बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की आधिकारिक समाप्ति हो गई है, बिहार ने अपना निर्णय 14 नवंबर को ही जनता के मन, मस्तिष्क और मतदान की चेतना द्वारा लिख दिया था। यह चुनाव सिर्फ लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं था, बल्कि एक ऐसा राजनीतिक महाकाव्य था, जिसे आने वाले वर्षों तक भारत के राजनीति विज्ञान में पढ़ाए जाने वाले अध्यायों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज किया जाना चाहिए।
कुल 39 दिनों का यह चुनावी कालखंड एक प्रयोगशाला की तरह था जहां भावनाएँ, रणनीतियाँ, जातीय समीकरण, सामाजिक ध्रुवीकरण, नेतृत्व की चमक, गठबंधन की मजबूती, और लोकतंत्र की धड़कन, सब एक साथ स्पंदित हो रहे थे।
इस चुनाव ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि “लोकतंत्र में अंतिम निर्णय जनता का होता है और जनता कभी गलत नहीं होती है।”
पराजित पक्ष इसे चाहे EVM हैक, वोट चोरी, आयोग पक्षपात, अथवा किसी अन्य साजिश का रूप देकर समझने से इंकार करे, लेकिन वास्तविकता यह है कि लोगों के दिलों में एक बदलाव धीरे-धीरे पक रहा था, और जब वह पक कर तैयार हुआ, तो उसने जनादेश के रूप में एक नई इबादत लिख दी।
बिहार भारत की सबसे जटिल राजनीतिक इकाइयों में से एक है। यहाँ जाति संरचना, वर्गीय विभाजन, क्षेत्रीय संतुलन, नेतृत्व पर विश्वास और राजनीतिक स्मृतियों का प्रभाव गहरा और स्थायी है।
प्रत्येक चुनाव अपने आप में अनोखा होता है, लेकिन 2025 का चुनाव कई मायनों में विशिष्ट था। तीन विशेष कारण इसे ऐतिहासिक बनाता है कि चुनाव में नेतृत्व की सीधी आमने-सामने की लड़ाई थी। गठबंधनों का पुनर्गठन और उनके भीतर की हलचल तेज थी। मतदाताओं की मनोवैज्ञानिक परिपक्वता स्पष्ट दिखाई दी। बिहार की जनता अब सिर्फ वादे नहीं सुनती है, बल्कि पिछले कार्यकाल का प्रदर्शन, भविष्य की संभावनाएँ और चुनावी समय में हुए व्यवहार को बारीकी से देखती है।
चुनावी घोषणा के साथ बिहार एक रंगमंच बन गया था, जहाँ अभिनेता सिर्फ नेता नहीं थे, बल्कि कार्यकर्ता, रणनीतिकार, मीडिया, सोशल मीडिया टीमें और सबसे महत्वपूर्ण था कि, जनता भी बराबरी से शामिल थी।
इन दिनों में बिहार ने भाषा के सभी रंग देखे थे, जिसमें सम्मान, व्यंग्य, उपहास, कटाक्ष, चुनौती, आरोप-प्रत्यारोप और कभी-कभी मर्यादा भंग तक शामिल था। नेताओं के भाषणों में भावनाओं का ज्वार भी था और अहंकार की झलक भी। शुरुआत में जो मुद्दे प्रमुख थे वह था बेरोजगारी, सड़क एव बिजली, शिक्षा, महंगाई, किसान संकट और जातीय संतुलन। वे अचानक पीछे छूट गए और चुनाव को आगे बढ़ाया, गठबंधन समीकरण, नेतृत्व की विश्वसनीयता और उम्मीदवारों की व्यक्तिगत छवि।
प्रत्येक चुनाव में एक चरण आता है जब जनता चुपचाप निर्णय बना लेती है। इस चुनाव में भी वैसा ही दिखा। “लोकतंत्र के शांत क्षण में सबसे बड़ा निर्णय होता है।” बिहार के गांव, चौपाल, शहरों की गलियां, चौकी-चौराहों पर होने वाली शांत और धीमी फुसफुसाहटें ही अंतिम परिणाम का आधार बनीं।
