बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों, क्षेत्रीय प्रभाव, गठबंधनों और व्यक्तिगत करिश्मे की जटिल बुनावट के कारण हमेशा से बहुरंगी रही है। वर्ष 2025 का विधानसभा चुनाव भी इससे अछूता नहीं है। चुनावी अखाड़े में एक बार फिर एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) और महागठबंधन आमने-सामने हैं, लेकिन इस बार मुकाबले की दिशा केवल इन दो ध्रुवों से तय नहीं होगी। छोटे और क्षेत्रीय दलों की भूमिका पहले से कहीं अधिक अहम हो गई है।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस बार नतीजा केवल "मोदी बनाम लालू" या "एनडीए बनाम महागठबंधन" तक सीमित नहीं है। यह चुनाव उन छोटे दलों की ताकत को भी परखेगा, जो सीमित क्षेत्रों में प्रभाव रखते हुए सत्ता के समीकरणों को बदलने की क्षमता रखता है।
11 नवंबर 2025 को बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में 20 जिलों की 122 सीटों पर मतदान होना है। इन जिलों में मगध, तिरहुत, सीमांचल, कोसी और शाहाबाद जैसे विविध सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य वाले इलाके शामिल हैं।
इस चरण में करीब 3 करोड़ 70 लाख मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इनमें लगभग 1.90 करोड़ पुरुष, 1.80 करोड़ महिलाएं और करीब 1.5 लाख प्रथम बार मतदान करने वाले युवा मतदाता हैं। राजनीतिक दलों की नजर खासकर युवाओं और महिलाओं पर है, क्योंकि ये दो वर्ग इस बार ‘किंगमेकर’ साबित हो सकते हैं।
एनडीए की अगुवाई भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कर रही है, लेकिन इस बार गठबंधन का स्वरूप पहले से थोड़ा अलग है। लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने 28 में से 15 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के 6 उम्मीदवार मैदान में हैं। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) ने 4 सीटों पर दांव लगाया है।
इन तीनों सहयोगी दलों का प्रदर्शन भाजपा और जदयू (जनता दल यूनाइटेड) के लिए निर्णायक साबित होगा। पिछली बार कई जगहों पर एनडीए की जीत छोटे दलों के वोट ट्रांसफर के कारण संभव हुई थी। इस बार भी लोक जनशक्ति पार्टी का दलित-महादलित वर्गों में प्रभाव, हम का मुसहर और भूमिहार वोट बैंक, और रालोसपा का कोइरी-कुशवाहा समाज में पकड़, मिलकर एनडीए की संभावनाओं को मजबूती दे सकती है।
भाजपा की रणनीति इस बार “छोटे सहयोगियों को संतुष्ट रखकर बड़े लक्ष्य तक पहुंचने” की है। यही कारण है कि कई सीटों पर स्थानीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उम्मीदवारों का चयन किया गया है, ताकि किसी जातीय समूह की नाराजगी न हो।
महागठबंधन के लिए यह चरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। मगध क्षेत्र में पिछली बार उसे 26 में से 20 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार भी कांग्रेस और राजद (राष्ट्रीय जनता दल) ने इस इलाके पर विशेष ध्यान केंद्रित किया है। महागठबंधन में इस बार सीट बंटवारा कुछ इस तरह हुआ है, कांग्रेस 61 सीटों में से 37 पर चुनाव लड़ रही है। विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) 7 सीटों पर मैदान में है। राजद शेष सीटों पर अपनी मजबूत स्थिति के साथ चुनाव लड़ रही है।
वीआईपी पार्टी की भूमिका निषाद समाज के इलाकों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। निषाद, मछुआरा और नाविक समाज बिहार में करीब 4% आबादी रखते हैं और कई सीटों पर यह समाज निर्णायक भूमिका निभाता है। यदि यह वर्ग एकजुट होकर वोट करता है, तो कई जगहों पर महागठबंधन की जीत हो सकती है। कांग्रेस की रणनीति शहरी और मध्यम वर्गीय वोटरों पर केंद्रित है, वहीं राजद ग्रामीण इलाकों में अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण को साधने में जुटा है।
तिरहुत क्षेत्र, जिसमें मुजफ्फरपुर, वैशाली, सीतामढ़ी और पूर्वी चंपारण जैसे जिला आता है, पारंपरिक रूप से एनडीए का गढ़ माना जाता रहा है। पिछली बार एनडीए को यहां 30 में से 23 सीटों पर जीत मिली थी। हालांकि इस बार स्थिति थोड़ी अलग है। स्थानीय स्तर पर असंतोष, विकास कार्यों की धीमी रफ्तार और रोजगार को लेकर युवाओं की नाराजगी एनडीए के लिए चुनौती बनी हुई है।
महागठबंधन ने यहां कई नए चेहरों को टिकट दिया है, ताकि युवाओं और महिलाओं को आकर्षित किया जा सके। दूसरी ओर, एनडीए ने अपने संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत किया है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर भरोसा जताया है।
