“फुल्लरा शक्तिपीठ” देवी सती का ओष्ठ (होंठ) गिरा था

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना

भारत भूमि को देवभूमि कहा जाता है क्योंकि यहाँ प्रत्येक पर्वत, नदी, वृक्ष और ग्राम किसी न किसी देवता या देवी से जुड़ा हुआ है। देवी शक्ति के 51 शक्तिपीठों में से एक है  “फुल्लरा शक्तिपीठ”, जो पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में स्थित है। यहाँ माता सती के ओष्ठ (होंठ) गिरे थे, और इसी कारण यह स्थान अट्टहास शक्तिपीठ नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। देवी का यह रूप फुल्लरा कहलाती हैं और यहाँ विराजमान भैरव हैं विश्वेश।

यह स्थान जितना धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, उतना ही पौराणिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गौरवपूर्ण है। फुल्लरा देवी का मंदिर, भक्तों के हृदय में आस्था, भक्ति और ऊर्जा का स्रोत बनकर आज भी वही दिव्यता बिखेर रहा है जो सहस्रों वर्षों पूर्व से यहाँ विद्यमान है।

देवी फुल्लरा के इस पवित्र स्थल से जुड़ी कथा का मूल देवी भागवत और शिव पुराण में विस्तार से वर्णन मिलता है। एक बार राजा दक्ष, जो भगवान शिव के ससुर थे, ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया। किंतु अपने अहंकारवश उन्होंने अपने दामाद भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। जब सती ने यह सुना तो वे अत्यंत दुखी हुईं और अपने पिता के यज्ञ में बिना बुलाए ही चली गईं। 

यज्ञ स्थल पर पहुँचने पर उन्होंने देखा कि वहाँ कहीं भगवान शिव का यज्ञ में स्थान नहीं रखा गया है। पिता दक्ष ने भी सती का अपमान करते हुए शिव को ‘अघोरी’ कहा। यह अपमान सती सह न सकीं और यज्ञ अग्नि में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए।

जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने क्रोध में वीरभद्र और भद्रकाली को उत्पन्न किया जिन्होंने दक्ष का यज्ञ भंग कर दिया। शिव ने सती के मृत शरीर को उठाकर तांडव प्रारंभ किया। ब्रह्मांड संतुलन खोने लगा। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े किए, और जो अंग जहाँ-जहाँ गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई। इसी क्रम में सती के ओष्ठ (होंठ) जहाँ गिरे, वह स्थान था अट्टहास (वर्तमान फुल्लरा)।

‘अट्टहास’ शब्द संस्कृत में ‘जोर से हँसने’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है। कहा जाता है कि जब सती के ओष्ठ इस स्थान पर गिरे, तब एक दिव्य प्रकाश और ध्वनि के साथ देवी के होंठों से एक अद्भुत हास्य-ध्वनि (अट्टहास) उत्पन्न हुई, जिससे इस स्थान का नाम अट्टहास पड़ा।

कई पुराणों में इसे “देवी के हर्ष स्वरूप” का प्रतीक माना गया है। यह संकेत देता है कि सृष्टि में आनंद, शक्ति और सृजन की धारा अनवरत प्रवाहित रहे। इसलिए यहाँ की देवी फुल्लरा को “सर्व-सुख-दायिनी” कहा जाता है अर्थात जो सभी जीवों को आनंद और संतोष प्रदान करती हैं।

वीरभूम जिला बंगाल का वह क्षेत्र है जिसने संत, साधु, कवि और भक्तों की लम्बी परंपरा देखी है। श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन से लेकर रामकृष्ण परमहंस तक, इस भूमि ने कई आध्यात्मिक धाराओं को पोषित किया है।

इतिहासकारों का मत है कि “फुल्लरा शक्तिपीठ” का उल्लेख 9वीं शताब्दी के शिलालेखों और स्थानीय लोकगाथाओं में मिलता है। मुगल काल में यहाँ के स्थानीय राजाओं  विशेष रूप से बर्द्धमान राजवंश  ने इस मंदिर के पुनर्निर्माण और पूजा-पाठ की व्यवस्था में विशेष योगदान दिया।

अट्टहास का यह क्षेत्र कभी व्यापारिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी प्रसिद्ध था। यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता था जहाँ दूर-दूर से व्यापारी, कारीगर और भक्त एकत्रित होते थे।



फुल्लरा देवी को माता अन्नपूर्णा का स्वरूप माना जाता है। यहाँ मान्यता है कि जो व्यक्ति सच्चे मन से देवी की आराधना करता है, उसे कभी अन्न, धन या संतान की कमी नहीं होती है।

यहाँ की प्रमुख लोक मान्यताएँ हैं कि इस स्थान पर स्थित एक गुप्त कुंड में आज भी देवी के ओष्ठ के प्रतीक रूप में एक शिलाखंड विद्यमान है, जिसे विशेष अवसरों पर ही दिखाया जाता है। कुछ भक्तों का विश्वास है कि पूर्णिमा की रात्रि में जब मंदिर परिसर में शांति छा जाती है, तब देवी की मंद मुस्कान या हास्य-तरंग की ध्वनि सुनाई देती है। यहाँ की परंपरा में देवी फुल्लरा और भैरव विश्वेश की संयुक्त पूजा होती है। यह शक्ति और शिव के एकत्व का प्रतीक है।

फुल्लरा मंदिर आज एक अत्यंत भव्य और शांतिपूर्ण स्थल के रूप में जाना जाता है। मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही भक्तों का स्वागत लाल मिट्टी की पगडंडियों, हरे वृक्षों और गंगा-जैसी स्वच्छ पवित्रता से होता है।

