“नारायणी शक्तिपीठ” देवी सती का ऊर्ध्वदंत (ऊपरी दांत) गिरा था

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना 

भारतीय उपमहाद्वीप के प्रत्येक कोने में देवी के प्रति भक्ति का अद्भुत भाव देखा जाता है। यह भाव केवल पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय जीवन का हिस्सा बन चुका है। ऐसी ही अद्भुत भक्ति का प्रतीक है “नारायणी शक्तिपीठ”, जो तमिलनाडु की पवित्र धरती पर स्थित है। कन्याकुमारी से तिरुवनंतपुरम जाने वाले मार्ग पर स्थित यह पवित्र स्थान ‘शुचितीर्थम शिव मंदिर’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहीं माता सती के ऊर्ध्वदंत (ऊपरी दांत) गिरा था। इसी कारण यह स्थान 51 शक्तिपीठों में एक अत्यंत पूजनीय तीर्थ माना जाता है। इसकी अधिष्ठात्री देवी हैं श्री नारायणी, और इनके भैरव रूप को संहार कहा जाता है। यह स्थान न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्ता से भी अनुपम है।

देवी भागवत और कलिका पुराण में वर्णित कथा के अनुसार, सती के शरीर से शक्तिपीठों की स्थापना हुई। जब भगवान शिव ने सती के देह त्याग के बाद शोक में उनका शरीर लेकर सृष्टि के कोने-कोने में विचरण किया, तब ब्रह्मांड की गति रुक गई। सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को विभाजित कर दिया। जहाँ-जहाँ उनके अंग, आभूषण या वस्त्र गिरे, वहाँ-वहाँ देवी के शक्तिपीठ स्थापित हुए। इन्हीं पवित्र स्थलों में से एक है “नारायणी शक्तिपीठ”, जहाँ माता का ऊर्ध्वदंत गिरा था। माना जाता है कि इस दंत के गिरने से भूमि पर ऐसी शक्ति प्रवाहित हुई जिसने इस स्थान को सदा के लिए दिव्य बना दिया।

“नारायणी शक्तिपीठ” तमिलनाडु के कन्याकुमारी और तिरुवनंतपुरम के मध्य मार्ग पर स्थित है। यहाँ शुचितीर्थम शिव मंदिर देवी उपासना का केंद्र माना जाता है। यह स्थान तीन सागरों हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के मिलन स्थल के समीप स्थित है, जिससे इसका धार्मिक महत्व और भी बढ़ जाता है। कहा जाता है कि जब समुद्री लहरें यहाँ के तट से टकराती हैं, तो उनका संगीत देवी के नाम का जप प्रतीत होता है। तीर्थयात्री यहाँ आकर शुद्धिकरण स्नान करते हैं, फिर मंदिर में देवी नारायणी और भैरव संहार की पूजा करते हैं।

‘नारायणी’ शब्द में गहराई से देखें तो इसका अर्थ है वह जो नारायण की अधिष्ठात्री शक्ति हैं। देवी नारायणी को लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती तीनों शक्तियों का सम्मिलित रूप माना गया है। वे सृष्टि, पालन और संहार, तीनों क्रियाओं का संचालन करती हैं।

भैरव संहार उनके साथ विराजमान हैं। संहार का अर्थ है, वह जो अधर्म और अंधकार का अंत करे। इस प्रकार यह शक्तिपीठ संतुलन और समरसता का प्रतीक है, जहाँ देवी का करुणा और शक्ति दोनों रूपों का समन्वय मिलता है।

“शुचि” का अर्थ है “पवित्र” और यही इस तीर्थ का सार है। कहा जाता है कि यहाँ की भूमि में स्नान करने से तन और मन दोनों निर्मल हो जाता है। अनेक साधक इस स्थान पर ध्यान और तपस्या करने आते हैं। मंदिर परिसर समुद्र की ठंडी हवाओं से सराबोर रहता है। चारों ओर नारियल और केले के वृक्षों की हरियाली, लहरों की गूंज और शंखनाद का स्वर, सब मिलकर एक अलौकिक वातावरण बनाता है। यहाँ की संध्याएं इतनी मनोहर हैं कि भक्त कहते हैं कि “मानो स्वयं देवी सूर्यास्त की लाली में अपना आभामंडल बिखेर रही हों।”

देवी सती ने जब अपने पिता दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह किया, तब उनका मुखमंडल अद्भुत तेज से प्रज्वलित हो उठा। जब भगवान शिव उनके शरीर को लेकर चल रहे थे, तभी सुदर्शन चक्र के प्रभाव से उनका ऊर्ध्वदंत इस स्थान पर गिरा। उस क्षण धरती कांप उठी, आकाश में दिव्य प्रकाश फैल गया और समुद्र की लहरों ने भी माता की जयघोष किया।

