दिल्ली के ऐतिहासिक किला “लाल किला” के पास स्थित मेट्रो स्टेशन के पास हुए बम धमाके ने देश को हिला दिया है। सात दिन बीत गए, लेकिन देश की राजनीति का एक बड़ा हिस्सा खामोश बना हुआ है। खामोश बने रहने में कई बड़े नाम राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सोनिया गांधी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, तेजस्वी यादव, ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओवैसी और अन्य ने आधिकारिक रूप से कोई कड़ा बयान नहीं दिया है, न ही शोक व्यक्त किया है, न राष्ट्रीय सुरक्षा पर चिंता जताई है।
ऐसी स्थिति में ऐसे सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह खामोशी राजनीतिक है? क्या यह वोटबैंक के डर, रणनीति या असंवेदनशीलता का परिणाम है? क्या आतंकवाद का दर्द अब राजनीति का विषय भर रह गया है?
लाल किला सिर्फ एक स्मारक नहीं है, यह भारत की स्वतंत्रता, शक्ति और संप्रभुता का प्रतीक है। ऐसी जगह के आसपास हुआ हमला केवल निर्दोष नागरिकों पर नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा पर प्रहार माना जाता है। दिल्ली में सुरक्षा व्यवस्था अत्यधिक सख्त मानी जाती है। यदि ऐसी जगह पर आतंकवादी सफलता पाते हैं, तो इसका मतलब है कहीं न कहीं खुफिया व्यवस्था में कमी रही, सुरक्षा चेन की कमजोरी और सबसे महत्वपूर्ण आतंकियों का बढ़ता साहस है। हमले के बाद सोशल मीडिया, स्थानीय लोग, आम जनता, सुरक्षाबल, सबने तेजी से प्रतिक्रिया दी। लेकिन राजनीति का एक बड़ा हिस्सा चुप है। सात दिन तक इतने बड़े नेताओं द्वारा कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया न देना सिर्फ लापरवाही नहीं माना जा सकता है। इसके पीछे कई संभावित कारण हो सकते हैं।
भारतीय राजनीति में कुछ मुद्दों को "सुरक्षित" और कुछ को "संवेदनशील" माना जाता है। अक्सर नेता उन विषयों पर बोलने से बचते हैं, जिनसे किसी खास मतदाता समूह की भावनाएँ प्रभावित हो सकती हैं। उदाहरण के तौर पर आतंकवाद पर बयान देना संवेदनशील माना जाता है। कई दलों को लगता है कि ऐसे बयान से उनका विशिष्ट वोटबैंक असहज हो सकता है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र को कमजोर करती है, क्योंकि राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा किसी वर्ग या समुदाय की नहीं हो सकती है। अक्सर देखने में आता है कि आलोचना, प्रेस कॉन्फ्रेंस, विरोध, ट्वीट, यह सभी तब बहुत तेजी से आते हैं जब बात सरकार की किसी नीति या गलती की हो। लेकिन जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा या आतंकवाद की हो, तो वही आवाजें धीमी पड़ जाती हैं। यह दोहरे मानदंड का संकेत दिखता है। बहुत से राजनीतिक दलों को लगता है कि आतंकवाद पर बोलने से वे सरकार की लाइन में खड़े दिखेंगे जिससे विपक्षी राजनीति कमजोर होगी, जबकि यह भ्रम है। क्योंकि आतंकवाद सरकार का नहीं, देश का मुद्दा होता है।
यह तथ्य असहज करने वाला है, लेकिन सच यह है कि भारतीय राजनीति में मानवाधिकार से ज्यादा महत्व राजनीतिक अधिकारों को दिया जाता है। पीड़ितों से ज्यादा वक्त राजनीतिक अवसरों पर खर्च होता है। राष्ट्रीय मुद्दों को पार्टी की सुविधा से मापा जाता है। जबकि नेतृत्व का मतलब होता है संकट में साथ खड़ा होना, कठिन मुद्दों पर बोलना, जनता की पीड़ा को महसूस करना और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर एक स्वर बनकर उभरना। कई नेताओं ने इस जिम्मेदारी को निभाया नहीं है।
