आभा सिन्हा, पटना
भारत की पवित्र भूमि अनादिकाल से देवी उपासना की जननी रही है। यहां हर पर्वत, हर नदी, हर घाटी और हर ग्राम में देवी की कोई न कोई शक्ति स्वरूप प्रतिष्ठित है। इन्हीं महाशक्ति स्थलों में से एक है “मंगल चंडिका शक्तिपीठ”, जो पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर गुस्कुरा स्टेशन के समीप उज्जयिनी नामक स्थान पर अवस्थित है। यह वह स्थान है जहाँ देवी सती की दायीं कलाई गिरी थी। यहाँ माता मंगल चंडिका के रूप में पूजित हैं और उनके भैरव कपिलांबर के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह स्थल शक्ति उपासना के उन तीर्थों में से एक है जहाँ श्रद्धा और साधना के साथ मंगल और सौभाग्य का संगम होता है।
शक्तिपीठों की कथा देवी पुराण, कल्पद्रुमा, तंत्रचूड़ामणि, और अन्य पुराणों में विस्तार से वर्णित है। देवी सती जब अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित होकर स्वयं अग्नि में समाहित हो गईं, तब भगवान शिव क्रोधित होकर उनका शव लेकर पूरे ब्रह्मांड में विचरण करने लगे। भगवान विष्णु ने सृष्टि के संतुलन हेतु अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के अंगों को खंड-खंड कर दिया। जहाँ-जहाँ माता के अंग, आभूषण या वस्त्र के अंश गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई। कहा जाता है कि कुल 51 शक्तिपीठ ऐसे हैं जो पृथ्वी पर शक्ति के विविध रूपों में पूजित हैं। इन्हीं में से एक प्रमुख स्थल है मंगल चंडिका शक्तिपीठ, जहाँ देवी की “दायीं कलाई” गिरी थी। “कलाई” का अर्थ है कर्म का अंग, यह संकेत करता है कि यहाँ की देवी साधक को सद्कर्म, सफलता और मंगलमय जीवन का वरदान देती हैं।
उज्जयिनी, जहाँ यह शक्तिपीठ स्थित है, वर्धमान जिले के गुस्कुरा स्टेशन से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह क्षेत्र बंगाल की उपजाऊ धरती पर बसा हुआ है, जहाँ इतिहास, संस्कृति और आध्यात्मिकता का संगम देखा जा सकता है। यह स्थान कभी सप्तग्राम व्यापारिक मार्ग से जुड़ा हुआ था, जिसके माध्यम से बंगाल के व्यापारी गंगातटीय इलाकों में व्यापार करते थे। पास ही बहती अजय नदी इस स्थल को जल, जीवन और जप का आधार देती है। ग्रामीण अंचल में बसे इस पवित्र स्थान की शांत वसुंधरा आज भी भक्तों को आत्मिक शांति और आस्था का अनुभव कराती है।
मंगल चंडिका, नाम से ही स्पष्ट है, वह देवी जो मंगल का दान करती हैं, परंतु चंडिका स्वरूप में अधर्म का नाश करती हैं। यह द्वैत रूप, कोमलता और प्रचंडता, ही शक्ति का सार है। देवी के स्वरूप का वर्णन तंत्रचूड़ामणि ग्रंथ में इस प्रकार किया गया है – “चण्डिका च मंगलारूपा, करुणा च क्रोधसंयुता। भक्तानां मंगलं दद्यात्, दुष्टानां च विनाशिनी॥” अर्थात् जो भक्तों को करुणा और मंगल प्रदान करती हैं वही दुष्टों का नाश करने वाली चंडिका हैं।
यहां की मूर्ति अत्यंत शांतमयी है, माता की चार भुजाएँ हैं, जिनमें वे त्रिशूल, कमल, वरमुद्रा और अभयमुद्रा धारण करती हैं। उनकी नेत्र राग और शक्ति दोनों से आलोकित हैं। स्थानीय मान्यता है कि माता के दर्शन से मनुष्य के जीवन में मंगल, संतान सुख, और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।
