“विशालाक्ष मणिकर्णी शक्तिपीठ” देवी सती का कान के मणिजड़ित कुंडल गिरा था

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना  

वाराणसी, जिसे काशी, अविमुक्त क्षेत्र, आनंदवन या महाश्मशान के नाम से भी जाना जाता है, केवल एक नगर नहीं, बल्कि सनातन धर्म की आत्मा का जीवंत प्रतीक है। इस पवित्र नगरी के हृदय में स्थित मणिकर्णिका घाट वह स्थान है जहाँ जीवन और मृत्यु के बीच की सीमाएँ लुप्त हो जाती हैं। इसी घाट पर विराजती हैं “माँ विशालाक्ष मणिकर्णी”, जो स्वयं भगवती सती का एक दिव्य अंश हैं। यह स्थान 51 शक्तिपीठों में से एक है, जहाँ सती के कान के मणिजड़ित कुंडल गिरा था। 

यह वही स्थान है जहाँ भगवान शिव स्वयं शव परिक्रमा करते हुए तांडव करते-करते थक गए थे, जहाँ भस्म में भी भक्ति जलती रहती है, और जहाँ काल भी काशीवासियों को पराजित कर देता है। 

हिन्दू धर्म में शक्तिपीठों का विशेष महत्व है। इनकी उत्पत्ति का संबंध सती और शिव की उस करुण कथा से है, जिसने सृष्टि के चक्र को संतुलित किया। जब पिता दक्ष ने अपने यज्ञ में भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया और सती ने वहाँ जाकर स्वयं का देहत्याग किया, तब शिव शोकविह्वल होकर सती के शरीर को लेकर ब्रह्मांड में घूमने लगे। उस समय भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के अंग-प्रत्यंग को विभाजित किया। जहाँ-जहाँ अंग गिरा, वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई। इन शक्तिपीठों में से एक है “विशालाक्ष मणिकर्णी शक्तिपीठ”, जहाँ सती के कान के मणिजड़ित कुंडल गिरा था। यहाँ शक्ति के रूप में माँ विशालाक्ष और भैरव के रूप में काल भैरव विराजते हैं। काशी का यह शक्तिपीठ इसलिए भी अद्वितीय है क्योंकि यह साक्षात् शिव नगरी में स्थित है, जहाँ हर श्वास में मोक्ष की गंध है और हर आह्वान में ब्रह्म का नाद।

मणिकर्णिका घाट वाराणसी का सबसे प्राचीन और पवित्र घाट माना जाता है। यह घाट केवल एक दाह संस्कार स्थल नहीं है, बल्कि यह जीवन और मृत्यु के चक्र को पार करने का द्वार है।

‘मणि’ का अर्थ है रत्न और ‘कर्ण’ का अर्थ है कान। पौराणिक मान्यता है कि भगवान विष्णु ने यहाँ तपस्या करते हुए एक कुंड बनाया था जिसे ‘मणिकर्णिका कुंड’ कहा जाता है। जब भगवान शिव उस तपस्या को देखने आए, तो उनकी कान की मणि (रत्न) इस कुंड में गिर गई।

दूसरी मान्यता के अनुसार, यही वह स्थान है जहाँ सती के कान के मणिजड़ित कुंडल गिरा था और इसलिए यह स्थान “मणिकर्णिका शक्तिपीठ” कहलाया।

यह भी कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने शिव को प्रसन्न करने के लिए यहाँ अपने नखों से पृथ्वी में कुंड खोदा और उसमें स्नान किया। भगवान शिव के आँसू से यह कुंड जल से भर गया, जो आज भी निरंतर भरा रहता है चाहे घाट पर कितनी ही आगें क्यों न जलती रहें।

‘विशालाक्ष’ शब्द का अर्थ है, जिसकी दृष्टि अत्यंत विशाल हो। माँ विशालाक्ष को ‘काशी की महादेवी’ कहा जाता है। वे उन सभी को अपने विशाल नेत्रों से कृपा दृष्टि देती हैं जो मोक्ष की कामना लेकर काशी आते हैं।

माँ विशालाक्ष, माँ अन्नपूर्णा का ही एक रूप माना जाता है। कहा जाता है कि काशी में अन्नपूर्णा शरीर हैं तो विशालाक्ष आत्मा हैं।



माँ विशालाक्ष का प्रसिद्ध मंदिर काशी के मीरघाट के समीप, मणिकर्णिका घाट के दक्षिण में स्थित है। मंदिर अपेक्षाकृत छोटा है लेकिन उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा अपार है। मुख्य गर्भगृह में माँ विशालाक्ष की प्रतिमा स्वर्णाभा में विराजती है। वे सजीव प्रतीत होती हैं, जैसे भक्तों को साक्षात् देख रही हो।

