बिहार, जो हमेशा से देश की राजनीति का थर्मामीटर माना जाता है, एक बार फिर अपनी जागरूकता से पूरे देश का ध्यान खींच चुका है। विधानसभा चुनाव 2025 के मतदान के बाद जो दृश्य सामने आया है, वह लोकतंत्र के सबसे जीवंत रूप को दर्शाता है। सुबह से ही लोग कतारों में लगे दिखे, महिलाएँ बच्चों के साथ मतदान केंद्रों तक पहुँचीं, युवा पहली बार वोट डालने के उत्साह में झूम रहे थे। बूथों के बाहर “पहले मतदान, फिर जलपान” के नारे गूंज रहे थे।
राजधानी पटना से लेकर सीमांचल के कटिहार, कोसी की धरती से लेकर मगध के गांवों तक एक ही लहर दिखी ‘इस बार बदलाव की बयार’। बिहार में 70 से 72 प्रतिशत के आसपास हुई बंपर वोटिंग ने सभी राजनीतिक समीकरणों को हिला दिया है। चुनाव आयोग के अधिकारियों ने भी माना है कि इस बार का मतदान प्रतिशत पिछले दो चुनावों से कहीं अधिक है। लोगों के चेहरों पर चमक थी, और दिलों में एक उम्मीद कि इस बार बिहार की किस्मत का नया अध्याय लिखा जाएगा।
वोटिंग खत्म होते ही सत्ता पक्ष यानि एनडीए खेमे में आत्मविश्वास की लहर दौड़ गई। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री समेत कई नेताओं ने ट्वीट करते हुए कहा कि “बिहार ने एक बार फिर विकास और स्थिरता पर मुहर लगाई है।”
जनता दल (यू) और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में हुए मतदान को “विकास पर भरोसे की जीत” बता रहे हैं। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष ने कहा कि “बिहार के लोगों ने जाति और मजहब से ऊपर उठकर काम और सुशासन के नाम पर वोट किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों पर जनता ने भरोसा जताया है।” वहीं नीतीश कुमार ने कहा है कि “हमने बिहार में सड़कों, शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में जो काम किया है, उसका असर वोटिंग में साफ दिखा।” एनडीए खेमे के लिए बंपर वोटिंग का मतलब है कि उनके काम पर जनता की मोहर लग चुकी है।
लेकिन दूसरी तरफ विपक्ष इसे एक अलग नजरिए से देख रहा है। मतदान खत्म होते ही नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव मीडिया के सामने आए। उनके चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था, और लहजे में ठहराव था। उन्होंने पत्रकारों से कहा कि “हमने हर जिले से फीडबैक लिया है, हर गांव से, हर पंचायत से। लोग कह रहे हैं कि बस इस बार बदलाव चाहिए। बिहार के लोगों ने बदलाव के लिए वोट किया है, रोजगार के लिए वोट किया है, और अब वे उम्मीद कर रहे हैं कि नई सुबह आए।”
तेजस्वी ने एग्जिट पोल पर सवाल उठाते हुए कहा है कि यह सब “पेड और सत्ता के दबाव में तैयार” किए गए हैं। उनके शब्दों में तीखापन भी था और विश्वास भी “लिख कर रख लीजिए, हम 18 नवम्बर को शपथ लेंगे और बिहार में नौकरी वाली सरकार बनाएंगे।” इस बयान के साथ ही सोशल मीडिया पर NaukriWaliSarkar ट्रेंड करने लगा। युवाओं ने इस नारे को हाथों-हाथ लिया। ट्विटर (अब एक्स) और इंस्टाग्राम पर “तेजस्वी की सरकार – युवाओं की सरकार” जैसे पोस्ट वायरल होने लगे।
जैसे ही मतदान चल रहा था, कुछ टीवी चैनलों ने एग्जिट पोल दिखाना शुरू कर दिया। इस पर विपक्ष ने कड़ा विरोध जताया है। तेजस्वी यादव ने कहा कि “जब तक लोग कतारों में वोट डाल रहे थे, तब तक सर्वे चलाने का क्या मतलब? यह मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिश है।”