हर शक्तिपीठ में भैरव की उपस्थिति अनिवार्य होती है, क्योंकि वे शक्ति के रक्षक हैं। मंगल चंडिका पीठ के भैरव हैं कपिलांबर। ‘कपिल’ का अर्थ है ज्ञान, और ‘अंबर’ का अर्थ है आकाश या वस्त्र। अर्थात् कपिलांबर वह हैं जो ज्ञानरूपी वस्त्र धारण करते हैं। यह संकेत देता है कि यहां शक्ति और ज्ञान दोनों का संगम होता है। भैरव कपिलांबर के मंदिर में ध्यान, तंत्र साधना और रात्रिकालीन पूजा का विशेष महत्व है। भक्त पहले भैरव का दर्शन करते हैं, तत्पश्चात् माता की आराधना पूर्ण मानी जाती है।
देवी भागवत, कालिका पुराण और शिवचरित में मंगल चंडिका पीठ का उल्लेख मिलता है। देवी भागवत के अनुसार, “दक्षस्य यज्ञविध्वंसे सतीदेह विभाजनम्। दक्षिण कराङ्गुली या गता, तत्र मंगल चण्डिका वसेत्॥”
इस श्लोक के अनुसार सती की दायीं कलाई जहाँ गिरी, वहाँ देवी मंगल चंडिका का वास हुआ। वहां शक्ति रूप में माता और शिव रूप में कपिलांबर भैरव पूजित हैं। यह स्थल तंत्र साधना की दृष्टि से अत्यंत प्रभावी माना गया है।
मंगल चंडिका शक्तिपीठ को कर्म और तंत्र के संयोग का केंद्र माना जाता है। कलाई कर्म का प्रतीक है, अतः यहाँ साधक अपने कर्म को शुद्ध कर सकते हैं। तांत्रिक मत के अनुसार, यहाँ की शक्ति “मूलाधार” से “मणिपुर” चक्र तक की ऊर्जा को जागृत करती है। यह जागृति साधक को स्थिरता, साहस और निर्णय शक्ति देती है। इस पीठ पर नवरात्रि, कौमुदी पूर्णिमा और चैत्र शुक्ल अष्टमी के अवसर पर तांत्रिक साधक विशेष पूजा करते हैं।
मंदिर का प्राचीन स्वरूप बहुत ही साधारण लेकिन आध्यात्मिक प्रभाव से परिपूर्ण है। मुख्य गर्भगृह में माता मंगल चंडिका की प्रतिमा विराजमान है। उनके समीप भैरव कपिलांबर का मंदिर है। मुख्य द्वार पर घंटियों की श्रृंखला लटकी रहती है, जिन्हें भक्त अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर बजाते हैं। मंदिर परिसर में एक अमृतकुंड भी है, जिसे “चंडी सरोवर” कहा जाता है। कहा जाता है कि इस सरोवर का जल औषधीय गुणों से युक्त है। मंदिर के चारों ओर बेल, तुलसी, अशोक, और पीपल के वृक्ष हैं, जो वातावरण को पवित्र बनाते हैं। मंदिर में दैनिक आरती के समय घंटा, शंख, ढोल और कर्पूर की सुगंध चारों दिशाओं में गूंज उठती है।
स्थानीय लोगों के बीच कई रोचक कथाएँ प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार, एक बार गांव में भयंकर महामारी फैली। गांव के एक वृद्ध साधु ने माता के मंदिर में एक सप्ताह तक अखंड दीप जलाकर प्रार्थना की। सप्ताह के अंत में महामारी समाप्त हो गई और गांव में मंगल छा गया। तब से माता का नाम “मंगल चंडिका” प्रसिद्ध हुआ। दूसरी कथा में कहा गया है कि एक बार एक कुष्ठ रोगी महिला ने अजय नदी में स्नान कर माता से प्रार्थना की।
उसी रात उसे स्वप्न में माता ने दर्शन दिए और कहा कि “सच्ची श्रद्धा से भैरव का नाम लो और मेरी कलाई के दर्शन करो।” सुबह होते ही उसका रोग दूर हो गया। यह कथा आज भी उज्जयिनी में सुनाई जाती है।
मंगल चंडिका पीठ में दर्शन का क्रम बहुत ही शास्त्रीय है। पहले भैरव कपिलांबर का दर्शन किया जाता है। तत्पश्चात् माता मंगल चंडिका के गर्भगृह में प्रवेश कर पुष्प, दीप और नैवेद्य अर्पित किया जाता है। भक्त विशेष रूप से लाल पुष्प, चंदन, और सिंदूर चढ़ाते हैं। मंगलवार, शुक्रवार, और नवरात्रि के दिन यहाँ भक्तों की भीड़ उमड़ती है। भक्त यह मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति जीवन में असफलताओं से जूझ रहा हो या उसके कर्म में रुकावटें हों, तो वह यहाँ माता से “कर्म-सिद्धि” की प्रार्थना करे, शीघ्र ही उसे मार्ग मिलता है।
