फिल्म “हक” पर रोक लगाने से कोर्ट का इनकार

Jitendra Kumar Sinha
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मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में फिल्म ‘हक’ की रिलीज पर रोक लगाने की याचिका को खारिज कर दिया है। यह मामला उस समय चर्चा में आया जब इंदौर की शाह बानो बेगम की बेटी ने अदालत में याचिका दाखिल कर कहा कि फिल्म ‘हक’ में उनकी मां के जीवन प्रसंगों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, जिससे परिवार की भावनाएं आहत हो सकती हैं। मगर अदालत ने इस दलील को अपर्याप्त मानते हुए कहा कि याचिका में कोई ठोस कानूनी आधार नहीं है, जिसके कारण फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का कोई औचित्य नहीं बनता।

फिल्म ‘हक’ एक सामाजिक और संवेदनशील विषय पर आधारित है। माना जा रहा है कि फिल्म की कहानी शाह बानो केस से प्रेरित है, वह ऐतिहासिक मुकदमा जिसने 1985 में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर पूरे देश में बहस छेड़ दी थी। इस केस के बाद भारत में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को लेकर राजनीतिक और धार्मिक विवाद गहराया था। 

शाह बानो की बेटी का कहना था कि फिल्म में उनकी मां के चरित्र को गलत तरीके से दिखाया गया है और इससे समाज में गलत संदेश जाएगा। उन्होंने फिल्म की रिलीज पर अंतरिम रोक की मांग की थी।

मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा है कि “किसी फिल्म पर केवल आशंका या व्यक्तिगत असहमति के आधार पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।” अदालत ने यह भी कहा है कि यदि किसी व्यक्ति को फिल्म से आपत्ति है, तो सेंसर बोर्ड की प्रक्रिया पहले से तय है और वहीं उचित मंच है।

जज ने यह भी उल्लेख किया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान का मौलिक अधिकार है, और इसे केवल ठोस कारणों पर ही सीमित किया जा सकता है। अदालत ने फिल्म निर्माता और निर्देशक को भी राहत देते हुए कहा कि ‘हक’ की रिलीज में कोई कानूनी बाधा नहीं है।

फिल्म पहले ही सेंसर बोर्ड से प्रमाणन प्राप्त कर चुकी है। बोर्ड ने फिल्म को कुछ परामर्शों के साथ पास किया था। इस स्थिति में अदालत ने माना कि यदि सेंसर बोर्ड ने अपनी प्रक्रिया का पालन किया है, तो न्यायपालिका को उसमें दखल देने की आवश्यकता नहीं है।

यह मामला एक बार फिर उस पुराने सवाल को सामने लाता है कि क्या रचनात्मक स्वतंत्रता की कोई सीमा होनी चाहिए? कई फिल्मकारों का मानना है कि यदि हर संवेदनशील विषय पर रोक लगाने की मांग की जाए, तो समाज में कलात्मक अभिव्यक्ति का गला घुट जाएगा। वहीं, कुछ सामाजिक समूहों का तर्क है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है।

हाईकोर्ट का यह फैसला एक ओर जहां अभिव्यक्ति की आजादी की मजबूती को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर यह भी याद दिलाता है कि कानून तथ्यों पर आधारित होता है, न कि भावनाओं पर। अब देखने वाली बात यह होगी कि फिल्म ‘हक’ दर्शकों के बीच किस तरह की प्रतिक्रिया पाती है।



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