पाकिस्तान इस समय कई गंभीर संकटों के भंवर में फंसा हुआ है। अफगान सीमा पर तालिबान के साथ झड़पें लगातार बढ़ रही हैं, बलूचिस्तान में विद्रोह उग्र रूप ले चुका है और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में जनता खुलेआम विरोध प्रदर्शन कर रही है। देश की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति पहले से ही डगमगाई हुई है, ऐसे में इन मोर्चों पर अस्थिरता ने पाकिस्तान की नींव को और कमजोर कर दिया है।
अफगानिस्तान की सीमा पर बीते कुछ दिनों में पाकिस्तान और तालिबान के बीच तीव्र संघर्ष हुआ। गोलीबारी और मोर्टार हमलों में कई सैनिकों और नागरिकों की मौत की खबरें आईं। हालात इतने बिगड़ गए कि दोनों पक्षों को 48 घंटे के लिए युद्धविराम घोषित करना पड़ा। पाकिस्तान का आरोप है कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के कई कमांडर अफगानिस्तान में पनाह लिए हुए हैं और वहीं से पाकिस्तान में आतंकी हमलों की योजना बना रहे हैं। तालिबान इन आरोपों को खारिज करता है, लेकिन सीमा पार हमले लगातार हो रहे हैं जिससे दोनों देशों के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हो गए हैं।
बलूचिस्तान का मुद्दा भी पाकिस्तान सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। यह इलाका खनिज और प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है, लेकिन स्थानीय लोगों को आज भी विकास और अधिकारों से वंचित रखा गया है। इस असमानता ने दशकों से चल रहे अलगाववादी आंदोलन को हवा दी है। बलूच विद्रोही अब सिर्फ सरकारी प्रतिष्ठानों पर ही नहीं, बल्कि विदेशी निवेश परियोजनाओं पर भी हमला कर रहे हैं। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) परियोजना भी इन हमलों के कारण ठप पड़ी है, जिससे चीन ने अपने निवेश को लेकर चिंता जताई है।
दूसरी ओर, पीओके में भी असंतोष गहराता जा रहा है। वहाँ के लोग बिजली, पानी और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए सड़कों पर उतर आए हैं। पाकिस्तान की केंद्रीय सरकार पर आरोप है कि उसने पीओके को सिर्फ एक राजनीतिक प्रतीक बना रखा है, लेकिन वहां के लोगों के जीवनस्तर को सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया। विरोध प्रदर्शन लगातार बढ़ रहे हैं और सुरक्षा बलों की कार्रवाई ने जनता के गुस्से को और बढ़ा दिया है।
आंतरिक रूप से पाकिस्तान की राजनीतिक स्थिति भी चरमरा गई है। सेना और सियासी नेतृत्व के बीच खींचतान खुलकर सामने आ गई है। जनरल आसिम मुनीर के नेतृत्व में सेना अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश कर रही है, लेकिन जनता में सेना की साख लगातार गिर रही है। इमरान खान के समर्थक सेना और सरकार दोनों के खिलाफ नाराज हैं।
आर्थिक हालात पहले से ही बदतर हैं — विदेशी मुद्रा भंडार कम है, महंगाई चरम पर है और निवेशक पाकिस्तान से दूर भाग रहे हैं। डॉलर की कीमत बढ़ने से आम जनता की हालत और खराब हो गई है। चीन, जो अब तक पाकिस्तान का सबसे बड़ा समर्थक था, अब निवेश करने में सावधानी बरत रहा है क्योंकि उसे राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ते आतंकी खतरों से नुकसान का डर है।
इन तमाम संकटों का परिणाम यह है कि पाकिस्तान एक ऐसे दौर में पहुंच गया है जहां उसकी एकता और स्थिरता पर सवाल खड़े हो गए हैं। तालिबान की चुनौती, बलूचिस्तान का विद्रोह, पीओके में जनता का असंतोष, सेना की साख में गिरावट और आर्थिक तबाही — ये सब अलग-अलग संकट नहीं हैं, बल्कि एक गहरे राष्ट्रीय संकट के हिस्से हैं। विश्लेषकों का मानना है कि आज पाकिस्तान अपने इतिहास के सबसे नाजुक मोड़ पर खड़ा है, जहां गलत कदम उसे पूरी तरह अस्थिर कर सकता है।