माना जाता है कि जब देवी का दंत गिरा, तो उसकी ऊर्जा इतनी तीव्र थी कि समुद्र में उथल-पुथल मच गई। तब भगवान शिव ने संहार भैरव का रूप धारण किया और उस ऊर्जा को स्थिर किया। तभी से यह स्थान संहार भैरव की तपोभूमि बन गया।

स्थानीय जनश्रुति के अनुसार, एक समय एक साधक नारायण नामक ब्राह्मण यहाँ तपस्या कर रहे थे। देवी उनकी भक्ति से प्रसन्न हुईं और उन्हें दर्शन देकर वरदान दिया कि “आज से यह स्थान ‘नारायणी’ नाम से प्रसिद्ध होगा।” इसी कथा के अनुसार इस पीठ का नाम “नारायणी शक्तिपीठ” पड़ा।

नारायणी मंदिर की वास्तु-दृष्टि से यह दक्षिण भारतीय स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। गोपुरम (मुख्य द्वार) पर देवी के विविध रूपों की मूर्तियाँ अंकित हैं, कहीं महाकाली, कहीं अन्नपूर्णा, कहीं भद्रकाली। मुख्य गर्भगृह में श्री नारायणी देवी की प्रतिमा सुवर्ण आभूषणों से सजी हुई है। देवी का मुखमंडल शांति से पूर्ण है, परन्तु उनके नेत्रों में अद्भुत तेज झलकता है। भैरव संहार का मंदिर गर्भगृह के समीप ही स्थित है, जहाँ दीपक सदा प्रज्वलित रहता है। मंदिर परिसर में एक पवित्र कुंड भी है, जिसे ‘शुचि सरोवर’ कहा जाता है। कहा जाता है कि इसमें स्नान करने से सभी पाप नष्ट हो जाता है।

यहाँ पूरे वर्ष देवी उपासना होती है, परंतु विशेष रूप से नवरात्र, चैत्र पूर्णिमा और दीपावली के समय यहाँ हजारों भक्तों की भीड़ उमड़ती है। नवरात्र में मंदिर को पुष्पों और दीपों से सजाया जाता है, और देवी का शोभायात्रा समुद्र तट तक जाती है। देवी के भोग में नारियल, केला, शहद और दूध प्रमुख रूप से चढ़ाया जाता है। स्थानीय लोग विशेषतः तामिल भक्ति गीतों के माध्यम से देवी की स्तुति करते हैं। प्रत्येक शुक्रवार को शक्ति पूजा होती है, जिसमें महिलाएँ लाल वस्त्र धारण कर देवी से अपने परिवार की मंगलकामना करती हैं।

भक्तों का मानना है कि जो व्यक्ति सच्चे मन से यहाँ आकर देवी की आराधना करता है, उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। यहाँ की शक्ति ऐसी मानी जाती है जो मन की दुर्बलता, भय और मोह का नाश करती है। अनेक साधकों ने बताया है कि उन्हें यहाँ ध्यान के समय स्वयं देवी के दर्शन या सुगंध का अनुभव हुआ है। यह स्थान कुंडलिनी शक्ति जागरण के लिए भी उपयुक्त माना जाता है। यहाँ ध्यान करने से सहस्रार चक्र सक्रिय होता है और साधक में दिव्य चेतना का संचार होता है।

भारत के 51 शक्तिपीठों में प्रत्येक की अपनी विशेषता है। जैसे कामाख्या में मातृशक्ति का योनिरूप, काशी की विशालाक्षी में ज्ञान की देवी, हिंगलाज में रक्षण शक्ति और नारायणी में करुणा एव संहार शक्ति का संगम है। यहाँ देवी न केवल दयामयी हैं बल्कि वे जीवन के संतुलन की प्रतीक भी हैं। नारायणी शक्तिपीठ को “दक्षिण का शांत काशी” भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ की साधना मौन और ध्यान प्रधान होती है।

‘नारायणी’ का अर्थ केवल स्त्री रूप में नारायण की शक्ति नहीं है, बल्कि वह सर्वव्यापक चेतना है जो पुरुष और प्रकृति दोनों को जोड़ती है। जब ‘नारायण-नारायणी’ कहते हैं, तो उसका अर्थ है, सृष्टि की दो ध्रुवीय शक्तियाँ,  स्थिरता और गतिकता। इस शक्तिपीठ में यही दर्शन जीवंत है। यहाँ आने वाले साधक केवल पूजा नहीं करते हैं, बल्कि दिव्यता के संतुलन का अनुभव करते हैं। देवी का संहार रूप यह सिखाता है कि नकारात्मकता का विनाश आवश्यक है, तभी सृष्टि में संतुलन बना रह सकता है।

