तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर. एन. रवि के बीच एक बार फिर टकराव का नया अध्याय खुल गया है। इस बार विवाद का केंद्र ‘कलैगनार विश्वविद्यालय विधेयक, 2025’ है, जिसे राज्यपाल ने मंजूरी देने की बजाय राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज दिया है। इस फैसले को राज्य सरकार ने संविधान की संघीय भावना के विपरीत बताते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।
तमिलनाडु सरकार ने कुछ माह पूर्व “कलैगनार विश्वविद्यालय विधेयक, 2025” विधानसभा में पारित किया था। यह विश्वविद्यालय राज्य के प्रसिद्ध नेता और पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि की स्मृति में स्थापित किया जाना प्रस्तावित है। विधेयक के अनुसार, यह विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा, शोध और सामाजिक न्याय के मूल्यों को बढ़ावा देने का कार्य करेगा। राज्यपाल आर. एन. रवि ने इस विधेयक को मंजूरी देने के बजाय इसे राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख लिया है, यह कहते हुए कि इसका विषय उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों से जुड़ा है, जिस पर केंद्र का अधिकार क्षेत्र भी लागू होता है।
राज्य सरकार का कहना है कि यह कदम संविधान के अनुच्छेद 200 की भावना के खिलाफ है। अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल किसी विधेयक को तीन विकल्पों में से चुन सकते हैं मंजूरी देना, अस्वीकार करना, या राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना। लेकिन सरकार का तर्क है कि राज्यपाल यह शक्ति मनमाने ढंग से नहीं, बल्कि मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही प्रयोग कर सकता है। तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में कहा है कि राज्यपाल का निर्णय संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन है और इसे "आरंभ से ही अमान्य" घोषित किया जाना चाहिए।
यह विवाद तमिलनाडु में नया नहीं है। इससे पहले भी राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच कई विधेयकों पर टकराव हो चुका है, विशेष रूप से राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति, नीट परीक्षा के खिलाफ विधेयक, और राज्यपाल के भाषण में संशोधन जैसे मामलों में। डीएमके सरकार का आरोप है कि राज्यपाल “राज्य की नीतिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप” कर रहे हैं और “संविधानिक परंपरा का अपमान” कर रहे हैं।
यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक बड़े संवैधानिक प्रश्न के रूप में उभर सकता है, क्या राज्यपाल राष्ट्रपति को विचारार्थ विधेयक भेजने का निर्णय स्वयं ले सकते हैं या उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करना होगा? विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्णय न केवल तमिलनाडु बल्कि अन्य राज्यों के लिए भी संविधानिक मर्यादा तय करने वाला साबित हो सकता है, क्योंकि हाल के वर्षों में कई राज्यों में इसी प्रकार के विवाद सामने आए हैं।
तमिलनाडु सरकार का सुप्रीम कोर्ट जाना सिर्फ एक विश्वविद्यालय विधेयक का मामला नहीं है, बल्कि यह संविधानिक स्वायत्तता बनाम संघीय नियंत्रण की बहस को फिर से जीवित करता है। अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं, जो तय करेगा कि क्या राज्यपालों की भूमिका एक औपचारिक संवैधानिक प्रमुख की रहनी चाहिए या वे राज्य शासन में निर्णायक शक्ति रखते हैं। यह फैसला आने वाले समय में केंद्र-राज्य संबंधों की दिशा तय कर सकता है।