मंदिर के चारों ओर हर समय भक्तों की भीड़ रहती है। विशेष रूप से नवरात्र, चैत्र अष्टमी, श्रावण मास और शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ दर्शन हेतु लाखों श्रद्धालु आते हैं।

हर शक्तिपीठ की तरह यहाँ भी माँ के रक्षक के रूप में भैरव विराजते हैं, जिन्हें काल भैरव कहा जाता है। काशी में भैरव का विशेष स्थान है उन्हें “काशी का कोतवाल” कहा जाता है।

कहा जाता है कि कोई भी व्यक्ति यदि काशी आता है, तो पहले उसे काल भैरव की अनुमति लेनी होती है। भैरव बिना उनकी अनुमति के काशी के भीतर प्रवेश या प्रस्थान नहीं होने देते।

“विशालाक्ष मणिकर्णी” शक्तिपीठ में भी भैरव की उपस्थिति उसी परंपरा का प्रतीक है, शक्ति और शिव के अद्वैत का प्रमाण।

काशी को अविमुक्त क्षेत्र कहा गया है अर्थात् वह स्थान जहाँ भगवान शिव कभी नहीं छोड़ते। यहाँ मृत्यु को भी उत्सव माना जाता है क्योंकि काशी में देह त्यागने वाला प्राणी मोक्ष प्राप्त करता है।

मणिकर्णिका घाट पर शवदाह के समय शिव स्वयं मृतक के कान में “तारक मंत्र” फूंकते हैं, जिससे जीवात्मा संसार के बंधनों से मुक्त होकर शिव में लीन हो जाती है।

इसलिए यहाँ मरना या शवदाह होना पुण्य माना जाता है। अनेक संतों, तपस्वियों और गृहस्थों ने यहाँ अपनी अंतिम साधना पूरी की। कहा जाता है “मणिकर्णिकायां मरणं मुक्तिदायकम्।” अर्थात् मणिकर्णिका में मृत्यु ही मोक्ष का द्वार है।

देवी सती जब अपने पिता दक्ष के यज्ञ में बिना आमंत्रण गईं, तो वहाँ शिव का अपमान देखकर उन्होंने योगाग्नि में अपने प्राण त्याग दिए। शिव शोक में सती का शरीर लेकर घूमने लगे। जब विष्णु ने सुदर्शन चक्र से शरीर के अंग विभाजित किए, तो सती के कान के कुंडल इस स्थान पर गिरा और यहाँ विशालाक्ष देवी का प्राकट्य हुआ।

भगवान विष्णु ने सृष्टि की स्थिरता के लिए यहाँ तपस्या की थी। जब शिव वहाँ आए, तो उन्होंने विष्णु के कान की मणि को जल में गिरते देखा। शिव ने कहा “यह स्थान अब सदा के लिए मणिकर्णिका कहलाएगा, और यहाँ जो मरेगा, वह कभी पुनर्जन्म नहीं लेगा।”

मंदिर का वर्तमान स्वरूप लगभग 18वीं शताब्दी में पुनर्निर्मित माना जाता है। इसके स्थापत्य में मध्यकालीन उत्तर भारतीय शैली के साथ दक्षिण भारतीय प्रभाव भी देखा जा सकता है। मंदिर का गर्भगृह अत्यंत छोटा किंतु भव्य है। बाहर की दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अंकित हैं। प्रवेश द्वार के ऊपर “जय विशालाक्षी माता” लिखा है। मंदिर के निकट ही एक छोटा कुंड है जिसे “विशालाक्षी तीर्थ” कहा जाता है। यहाँ स्नान और पूजा करने से पापों का क्षय होता है, ऐसा विश्वास है।

नवरात्र के दौरान विशेष पूजा, भक्त माँ के नौ रूपों की आराधना करते हुए, दसवें दिन विशालाक्षी के दर्शन करते हैं। मृतक कर्मों में अनिवार्य स्मरण, मणिकर्णिका पर किए जाने वाले श्राद्ध या तर्पण में, विशालाक्षी का नाम लिया जाता है। मंत्र सिद्धि और तांत्रिक साधना, यह स्थान तांत्रिक दृष्टि से अत्यंत शक्तिशाली है। साधक यहाँ सिद्धियों की प्राप्ति के लिए साधना करते हैं। शिवरात्रि और श्रावण मास, इन अवसरों पर भक्त, शिव और शक्ति दोनों की, संयुक्त पूजा करते हैं।

माँ विशालाक्षी केवल भौतिक देवी नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि की प्रतीक हैं। जब दृष्टि विशाल होती है, तो द्वेष, मोह और लोभ अपने आप समाप्त हो जाते हैं।