कहा जाता है कि एक बार समुद्री तूफान के समय पूरे क्षेत्र में विनाश फैल गया, परंतु नारायणी मंदिर को कोई क्षति नहीं पहुँची।

एक अन्य कथा के अनुसार, एक मछुआरे को समुद्र में देवी की प्रतिमा मिली। उसने उसे मंदिर में चढ़ाया, तब से उसकी नाव कभी डूबी नहीं।

कई बार भक्तों ने यहाँ दीपक को बिना तेल के जलते देखा है, जिसे चमत्कार माना गया। ये घटनाएँ केवल आस्था नहीं है, बल्कि उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति है जो इस भूमि में रची-बसी है।

नारायणी शक्तिपीठ केवल धार्मिक नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक भी है। यहाँ के उत्सवों में भरतनाट्यम और कथकली जैसे नृत्य रूपों में देवी की कथा प्रस्तुत की जाती है। इतिहासकारों का मानना है कि यह स्थल चोल व पांड्य राजाओं के समय से देवी उपासना का केंद्र रहा है। यहाँ शिलालेखों में संस्कृत और तमिल दोनों भाषाओं में देवी के स्तोत्र अंकित हैं, जो दक्षिण भारत की समृद्ध धार्मिक परंपरा का प्रमाण हैं।

आज यह शक्तिपीठ न केवल तमिलनाडु, बल्कि पूरे भारत से आने वाले भक्तों का केंद्र बन चुका है। सरकार और स्थानीय ट्रस्ट द्वारा मंदिर परिसर का सौंदर्यीकरण किया गया है। पर्यटकों के लिए आवास, ध्यान केंद्र, पुस्तकालय और प्रसाद गृह की व्यवस्था है। यहाँ आने वाले विदेशी पर्यटक भी भारतीय आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर योग और ध्यान शिविरों में भाग लेते हैं। इस प्रकार यह स्थान आज आस्था और पर्यटन दोनों का संगम बन गया है।

देवी का रूप सिखाता है कि जीवन में सृजन और संहार दोनों आवश्यक हैं। नारायणी का स्वरूप करुणामयी है, पर अन्याय के विरुद्ध वे दृढ़ हैं। शुचितीर्थम बताता है कि पवित्रता केवल बाह्य नहीं, आंतरिक भी होनी चाहिए। देवी के चरणों में बैठना केवल पूजा नहीं है, बल्कि आत्मजागरण की प्रक्रिया है।

इस क्षेत्र में तीन सागरों का संगम होने के कारण यहाँ का पर्यावरण अत्यंत संवेदनशील है। स्थानीय पुजारी और भक्तों ने मिलकर यह नियम बनाया है कि मंदिर परिसर में कोई भी प्लास्टिक सामग्री नहीं लाई जाएगी। यहाँ पेड़-पौधों को देवी का रूप मानकर पूजा जाता है। देवी की “शुचिता” केवल धार्मिक नहीं, बल्कि पर्यावरणीय शुद्धता का प्रतीक भी बन चुका है।

कई भक्तों के अनुभव इस शक्तिपीठ की दिव्यता का प्रमाण हैं। एक वृद्धा ने बताया कि उसके वर्षों से खोए पुत्र का समाचार उसे देवी की आराधना के बाद मिला। एक व्यापारी ने कहा कि वह जब कठिन कर्ज में डूबा था, तब देवी से प्रार्थना करने के बाद उसका व्यापार फिर से चल पड़ा। कई स्त्रियों ने यहाँ संतान प्राप्ति और गृहशांति की कामना की और फल प्राप्त किया। ऐसे अनुभव इस स्थान को केवल मंदिर नहीं, बल्कि विश्वास की जीवंत ऊर्जा केंद्र बनाता है।

नारायणी शक्तिपीठ केवल एक तीर्थ नहीं है, यह दैवीय ऊर्जा का केंद्र है, जहाँ भक्त को शांति, साधक को सिद्धि और साधारण जन को श्रद्धा मिलती है। यह स्थान यह संदेश देता है कि जब मन शुद्ध हो और भक्ति अडिग, तब स्वयं देवी हमारे समीप प्रकट होती हैं। कन्याकुमारी की इस पवित्र भूमि पर जब सूर्यास्त के समय लहरें नारायणी के चरणों को स्पर्श करती हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे स्वयं प्रकृति देवी की आराधना कर रही हो।

“नारायणी शक्तिपीठ” जहाँ समुद्र की लहरें देवी के नाम का जप करती हैं, जहाँ श्रद्धा और शांति का संगम होता है, और जहाँ हर भक्त अपने भीतर की शक्ति को पहचानता है। यह स्थान सदा स्मरण दिलाता है कि “शक्ति सदा हमारे भीतर है, बस उसे जागृत करने के लिए नारायणी का आशीर्वाद चाहिए।”।



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