कई राजनीतिक विश्लेषकों ने भी माना है कि इस बार बिहार का माहौल इतना जटिल है कि कोई भी सर्वे सटीक नहीं बैठ सकता है। सामाजिक समीकरण, बेरोजगारी, महंगाई, युवाओं की नाराजगी, और महिला मतदाताओं का रुझान, सब कुछ पहले से अलग दिख रहा है। एग्जिट पोल के आंकड़े जहां एनडीए को मामूली बढ़त दे रहे थे, वहीं सोशल मीडिया पर लोगों का मूड कुछ और ही कहानियाँ सुना रहा था। यही वजह है कि तेजस्वी का यह बयान “यह सब पीएमओ से तय होकर आता है” बिहार के बड़े हिस्से में चर्चा का विषय बन गया है।
इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा रहा रोजगार। तेजस्वी यादव ने अपने पूरे चुनाव प्रचार में इस नारे को केंद्र में रखा था कि “एक-एक परिवार को रोजगार देंगे।” युवाओं ने इस पर भरोसा दिखाया। कॉलेजों, कोचिंग सेंटर्स, और शहरी इलाकों में यह नारा किसी आंदोलन जैसा बन गया था।
पटना के एक छात्र ने कहा कि “हमने पिछले दस साल में बहुत वादे सुने हैं, लेकिन इस बार तेजस्वी की बातों में सच्चाई लगी। उन्होंने साफ कहा है कि नौकरी देंगे, और पहले भी युवाओं की आवाज बने हैं।” युवाओं की इस उम्मीद ने पूरे चुनाव का मूड बदल दिया है। एनडीए जहां विकास की बात कर रहा था, वहीं आरजेडी “रोजगार” को मुद्दा बना रही थी। यह फर्क इतना बड़ा था कि गांवों में भी चर्चा रोजगार की होने लगी।
बिहार चुनावों में इस बार महिलाओं की भागीदारी ऐतिहासिक रही। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं ने पुरुषों से अधिक मतदान किया। यह वही बिहार है जहां कभी महिलाओं को मतदान केंद्र तक लाना मुश्किल होता था, आज वे अपनी पसंद का भविष्य तय कर रही हैं।
गांव की महिलाओं का कहना था कि “हम चाहते हैं कि हमारे बेटे-बेटियाँ घर से बाहर नौकरी खोजने न जाएँ। हमारे गांव में ही काम मिले।” यानि महिलाओं ने भी इस बार सिर्फ भावनाओं से नहीं, बल्कि भविष्य को ध्यान में रखकर वोट किया है। विश्लेषकों का मानना है कि महिलाओं का यह रुझान निर्णायक साबित हो सकता है।
बिहार की राजनीति का सबसे पुराना आधार हमेशा जातिगत समीकरण रहा है। लेकिन इस बार का चुनाव इस परंपरा को तोड़ता नजर आया है। राज्य में नई पीढ़ी की राजनीति उभर रही है जो रोजगार, शिक्षा, और सम्मान की बात करती है, न कि केवल जाति की।
हालांकि जाति अब भी बिहार की राजनीति से पूरी तरह गायब नहीं हुई है, लेकिन उसकी पकड़ ढीली जरूर पड़ी है। कुशवाहा, यादव, पासवान, भूमिहार, राजपूत, दलित और महादलित वर्गों के बीच इस बार बिखराव दिखा। एनडीए को पारंपरिक वोट बैंक मिला, लेकिन विपक्ष ने नई ऊर्जा के साथ युवा और पहली बार वोट डालने वाले मतदाताओं को आकर्षित किया। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस बार का चुनाव “नया बिहार बनाम पुरानी व्यवस्था” की लड़ाई है।
तेजस्वी यादव की प्रेस कॉन्फ्रेंस सिर्फ एक बयान नहीं, बल्कि एक चुनौती थी। उन्होंने न सिर्फ अपनी जीत का दावा किया है, बल्कि तारीख भी तय कर दी है कि “18 नवम्बर को हम शपथ लेंगे।”
यह आत्मविश्वास विपक्ष के खेमे में नई ऊर्जा लेकर आया है। आरजेडी कार्यालय में जश्न की तैयारी शुरू हो गई है। वहीं एनडीए खेमे में रणनीति बैठकें जारी हैं, और सभी परिणामों से पहले ही समीकरण साधने में जुटे हैं।