2025 में यह मनोवैज्ञानिक परिवर्तन सबसे रोचक रहा। लोग नाराज थे, परंतु केवल नाराज नहीं थे। वे विकल्प देख रहे थे। वे भविष्य की दिशा तय कर रहे थे। जनता ने उन नेताओं पर भरोसा किया जिन्होंने धरातल पर काम किया, जिनकी भाषा संयमित रही, जो सामाजिक सामंजस्य की बात करते थे, जो बिहार के भविष्य की स्पष्ट तस्वीर दे पाए। और जनता ने दूरी बना ली कटु भाषा, अत्यधिक आत्मविश्वास, तिरस्कारपूर्ण वक्तव्यों और गठबंधन की अंतहीन कलह से।
राजनीति विज्ञान के छात्रों के लिए यह चुनाव एक केस स्टडी है।इसके कारण हैं कि कैसे नीतियाँ बनती हैं, नरेटिव सेट होता है, जनता की मनोविज्ञान बदलती है और कैसे चुनाव मैनेजमेंट किया जाता है। यह चुनाव इस बात का बड़ा उदाहरण है कि “सोशल मीडिया का शोर हमेशा जीत की गारंटी नहीं होता है।” छात्र सीख सकते हैं कि कब गठबंधन लाभ देता है, कब नुकसान और जनविश्वास किस तरह बदलता है। नेता की छवि, व्यवहार और भाषा चुनाव को कैसे पलट सकता है इस चुनाव ने स्पष्ट कर दिया है।
पराजित दलों ने अपनी पुरानी परंपरा को निभाते हुए EVM, चुनाव आयोग, प्रशासन और अधिकारियों पर आरोप लगा रहे हैं। लेकिन बिहार का सच यह कहता है कि “हार से पहले ही जनता संकेत दे चुकी थी।” लोकतंत्र में यह समझना आवश्यक है कि हार लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है और उसे स्वीकार करना भी लोकतंत्र की परिपक्वता है।
2025 के बिहार चुनाव ने सिर्फ बिहार ही नहीं, बल्कि पूरे भारत को संदेश दिया है कि वे सुनती हैं, सोचती हैं, और देर से सही, पर निर्णय स्वयं लेती हैं। यह चुनाव एक सामाजिक परिवर्तन का संकेत है। वोटर अब परिपक्व हो चुके हैं। मजबूत नेतृत्व के सामने गठबंधन का गणित ढह सकता है।
बिहार की जनता लगातार नेतृत्व के व्यवहार का विश्लेषण कर रहा था, चुनाव में स्थानीय मुद्दे प्रबल था। उम्मीदवारों की व्यक्तिगत छवि मजबूत फैक्टर बन चुका था। जातीय समीकरण टूटने लगा था। युवा वर्ग निर्णायक भूमिका में था। ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में हवा एक दिशा में थी। पराजित पक्ष ने इन संकेतों को नहीं पढ़ा, और चुनाव परिणाम उनके लिए “अचानक” लगने लगा। लेकिन जनता के लिए यह अप्रत्याशित नहीं था, बल्कि स्वाभाविक था।
बिहार का संदेश दलों के लिए स्पष्ट है कि जनता को हल्के में न लें। भाषा और व्यवहार से ही छवि बनती है, कड़वाहट और अहंकार नुकसान देता है। जातीय समीकरण अब अकेले निर्णायक नहीं होता है, बदलते बिहार को समझना होगा। उम्मीदवारों की व्यक्तिगत भूमिका बहुत बड़ी होती है। क्योंकि इस 39 दिन की चुनावी यात्रा में भाव भी थे, भाषा भी, व्यंग्य भी, अहंकार भी, सामंजस्य भी, मर्यादा भी और जनशक्ति की प्रचंड अभिव्यक्ति भी। यह चुनाव आने वाले दशकों तक एक राजनीतिक शोध मॉडल के रूप में पढ़ाया जा सकता है।
