भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के एक फैसले ने देश की राजनीति और भाषाई विवादों को दशकों तक प्रभावित किया। यह मुद्दा हिंदी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से जुड़ा था, जिसका सबसे अधिक विरोध तमिलनाडु में हुआ। इस फैसले के कारण न केवल तत्कालीन सरकारों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा, बल्कि आने वाले सभी प्रधानमंत्रियों को भी इसके परिणाम भुगतने पड़े।
नेहरू और हिंदी विवाद की जड़ें
1947 में आज़ादी के बाद भारत में भाषा को लेकर गहरा असमंजस था। देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग भाषाएँ बोली जाती थीं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर एक भाषा अपनाने की आवश्यकता महसूस की गई। संविधान निर्माताओं ने हिंदी को आधिकारिक भाषा घोषित किया, लेकिन अंग्रेज़ी को भी एक अंतरिम भाषा के रूप में रखा गया, ताकि प्रशासनिक और तकनीकी दिक्कतें न आएं।
नेहरू सरकार का इरादा 15 वर्षों में हिंदी को पूरी तरह से अंग्रेज़ी की जगह लागू करने का था, लेकिन दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु में इसका कड़ा विरोध हुआ। तमिल नेताओं और जनता को लगा कि हिंदी को थोपने का प्रयास उनकी मातृभाषा और संस्कृति को खतरे में डाल सकता है। इसी विरोध के चलते नेहरू को 1963 में "राजभाषा अधिनियम" लाना पड़ा, जिसमें अंग्रेज़ी को अनिश्चित काल तक जारी रखने का आश्वासन दिया गया।
शास्त्री और इंदिरा के सामने चुनौती
नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने जब हिंदी को आगे बढ़ाने की कोशिश की, तो तमिलनाडु में भारी विरोध प्रदर्शन हुए। हालात इतने बिगड़ गए कि कई छात्रों ने आत्मदाह कर लिया, जिससे केंद्र सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा।
इंदिरा गांधी के समय पर भी यह मुद्दा पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। उन्होंने दक्षिण भारतीय राज्यों को आश्वासन दिया कि अंग्रेज़ी उनके प्रशासनिक कार्यों में बनी रहेगी। इसी कारण तमिलनाडु में कांग्रेस का प्रभाव कम होता गया और द्रविड़ पार्टियों का वर्चस्व बढ़ा।
राजीव गांधी से मोदी तक
राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री को भाषाई संतुलन बनाए रखना पड़ा। मोदी सरकार ने हिंदी को आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन तमिलनाडु में अब भी इसका विरोध होता है।
हाल ही में, तमिलनाडु सरकार और केंद्र के बीच हिंदी को लेकर फिर से विवाद गहराया। डीएमके और अन्य द्रविड़ पार्टियाँ लगातार हिंदी के थोपने का विरोध कर रही हैं, और यह मुद्दा चुनावों में भी अहम भूमिका निभाता है।
नेहरू का यह निर्णय ऐतिहासिक रूप से इतना गहरा था कि आज भी देश की राजनीति पर इसका असर देखने को मिलता है। भारत की विविधता को देखते हुए यह स्पष्ट है कि किसी एक भाषा को पूरे देश पर थोपना संभव नहीं है। शायद यही कारण है कि अंग्रेज़ी आज भी प्रशासन और शिक्षा में अपनी जगह बनाए हुए है।