प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अंतिम चुनावी भाषण का संदेश - अहंकार या आत्मविश्वास? - जनता तय करेगी 14 नवम्बर को

Jitendra Kumar Sinha
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी चुनावी रैली के अंत में कहा कि “इस चुनाव में मेरी आखिरी सभा है, अब NDA के शपथ ग्रहण में आऊंगा…” तो देश की राजनीति में एक नई बहस ने जन्म ले लिया है। क्या यह वाक्य आत्मविश्वास की पराकाष्ठा था या अहंकार की अभिव्यक्ति? राजनीतिक विश्लेषक, समर्थक और विरोधी, सभी इस एक पंक्ति के अर्थ और मनोभाव पर अपने-अपने निष्कर्ष निकालने लगे हैं। लेकिन सच यह है कि नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक शैली और आत्म-आश्वस्त व्यक्तित्व को देखते हुए यह कथन उनके आंतरिक आत्मविश्वास का प्रतीक अधिक प्रतीत होता है, न कि अहंकार का।

यह पहली बार नहीं है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावी परिणाम से पहले अपने विश्वास को खुले तौर पर प्रकट किया हो। 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले, उन्होंने “मन की बात” के 53वें अंक में कहा था कि “अब जुलाई में 54वें अंक के साथ आपसे फिर मुलाकात होगी…” यह वाक्य उस समय भी एक प्रकार के संकेत के रूप में लिया गया था, कि मोदी को अपने पुनः सत्ता में आने पर पूर्ण भरोसा है और वास्तव में हुआ भी वही। भाजपा ने ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया, और जुलाई में “मन की बात” का अगला अंक प्रधानमंत्री के रूप में ही प्रसारित हुआ। इस प्रकार, मोदी का यह आत्मविश्वास नया नहीं है, बल्कि उनके व्यक्तित्व का स्थायी अंग है। एक ऐसा विश्वास जो अंधे आत्ममुग्धता से नहीं, बल्कि राजनीतिक अनुभव, जनता के साथ गहरे संबंध और संगठनात्मक क्षमता से उपजा है।

राजनीति में अक्सर यह भ्रम बना रहता है कि जो नेता दृढ़ता से बोलता है, वह अहंकारी है। लेकिन आत्मविश्वास और अहंकार में एक गहरा मनोवैज्ञानिक अंतर होता है। नरेन्द्र मोदी के वाक्य “अब NDA के शपथ ग्रहण में आऊंगा” में ‘हम’ या ‘देश’ के स्थान पर ‘मैं’ शब्द का प्रयोग भले व्यक्तिगत लगे, पर उसका भाव सामूहिक सफलता की ओर इंगित करता है कि  “हमारा गठबंधन फिर सत्ता में आएगा।”

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आत्मविश्वास एक दिन में नहीं बना है। यह यात्रा गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर विश्व मंच पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने तक की कहानी है। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी ने “अच्छे दिन आने वाले हैं” कहा, तब यह नारा जनता के भीतर के बदलाव की आकांक्षा का प्रतीक बन गया। पहली बार जनता ने किसी नेता में यह विश्वास देखा कि वह केवल वादा नहीं, दिशा दे सकता है।

2019 में कार्य और करिश्मे का संगम देखा गया। पाँच वर्षों में मोदी सरकार ने जिस प्रकार विकास, सुरक्षा और सामाजिक योजनाओं पर काम किया, उसने उन्हें ‘परफॉर्मेंस और पर्सनैलिटी’ का संयोजन बना दिया। ‘मन की बात’ का 53वां अंक इस आत्मविश्वास का प्रमाण था, कि देश की जनता फिर उसी नेतृत्व को चुनेगी।

2024 में चुनौतियाँ और दृढ़ संकल्प था। जबकि 2024 का राजनीतिक परिदृश्य पहले से कहीं अधिक जटिल था विपक्ष एकजुट, मुद्दे विविध, और जनता अधिक सजग। फिर भी प्रधानमंत्री का यह कहना कि “अब शपथ ग्रहण में मिलूंगा” उस आंतरिक स्थिरता को दर्शाता है जो वर्षों के राजनीतिक तप से प्राप्त होती है।

आत्मविश्वास का सबसे मजबूत आधार होता है  नीति और नियत पर भरोसा। नरेन्द्र मोदी ने बार-बार कहा है कि “मेरे लिए सत्ता सेवा का माध्यम है, राजनीति साधना है।” ऐसी सोच रखने वाला व्यक्ति चुनावी परिणाम की चिंता से ऊपर उठकर अपने कार्य में विश्वास रखता है। यह वही भावना है जो उन्हें हर विपरीत परिस्थिति में शांत, संयमी और केंद्रित रखती है।

हालाँकि विपक्षी दलों ने इस बयान को “राजनीतिक अहंकार” बताया है। कांग्रेस, RJD, तृणमूल और कुछ क्षेत्रीय दलों ने कहा कि यह “जनादेश से पहले विजय की घोषणा” है, जो लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या जनता से संवाद करने वाला हर आत्मविश्वासी नेता अहंकारी कहलाएगा? इंदिरा गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक, हर मजबूत नेता को इस आरोप का सामना करना पड़ा। जबकि इतिहास ने दिखाया कि जनता आत्मविश्वास को पुरस्कृत करती है, अहंकार को नहीं।

2024 के चुनाव परिणाम से पहले नरेन्द्र मोदी सरकार ने जिस प्रकार “अगली सरकार के एजेंडा” पर काम शुरू कर दिया था, वह भी उनके आत्मविश्वास का द्योतक था। प्रधानमंत्री कार्यालय ने 10 प्रमुख सचिवों की समितियाँ गठित की थीं, जिसका उद्देश्य था, अगली सरकार के पहले 100 दिनों का रोडमैप तैयार करना। यह कदम राजनीतिक दृष्टि से जोखिम भरा होते हुए भी शासन दृष्टि से दूरदर्शी था। इससे यह स्पष्ट होता है कि नरेन्द्र मोदी केवल चुनावी जंग नहीं लड़ रहे थे, बल्कि सतत शासन के विजन पर कार्यरत थे।

