सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) के सदस्यों पर लागू नहीं होता है। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने यह निर्णय देते हुए हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में बेटियों को संपत्ति का अधिकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत देने का निर्देश दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा है कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) के अनुसार, यह कानून संविधान के अनुच्छेद 366(25) के तहत आने वाली अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों पर तब तक लागू नहीं होता है जब तक केंद्र सरकार आधिकारिक राजपत्र में इसके लिए विशेष अधिसूचना जारी न करे। पीठ ने कहा है कि संसद ने जानबूझकर अनुसूचित जनजातियों को इस कानून से बाहर रखा है ताकि उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक और पारंपरिक प्रथाओं की रक्षा की जा सके।
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अपने पूर्व आदेश में कहा था कि राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में महिलाओं को संपत्ति का समान अधिकार मिलना चाहिए और उन्हें भी बेटों की तरह संपत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए। हाईकोर्ट का मानना था कि इससे सामाजिक अन्याय और भेदभाव को रोका जा सकेगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान और कानून की मंशा के विपरीत बताया। अदालत ने कहा कि किसी भी प्रथागत कानून को तब तक रद्द नहीं किया जा सकता है जब तक कि केंद्र सरकार अधिसूचना जारी कर यह स्पष्ट न कर दे कि संबंधित कानून अनुसूचित जनजातियों पर लागू होगा।
संविधान में अनुसूचित जनजातियों को विशेष दर्जा इसलिए दिया गया है ताकि उनकी सांस्कृतिक पहचान, परंपरा और सामाजिक ढांचे को बनाए रखा जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जनजातीय समाज की प्रथाएं और परंपराएं हजारों वर्षों से चली आ रही हैं, जिन्हें कानून के माध्यम से अचानक बदलना उचित नहीं होगा। ऐसे मामलों में बदलाव का अधिकार केवल विधायिका और केंद्र सरकार को है, न्यायालय को नहीं।
यह निर्णय पूरे देश के जनजातीय समुदायों पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। इसका मतलब यह है कि अब जनजातीय क्षेत्रों में उत्तराधिकार संबंधी विवाद उनके प्रथागत कानूनों के अनुसार ही निपटाए जाएंगे, न कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत। हालांकि, इससे महिलाओं के अधिकारों को लेकर फिर से बहस तेज हो सकती है, क्योंकि कई जनजातीय परंपराओं में आज भी महिलाओं को संपत्ति में बराबरी का अधिकार नहीं मिलता है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक बार फिर इस मूलभूत सिद्धांत को रेखांकित करता है कि भारत विविधताओं का देश है, और हर समुदाय को अपनी परंपराओं के अनुरूप जीने का संवैधानिक अधिकार है। न्याय और समानता के दृष्टिकोण से यह भी आवश्यक है कि सरकार समय-समय पर यह समीक्षा करे कि क्या इन प्रथागत कानूनों के अंतर्गत महिलाओं और कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा पर्याप्त रूप से हो रही है या नहीं।