मुख्य मंदिर में देवी फुल्लरा की प्रतिमा काले पत्थर की है, जो कमलासन पर विराजमान हैं। उनके मुख पर हल्की मुस्कान और ओष्ठ पर लाल सिंदूर का लेप उन्हें अट्टहास की स्मृति से जोड़ता है।

मंदिर के मुख्य गर्भगृह में देवी की मूर्ति है, भैरव मंदिर ठीक सामने स्थित है जहाँ विश्वेश भैरव विराजते हैं, परिसर में एक पवित्र सरोवर और अखण्ड दीपमंडप भी है। स्थानीय पुजारी परिवारों के अनुसार यह अखण्ड दीप पिछले सैकड़ों वर्षों से निरंतर जल रहा है।

“फुल्लरा शक्तिपीठ” तक पहुँचना अपेक्षाकृत सरल है। यह स्थान पश्चिम बंगाल के लाभपुर स्टेशन से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

“फुल्लरा शक्तिपीठ” में वर्ष भर अनेक धार्मिक पर्व और मेलों का आयोजन होता है। इनमें प्रमुख हैं नवरात्र महोत्सव- यह यहाँ का सबसे बड़ा पर्व होता है। नौ दिनों तक विशेष पूजा, भजन-कीर्तन, हवन और देवी आरती होती है। दुर्गा पूजा- बंगाल की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा यह पर्व यहाँ अद्भुत भव्यता से मनाया जाता है। माघ पूर्णिमा मेला- इस अवसर पर भक्त देवी सरोवर में स्नान कर पूजा-अर्चना करते हैं। शिवरात्रि- भैरव विश्वेश की पूजा के लिए हजारों श्रद्धालु एकत्र होते हैं। अट्टहास उत्सव- यह विशेष उत्सव सती के ओष्ठ पतन की स्मृति में मनाया जाता है। इसमें स्थानीय लोकगीत, नृत्य, और देवी की शोभायात्रा होती है।

“फुल्लरा शक्तिपीठ” न केवल धार्मिक स्थल है बल्कि बंगाल की संस्कृति का भी प्रतीक है। यहाँ के लोक कलाकार देवी की कथाओं पर आधारित ‘कीर्तन’, ‘पाला’, और ‘जात्रा’ प्रस्तुत करते हैं। यहाँ की मिट्टी में रवींद्रनाथ टैगोर की शांतिनिकेतन जैसी ही कलात्मकता झलकती है। कई स्थानीय विद्यालयों में छात्र-छात्राएँ देवी फुल्लरा के जीवन और शक्तिपीठ पर आधारित चित्रकला प्रतियोगिताएँ आयोजित करते हैं। साथ ही यहाँ का “फुल्लरा गीत”, जो हर वर्ष उत्सव के समय गाया जाता है, देवी की शक्ति, करुणा और सौंदर्य का स्तवन करता है।

भक्तों का अनुभव है कि फुल्लरा देवी के दर्शन मात्र से ही मन में एक अद्भुत शांति का संचार होता है। कई श्रद्धालुओं ने यह भी बताया कि यहाँ मनोकामना मांगने पर वह अवश्य पूर्ण होती है।

एक प्रसिद्ध लोककथा है कि एक बार एक निर्धन किसान ने देवी से अपने पुत्र के जीवन की प्रार्थना की। देवी ने उसके सपने में आकर कहा कि “विश्वास रखो, तुम्हारा पुत्र सुरक्षित रहेगा।” अगले दिन उसका पुत्र ठीक हो गया। तब से इस स्थान को ‘विश्वास की भूमि’ कहा जाता है।

पुरातत्व विभाग के अनुसार अट्टहास क्षेत्र में प्राचीन ईंटों, मंदिरों के अवशेष और मूर्तियों के टुकड़े मिले हैं जो 8वीं-9वीं शताब्दी के माने जाते हैं। लोककथाओं में कहा गया है कि कभी यहाँ एक विशाल मंदिर था जो समय और बाढ़ की मार से क्षतिग्रस्त हो गया। बाद में स्थानीय लोगों ने मिलकर वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया।

हाल के वर्षों में राज्य सरकार और स्थानीय ट्रस्ट ने इस शक्तिपीठ के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया है। यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं के लिए आवासीय धर्मशालाएँ, भोजनालय, शुद्ध जल की व्यवस्था और सुरक्षा प्रबंध किए गए हैं। साथ ही, ‘फुल्लरा देवी ट्रस्ट’ द्वारा सामाजिक कार्य जैसे कन्या शिक्षा, स्वास्थ्य शिविर, और वृक्षारोपण अभियान भी चलाए जाते हैं।

यह माना जाता है कि फुल्लरा देवी की उपासना विशेष रूप से मन की शुद्धि और वाणी की पवित्रता के लिए की जाती है। क्योंकि देवी के ओष्ठ यहाँ गिरे थे, इसलिए यह स्थान वाणी, संवाद, संगीत और काव्य के क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए अत्यंत शुभ माना जाता है।

भक्त यहाँ “ॐ ह्रीं फुल्लरायै नमः” मंत्र का जप करते हैं। ऐसा करने से व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास, सौंदर्य और रचनात्मकता का उदय होता है।

फुल्लरा शक्तिपीठ केवल एक मंदिर नहीं है, बल्कि शक्ति की जीवंत चेतना का प्रतीक है। यहाँ देवी की मुस्कान में करुणा है, उनके ओष्ठ में आनंद है, और उनकी दृष्टि में असीम कृपा। यह वही भूमि है जहाँ सती के शरीर के ओष्ठ गिरे और जहाँ से ब्रह्मांड में आनंद का प्रवाह प्रारंभ हुआ। अट्टहास आज भी उसी दिव्यता का स्मारक है जहाँ हर भक्त को अपनी भक्ति का उत्तर मिलता है।



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