काशी की इस देवी की करुणा इतनी व्यापक है कि वे केवल साधु या भक्त को नहीं, अपितु हर उस व्यक्ति को आशीष देती हैं जो जीवन के सत्य को समझना चाहता है।

मणिकर्णिका की ज्वालाएँ स्मरण कराती हैं कि मृत्यु अंत नहीं, आरंभ है और विशालाक्ष की मुस्कान कहती है कि जो “अहं” को जला दे, वही अमर है।

स्थानीय किंवदंतियों में कहा जाता है कि काशी में अगर कोई व्यक्ति अनजाने में भी मणिकर्णिका घाट की ओर चला जाए, तो उसे माँ विशालाक्षी की कृपा प्राप्त होती है। यह भी कहा जाता है कि जब भी घाट पर कोई नई चिता जलती है, तो माँ के मंदिर से हल्की घंटियों की ध्वनि सुनाई देती है, मानो देवी स्वयं उस आत्मा को विदा कर रही हो।

मणिकर्णिका घाट के पंडे यह भी कहते हैं कि यहाँ कभी अग्नि शांत नहीं होती। यह “अक्षय अग्नि” है जो युगों से जल रही है। इसी अग्नि से शवदाह होता है और इसी से आत्माएँ परम शांति पाती हैं।

स्कंद पुराण, काशी खंड, और देवी भागवत पुराण में मणिकर्णिका का विस्तार से वर्णन मिलता है। काशी खंड में लिखा है “काश्यामेव मणिकर्ण्यां सतीकर्णमणिर्गत:” अर्थात् काशी की मणिकर्णिका पर सती के कान की मणि गिरी थी।

संत कवि तुलसीदास, कबीर, रविदास, और राजा भोज जैसे कई कवियों ने भी अपने ग्रंथों में मणिकर्णिका की महिमा का गुणगान किया है। कबीर ने कहा था “मणिकर्णिका तट पर जो मरे, सो अमर होई।”

17वीं शताब्दी के फ्रांसीसी यात्री जीन बाप्तिस्ते टैवर्नियर और ब्रिटिश अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने भी मणिकर्णिका घाट का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि यह स्थान निरंतर जली रहने वाली चिताओं के कारण रहस्यमयी और पवित्र प्रतीत होता है।

पुरातत्वविदों के अनुसार, मणिकर्णिका घाट और विशालाक्ष मंदिर का क्षेत्र लगभग 2000 वर्ष से अधिक पुराना है। यहाँ कई परतों में प्राचीन ईंटों और मूर्तियों के अवशेष मिले हैं जो मौर्य और गुप्त काल के हैं।

काशी का धार्मिक जीवन तीन मुख्य शक्ति केंद्रों पर टिका है माँ अन्नपूर्णा, अन्न की दात्री। माँ विशालाक्षी, मोक्ष की दात्री। भगवान विश्वनाथ (शिव), मुक्ति के स्वामी। ये तीनों मिलकर काशी को पूर्ण बनाते हैं। अन्नपूर्णा शरीर का पोषण करती हैं, विशालाक्षी आत्मा को शुद्ध करती हैं, और विश्वनाथ मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं।

वर्तमान में मणिकर्णिका घाट पर प्रतिदिन सैकड़ों शवदाह होते हैं। यहाँ की अग्नि कभी नहीं बुझती, किंतु इसके साथ-साथ घाट के संरक्षण की चुनौती भी बनी रहती है। सरकार और धार्मिक संस्थाओं ने मिलकर घाट की सफाई, जलप्रदूषण नियंत्रण और तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाओं के विकास पर कार्य किया है। इसके बावजूद, मणिकर्णिका का आकर्षण वही है, अनंत, अद्भुत और आत्मिक। यहाँ पहुँचते ही व्यक्ति को जीवन की अस्थिरता का और आत्मा की शाश्वतता का अनुभव होता है।

माँ विशालाक्ष मणिकर्णी का यह शक्तिपीठ केवल एक तीर्थ नहीं है, बल्कि आत्मा के जागरण का केंद्र है। यह वह स्थान है जहाँ मृत्यु, जीवन का उत्सव बन जाती है, जहाँ अग्नि, शुद्धि का प्रतीक है और जहाँ माँ विशालाक्ष अपनी विशाल दृष्टि से हर प्राणी को मुक्त करती हैं। काशी की यह महिमा अनंत है। यहाँ देवता स्वयं निवास करते हैं, और भगवान शिव अपनी जटाओं में गंगा को धारण कर माँ विशालाक्ष के चरणों में नित्य प्रणाम करते हैं।



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