजना वास्तविकता से अधिक कल्पना बन जाती है। यदि राजद वास्तव में इस दिशा में कोई ठोस नीति बनाना चाहता है, तो उसे “हर परिवार को नौकरी” नहीं, बल्कि “हर परिवार को आजीविका का अवसर” के रूप में नीति बनानी होगी। यही मार्ग संवैधानिक भी है, व्यावहारिक भी और टिकाऊ भी।
