तमिल सिनेमा हमेशा से समाज की गहराइयों को परखने वाली कहानियों के लिए जाना जाता है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए निर्देशक वर्षा भरत की फिल्म “बैड गर्ल” एक संवेदनशील लेकिन साहसी प्रयास के रूप में सामने आई है। थिएटर रिलीज के बाद यह फिल्म अब ओटीटी प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है और खास बात यह है कि दर्शक इसे हिन्दी भाषा में भी देख सकते हैं।
फिल्म की मुख्य किरदार एक ऐसी युवती है जो अपने जीवन में स्वतंत्रता, आत्मसम्मान और पहचान की तलाश में है। वह आधुनिक सोच रखती है, पर एक ऐसे परिवार और समाज में जी रही है जहाँ परंपराएँ और रूढ़ियाँ उसकी उड़ान को सीमित कर देती हैं। अपनी राह बनाने की कोशिश में उसे सख्त माता-पिता, असफल रिश्तों और सामाजिक आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। यही संघर्ष “बैड गर्ल” की आत्मा बन जाता है। यह कहानी सिर्फ एक लड़की की नहीं है, बल्कि उन तमाम युवाओं की आवाज है जो अपनी पहचान और आजादी के लिए समाज की बंदिशों से लड़ रहे हैं।
मुख्य भूमिका में अंजलि शिवरामन ने बेहतरीन अभिनय किया है। उन्होंने अपने किरदार की भावनात्मक जटिलताओं विद्रोह, निराशा और आत्मखोज को बखूबी उकेरा है। हदु हारून, शशांक बोम्मिरेड्डीपल्ली, और तेजेनयन अरुणासलम जैसे कलाकारों ने अपने-अपने किरदारों को सजीव बना दिया है। हर पात्र फिल्म के संदेश को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाया है।
निर्देशक वर्षा भरत ने महिला दृष्टिकोण से कहानी को बहुत संवेदनशीलता और सच्चाई के साथ दिखाया है। फिल्म न तो अत्यधिक नारीवादी दृष्टिकोण अपनाती है और न ही पारंपरिक सोच के सामने झुकती है। यह संतुलन ही फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है। सिनेमैटोग्राफी में रोशनी और रंगों का प्रयोग किरदार की मानसिक स्थिति को दर्शाने में मदद करता है।
फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर कहानी की भावनात्मक गहराई को और बढ़ा देता है। संगीतकारों ने दृश्यों के अनुरूप धुनें रची हैं जो कभी सन्नाटे की तरह चुभती हैं तो कभी आजादी की पुकार बन जाती हैं। संपादन सुगठित है और फिल्म की गति दर्शक को बांधे रखती है।
“बैड गर्ल” समाज के दोहरे मापदंडों पर सवाल उठाती है, जहाँ एक ओर लड़कियों से आजाद सोच की उम्मीद की जाती है, वहीं दूसरी ओर उन्हें सीमाओं में बाँध दिया जाता है। फिल्म यह भी दिखाती है कि असली विद्रोह दूसरों से नहीं, बल्कि खुद से शुरू होता है, जब इंसान अपने डर और असुरक्षाओं पर विजय पाता है।
“बैड गर्ल” सिर्फ एक फिल्म नहीं है, बल्कि एक आत्ममंथन है। यह दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर “अच्छा” और “बुरा” कौन तय करता है समाज या इंसान खुद?