जनता के मन में नरेन्द्र मोदी के इस वक्तव्य को लेकर दो मत हैं।  लोगों का मानना है कि इतने वर्षों से जिस नेता ने वादे पूरे किए, वह अब अपनी कार्यशैली के बल पर आश्वस्त है। वह “मैं” कहकर भी “हम” को ही व्यक्त करता है।
और दूसरा कुछ लोगों का कहना है कि इस बार परिस्थितियाँ भिन्न हैं, आर्थिक असमानता, रोजगार और महँगाई के सवाल अधिक तीखे हैं। इसलिए ऐसा कथन थोड़ी अवहेलना जैसा भी प्रतीत हो सकता है। लेकिन लोकतंत्र की सुंदरता ही यही है कि जनता अपने निर्णय से तय करती है कि कौन-सा भाव सच्चा है।

नेतृत्व विज्ञान के अनुसार, “लीडरशिप सेल्फ-एफिकेसी” यानि नेतृत्व आत्म-विश्वास किसी नेता की सफलता का मूल तत्व होता है। नरेन्द्र मोदी इस सिद्धांत के आदर्श उदाहरण हैं। उनकी शैली है कि निर्णायक बोलना, भावनात्मक जुड़ाव बनाना, और चुनौती को अवसर में बदलना।  यह सभी उस मनोवैज्ञानिक परिपक्वता को दर्शाता हैं जो अहंकार से नहीं, आत्म-संयम से जन्म लेती है।

वास्तविक आत्मविश्वास तब प्रकट होता है जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो। 2024 के चुनावी माहौल में विपक्ष का गठबंधन, मुद्दों की बहुलता और प्रचार की तीव्रता, सभी नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध एक संगठित चुनौती प्रस्तुत कर रही है। फिर भी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संतुलित स्वर, सटीक संवाद और शांत मुद्रा यह बताती है कि वे भावनाओं से नहीं, दृष्टिकोण से निर्णय लेते हैं। धैर्य और साहस यह दो गुण आत्मविश्वास की नींव हैं, और नरेन्द्र मोदी में यह दोनों भरपूर हैं।

नरेन्द्र मोदी के भाषणों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे केवल शब्द नहीं बोलते, भावना के साथ कहानी गढ़ते हैं। उनका “अब शपथ ग्रहण में आऊंगा” कहना केवल एक राजनैतिक वक्तव्य नहीं है, बल्कि भविष्य का संकल्प है। यह एक “विज़ुअल इमेजरी” की तरह काम करता है, जिससे समर्थकों को एक लक्ष्य दिखाई देता है और विरोधियों में हलचल पैदा होती है। यही रणनीतिक संवाद की शक्ति है।

इतिहास साक्षी है कि जो नेता स्वयं पर भरोसा खो देता है, वह जनता का विश्वास भी नहीं जीत सकता। नेल्सन मंडेला, महात्मा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, सभी ने विपरीत परिस्थितियों में भी विश्वास की ज्योति जलाए रखी। नरेन्द्र मोदी उसी परंपरा के आधुनिक प्रतीक हैं। उनकी “मैं कर सकता हूँ” सोच उन्हें चुनौतियों से ऊपर उठाती है।

लोकतंत्र केवल बहस या विरोध का मंच नहीं है, बल्कि विश्वास का तंत्र है। जब नेता अपने मिशन में दृढ़ विश्वास रखता है, तो प्रशासन में स्थिरता और जनता में प्रेरणा उत्पन्न होती है। नरेन्द्र मोदी का यह आत्मविश्वास जनता को यह संदेश देता है कि “देश सही दिशा में है, और यह यात्रा अधूरी नहीं रुकेगी।” यह भावना जनता के मनोबल को भी ऊँचा रखती है।

हालाँकि हर आत्मविश्वास को एक सीमा में रहना चाहिए। जब वह मर्यादा पार करता है, तो वही विश्वास अहंकार का रूप ले लेता है। राजनीति में कई बार यह पतली रेखा धुंधली हो जाती है। नरेन्द्र मोदी के लिए भी चुनौती यही है कि उनका आत्मविश्वास जन-संवाद से जुड़ा रहे और वह जनादेश से ऊपर न लगे। अब तक उन्होंने अपने शब्दों और कर्मों से यह संतुलन बनाए रखा है, पर आने वाले दिनों में यही उनकी नेतृत्व-परीक्षा होगी।

अंततः किसी भी नेता का आत्मविश्वास जनता के विश्वास से ही पोषित होता है। नरेन्द्र मोदी का यह कथन तभी सार्थक होगा जब 14 नवंबर को जनता अपने मतों से उसे सत्य सिद्ध करेगी। लोकतंत्र में यह संवाद द्विपक्षीय होता है कि नेता का आत्मविश्वास और जनता का विश्वास जब मिलते हैं, तभी राष्ट्र की दिशा तय होती है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का “अब NDA के शपथ ग्रहण में आऊंगा” कहना भारतीय राजनीति के लिए एक प्रतीकात्मक क्षण है। यह वाक्य सिर्फ चुनावी घोषणा नहीं है, बल्कि एक मानसिक दृढ़ता का उद्घोष है। उनकी पूर्व शैली, प्रशासनिक तैयारी और जनता से जुड़ाव इसे आत्मविश्वास की पराकाष्ठा सिद्ध करता हैं।



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