सीमांचल क्षेत्र (कटिहार, किशनगंज, पूर्णिया, अररिया आदि) में मुस्लिम मतदाता 45% से अधिक हैं। यहां पर एआईएमआईएम (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) की मौजूदगी ने समीकरण को बेहद जटिल बना दिया है।एआईएमआईएम ने 2020 में किशनगंज की कुछ सीटों पर अप्रत्याशित प्रदर्शन किया था। इस बार भी ओवैसी की पार्टी 8 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। यदि मुस्लिम वोटों का बंटवारा होता है, तो इसका लाभ अप्रत्यक्ष रूप से एनडीए को मिल सकता है।
वहीं, महागठबंधन ने सीमांचल में स्थानीय मुद्दों जैसे बाढ़ नियंत्रण, शिक्षा और रोजगार, को प्रमुखता दी है। कांग्रेस ने किशनगंज से अपने पुराने नेताओं को फिर से मैदान में उतारा है, ताकि वह अपना खोया आधार वापस पा सके।
बिहार में राजनीति का अनुभव बताता है कि 5% से कम वोट शेयर वाला दल भी 15-20 सीटों के परिणाम को प्रभावित कर सकता है। यही कारण है कि छोटे दलों की उपेक्षा करना किसी भी गठबंधन के लिए आत्मघाती कदम साबित हो सकता है। लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) का दलित और महादलित वोटों में पकड़ है।हम (जीतन राम मांझी) का सीमित क्षेत्र में लेकिन मजबूत जनाधार है। रालोसपा (उपेंद्र कुशवाहा) का कोइरी-कुशवाहा वोटों पर प्रभाव है। वीआईपी (मुकेश सहनी) निषाद समाज में लोकप्रिय है। एआईएमआईएम (असदुद्दीन ओवैसी) मुस्लिम वोटों के बंटवारे में भूमिका दिखता है।
इन सभी दलों के उम्मीदवार यदि अपने-अपने क्षेत्रों में 10-15 हजार वोट भी हासिल करते हैं, तो कई सीटों पर जीत-हार का अंतर उसी से तय होगा।
बिहार की राजनीति से जातीयता को अलग नहीं किया जा सकता है। यादव + मुस्लिम वोट अब भी राजद का पारंपरिक आधार हैं। ब्राह्मण, भूमिहार और बनिया वर्ग एनडीए के प्रति झुकाव रखता है। दलित और महादलित वर्गों में इस बार विभाजन स्पष्ट है, एक हिस्सा मांझी और पासवान के साथ है, जबकि दूसरा राजद-कांग्रेस की ओर झुक रहा है। ओबीसी समुदाय (विशेषकर कुशवाहा, कोइरी, निषाद) छोटे दलों के कारण बंटा हुआ दिख रहा है। जातीय समीकरणों की यह जटिलता ही बिहार चुनाव को सबसे दिलचस्प बनाता है।
इस चुनाव में युवाओं की भूमिका निर्णायक होगी। राज्य में बेरोजगारी दर 12% से ऊपर है। पिछले एक दशक में लाखों युवा पलायन कर चुके हैं। हर दल अपने घोषणापत्र में रोजगार, स्टार्टअप, शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट की बातें कर रहा है, लेकिन मतदाता अब केवल वादों पर नहीं, परिणामों पर भरोसा करना चाहते हैं। एनडीए ने "बिहारी नौजवान - बिहार का स्वाभिमान" नारा दिया है, जबकि महागठबंधन "नौकरी हमारा हक" अभियान चलाया है। छोटे दल भी स्थानीय रोजगार और उद्योग की मांग को मुद्दा बनाया है।
बिहार की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है। इस बार चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों के लगभग बराबर है।
नीतीश कुमार के ‘महिला आरक्षण’ और ‘सायकिल योजना’ जैसे कदमों ने ग्रामीण महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता बढ़ाई है। अब कांग्रेस और राजद ने भी महिला प्रत्याशियों को प्राथमिकता दी है। सामाजिक कार्यकर्ता समूहों का मानना है कि महिलाओं का वोट पैटर्न कई सीटों पर निर्णायक साबित होगा।
इस चुनाव में प्रचार का तरीका भी बदल गया था। भाजपा और राजद दोनों ने अपने आईटी सेल को पहले से ज्यादा सक्रिय किया था।फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर डिजिटल प्रचार के माध्यम से युवा मतदाताओं को टारगेट किया जा रहा था।
दूसरी ओर, छोटे दलों के लिए “घर-घर संपर्क” अभी भी सबसे प्रभावी तरीका रहा है। वीआईपी और हम जैसी पार्टियों के कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर मतदाताओं से सीधे संवाद कर रहा था।
राजनीति के जानकार मानते हैं कि 2025 का चुनाव "क्लीयर मैंडेट" नहीं बल्कि "कोएलिशन मैंडेट" देने वाला है। यानी कोई भी दल या गठबंधन पूर्ण बहुमत तक नहीं पहुंच पाएगा, और सरकार बनाने के लिए छोटे दलों का समर्थन आवश्यक होगा।
यदि एनडीए को 122 में से 70 से अधिक सीट मिलता है, तो तीसरे चरण में उसे स्पष्ट बढ़त मिल सकता है। यदि महागठबंधन सीमांचल और मगध में मजबूत प्रदर्शन करता है, तो एनडीए की बढ़त कम हो जाएगा। यदि छोटे दल 10-15 सीट जीतने में सफल होता है, तो सत्ता की डोर उनके हाथों में आ जाएगी।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का दूसरा चरण यह तय करेगा कि अगली सरकार की दिशा क्या होगी। बड़े दलों के नारे, रैलियां और गठबंधन रणनीति अपनी जगह हैं, लेकिन अब चुनाव का असली केंद्र छोटे दल बन गए हैं। लोक जनशक्ति पार्टी, हम, रालोसपा, वीआईपी और एआईएमआईएम जैसे दल न केवल वोटों का समीकरण बदल सकता है, बल्कि यह भी तय करेंगे कि पटना की गद्दी पर कौन बैठेगा। राजनीतिक रूप से जागरूक बिहार अब एक नए युग की दहलीज पर खड़ा है, जहां छोटे दल अब सिर्फ “सहयोगी” नहीं, बल्कि “निर्णायक” बन चुका है।