नवरात्रि के समय यह शक्तिपीठ भक्ति और उत्साह का केंद्र बन जाता है। पूरे नौ दिनों तक भव्य अनुष्ठान, यज्ञ, हवन, भजन-कीर्तन, और देवी झांकी का आयोजन होता है। मंदिर प्रांगण में देवी का महाभिषेक किया जाता है और रात्रि में गरबा और आरती के स्वर गूंजते हैं। अष्टमी के दिन कन्या पूजन का विशेष आयोजन होता है। हजारों भक्त दूर-दूर से यहाँ पहुँचते हैं, बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, असम, बिहार और यहां तक कि नेपाल से भी।
जो यात्री इस पवित्र पीठ की यात्रा करना चाहते हैं, वे वर्धमान (Burdwan) रेलवे स्टेशन या गुस्कुरा स्टेशन तक रेल से पहुँच सकते हैं। वहाँ से उज्जयिनी तक स्थानीय वाहन आसानी से उपलब्ध होते हैं। सड़क मार्ग से कोलकाता से लगभग 125 किलोमीटर की दूरी है। सड़क सुंदर और ग्रामीण दृश्यों से भरी है। खेत, तालाब, और नारियल के पेड़ इस यात्रा को दिव्य अनुभव बना देता है।
भक्तों के अनुभवों के अनुसार, इस पीठ पर दर्शन करने से पारिवारिक कलह समाप्त होते हैं, आर्थिक स्थिरता प्राप्त होती है, संतान प्राप्ति और स्वास्थ्य की कामना पूर्ण होती है, साधना में स्थिरता आती है, मानसिक शांति और आत्मविश्वास बढ़ता है। यह स्थल केवल भौतिक दृष्टि से नहीं, बल्कि आत्मिक उत्थान का स्थान है। भक्त जब “जय मंगल चंडिका माता” का उच्चारण करते हैं, तो मन में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार होता है।
‘मंगल’ का अर्थ है शुभ, कल्याणकारी, और स्थायी शांति देने वाली शक्ति। ‘चंडिका’ का अर्थ है प्रचंड, जो अधर्म का नाश करती है। जब दोनों का संगम होता है, तो परिणामस्वरूप “मंगल चंडिका” रूप में शक्ति का अद्भुत संतुलन प्रकट होता है। यह रूप सिखाता है कि “शक्ति केवल संहार नहीं, सृजन का माध्यम भी है।” मंगल चंडिका पीठ इसी दार्शनिक समरसता का प्रतीक है।
उज्जयिनी क्षेत्र के लोकगीतों, नाट्यकथाओं और त्योहारों में माता मंगल चंडिका का विशेष स्थान है। ग्रामीण महिलाएँ हर मंगलवार को माता का व्रत रखती हैं। वे अपने घरों के सामने अल्पना (रंगोली) बनाकर माता का नाम लिखती हैं “शुभ मंगल चंडी की जय।” कृषि के आरंभ में किसान यहाँ प्रसाद चढ़ाकर बीज बोते हैं। यह माना जाता है कि माता की कृपा से फसल समृद्ध होती है।
हर शक्तिपीठ की एक अद्वितीय भूमिका होती है। मंगल चंडिका पीठ की विशेषता यह है कि यह भक्त के कर्म और ईश्वर की कृपा के बीच सेतु का कार्य करती है। जो भी व्यक्ति अपने जीवन में दिशा खो चुका हो, वह यहाँ आकर नई ऊर्जा प्राप्त करता है। यह स्थान सिखाता है कि “सच्चा मंगल वही है जो चंडिका की अग्नि में तपकर निर्मल बने।”
मंगल चंडिका शक्तिपीठ केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन के मंगल, संघर्ष और साधना का प्रतीक है। यहाँ की हर ईंट, हर दीप, हर फूल इस सत्य की गवाही देता है कि भक्ति में चंडिका का चमत्कार और मंगल का वरदान दोनों विद्यमान हैं। भक्त जब माता के चरणों में प्रणाम करता है, तो वह केवल पूजा नहीं करता, वह अपने भीतर की शक्ति को पहचानता है।