विपक्ष लोकतंत्र में बेहद महत्वपूर्ण होता है। एक मजबूत विपक्ष लोकतंत्र को बचाए रखता है। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या आज का विपक्ष “राष्ट्रीय मुद्दों का विपक्ष” है या केवल “सरकार-विरोध” का विपक्ष? यदि विपक्ष आतंकवाद, सीमा सुरक्षा, राष्ट्रीय हित और नागरिक सुरक्षा जैसे विषयों पर चुप रहता है, तो वह राष्ट्र की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर रहा है। देश की जनता स्मार्ट है। वह यह देखती है कि कौन किस मुद्दे पर बोलता है और किस पर नहीं।
जब जनता देखती है कि मंदिरों पर हमले हों, सीमा पर सैनिक शहीद हों, शहरों में धमाके हों और कई नेता चुप रहें, तो जनता यह मान लेती है कि “ये मुद्दे इनको महत्वपूर्ण नहीं लगते हैं।” यह धारणा लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
कुछ राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या, वोटबैंक समीकरण, चुनावी रणनीति के कारण धार्मिक मुद्दों से दूर रहते हैं, खासकर सनातन धर्म से जुड़े त्योहारों और परंपराओं पर टिप्पणी से। लेकिन इसे “हिन्दू विरोध” कहना एक अत्यधिक सरलीकरण होगा। वास्तविक समस्या यह है कि नेता धार्मिक या सांस्कृतिक मुद्दों पर अपने राजनीतिक हित के अनुसार चयनात्मक रुख अपनाते हैं।
यह प्रश्न कई लोग पूछते हैं। इसके कारण हैं कि कुछ दल धार्मिक पहचान से दूरी बनाए रखते हैं। कुछ दल धर्म का उपयोग केवल चुनावी मंचों पर करते हैं। कुछ दल धर्म की आड़ में समाज को बांटते हैं और कुछ दल धर्म को पूर्णत: अनदेखा कर देते हैं। राजनीतिक दल वोट के लिए, चुनाव के लिए, गुटों के लिए, गठबंधन के लिए धर्म का उपयोग करते हैं। लेकिन इसका समाधान अलग हो सकता है कि हिन्दू समाज को अपने हितों को समझकर वोट देना होगा, न कि जाति-पाति और भावनाओं में पड़कर।
देश में आतंकवाद कोई नया मुद्दा नहीं है। लेकिन राजनीतिक दलों का रवैया दिखाता है कि वे इसे एक “विवादित राजनैतिक विषय” की तरह देखते हैं, जबकि यह एक राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है। भले ही पार्टियों में मतभेद हों, लेकिन आतंकवाद, राष्ट्रीय एकता, सुरक्षा बलों का मनोबल और आतंक समर्थक नेटवर्क का ध्वस्तकरण। इन सभी मुद्दों पर सभी दलों की आवाज एक होनी चाहिए।
नेताओं की चुप्पी के साथ-साथ मीडिया और कई बुद्धिजीवियों की चुप्पी भी चिंता का विषय है। कुछ मुद्दों पर अभियान, कुछ पर मौन, कुछ घटनाओं पर वाद-विवाद और कुछ पर अनदेखी। यह प्रवृत्ति समाज को एकतरफा सूचना देती है और उसे गलत दिशा में ले जाती है।
इसलिए वोट ऐसे को ही देना चाहिए जो राष्ट्रहित को प्राथमिकता देता हो, आतंकवाद पर स्पष्ट नीति रखता हो, संकट में चुप न रहता हो और समाज को जोड़ता हो, तोड़ता नहीं हो। नेताओं को अपनी भूमिका समझनी होगी कि बयान देना नेतृत्व नहीं, जिम्मेदारी है, आतंकवाद पर चुप्पी अपराध जैसी दिखती है और राष्ट्रीय मुद्दों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। भारत को ऐसी राजनीतिक संस्कृति चाहिए जहाँ देश पहले हो, पार्टी बाद में और वोटबैंक सबसे बाद में हो।
लाल किला मेट्रो स्टेशन के पास हुए धमाके ने देश को झकझोरा है। लेकिन उससे भी ज्यादा झकझोर देने वाली बात है कई शीर्ष नेताओं की खामोशी। यह चुप्पी सिर्फ राजनीतिक नहीं हो सकती है, क्योंकि यह देश की लोकतांत्रिक संवेदना पर सवाल है। राजनीति में असहमति अच्छी है, बहस अच्छी है, सरकार की आलोचना भी आवश्यक है। लेकिन जब बात आतंकवाद की हो, तो चुप्पी सही नहीं है।