चुनावी विशेषज्ञ मानते हैं कि बिहार में इस बार “एकतरफा” जीत की संभावना नहीं है। संघर्ष कड़ा है, और हर सीट का गणित अलग है। लेकिन तेजस्वी का यह विश्वास है कि “लिख कर रख लीजिए”, उनकी लोकप्रियता और जनता से जुड़ाव का संकेत है।
पटना के चाय स्टॉल से लेकर सिवान के चौपालों तक हर जगह एक ही चर्चा है कि “तेजस्वी बोले 18 को शपथ लेंगे, देखना क्या होता है।”
लोगों की जिज्ञासा इस बात पर नहीं है कि कौन जीतेगा, बल्कि इस पर है कि क्या वाकई बिहार की राजनीति में बदलाव की लहर चल पड़ी है। कई जगहों पर लोगों ने कहा है कि “अब वक्त है काम करने वालों का, झूठे वादों का नहीं।”
कुछ बुजुर्गों ने कहा है कि “हमने लालू का जमाना भी देखा है, नीतीश का भी। अब लगता है कि नई पीढ़ी को मौका देना चाहिए।” इन आवाजों में छिपी भावना यही बताती है कि जनता मन बना चुकी है कि बिहार को नई दिशा चाहिए।
चुनाव के दौरान मीडिया की भूमिका हमेशा सवालों के घेरे में रहती है। तेजस्वी यादव के “पेड सर्वे” वाले बयान ने इस बहस को और तीखा बना दिया है। कई पत्रकारों का मानना है कि आज के दौर में जनता की नब्ज सोशल मीडिया से ज्यादा सही पढ़ी जा सकती है, पारंपरिक एग्जिट पोल से नहीं। क्योंकि अब हर वोटर अपनी राय ऑनलाइन व्यक्त करता है। फेसबुक, एक्स और व्हाट्सऐप पर चुनाव से जुड़े हजारों वीडियो और रील्स वायरल हुए। युवाओं ने “बदलाव की सरकार” के नारे को जन आंदोलन बना दिया है। यह डिजिटल लहर पारंपरिक मीडिया की साख पर भी सवाल खड़े करती है कि क्या अब मीडिया जनता की आवाज़ सुनता है, या सत्ता की?
जैसे-जैसे 14 नवम्बर की तारीख नजदीक आ रही है, बिहार की सियासत का तापमान बढ़ता जा रहा है। हर पार्टी अपने-अपने आंकड़ों के साथ दावा ठोक रही है। एनडीए कह रहा है कि “हमने काम किया है, जनता ने उसे स्वीकारा है।” वहीं महागठबंधन कह रहा है कि “जनता अब बदलाव के लिए तैयार है।” राजनीतिक गलियारों में अफवाहों का बाजार भी गर्म है। कौन किसके साथ जाएगा, अगर बहुमत न आया तो क्या होगा, इन सवालों ने रोमांच को और गहरा कर दिया है। लेकिन एक बात तय है कि इस बार बिहार ने देश को फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि लोकतंत्र सिर्फ वोट नहीं, बल्कि उम्मीद की भाषा भी है।
तेजस्वी यादव के “18 नवम्बर को शपथ” वाले बयान ने चुनाव को प्रतीकात्मक रूप से एक नई दिशा दी है। यह सिर्फ एक तारीख नहीं है, बल्कि बदलाव की उम्मीद का प्रतीक बन गई है। युवाओं की आंखों में जो चमक है, महिलाओं के दिलों में जो भरोसा है, और किसानों के मन में जो आशा है, सब मिलकर कह रहे हैं कि “बिहार अब पीछे नहीं रहेगा।” अब देखना यह है कि क्या यह उत्साह परिणामों में भी दिखेगा, या फिर एक बार और उम्मीदों को इंतजार करना होगा।
चुनाव परिणाम चाहे जो भी आएं, बिहार ने इस बार यह साबित कर दिया है कि जनता अब सिर्फ वादों से नहीं, काम से वोट करती है। यह राज्य लोकतंत्र का असली चेहरा बन चुका है, जहां हर वोट की कीमत है, और हर आवाज मायने रखती है। तेजस्वी यादव की बातों में आत्मविश्वास है, सत्ता पक्ष की दलीलों में विश्वास है और जनता के मन में उम्मीद है। यही तीनों मिलकर तय करेंगे कि 14 नवम्बर को किसके चेहरे पर मुस्कान होगी, और 18 नवम्बर को किसके हाथ में होगी सत्ता की शपथ।
