तमिलनाडु में हिंदी का विरोध और अजान पर चुप्पी ?

Jitendra Kumar Sinha
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तमिलनाडु में हिंदी भाषा का विरोध कोई नई बात नहीं है। खासकर, डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) जैसी पार्टियां हिंदी के खिलाफ मुखर रही हैं। उनका कहना है कि हिंदी थोपने से तमिल संस्कृति और भाषा को खतरा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब राज्य में दिन में पाँच बार अजान अरबी भाषा में दी जाती है, तब इसे कोई खतरा क्यों नहीं माना जाता? क्यों डीएमके और अन्य राजनीतिक दल इस पर कभी सवाल नहीं उठाते?


हिंदी के प्रति घृणा क्यों?

डीएमके का हिंदी विरोध ऐतिहासिक रहा है। 1960 के दशक में जब भारत सरकार ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में बढ़ावा देने की कोशिश की, तब तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। इसके पीछे द्रविड़ियन आंदोलन की विचारधारा थी, जो हिंदी को "उत्तर भारतीय वर्चस्व" का प्रतीक मानती थी। हालांकि, यह विरोध आज भी जारी है, और हिंदी को लेकर डीएमके सरकार अक्सर कठोर बयान देती है।


हाल ही में, जब केंद्र सरकार ने स्कूलों और अन्य सरकारी कार्यों में हिंदी को बढ़ावा देने की बात की, तो तमिलनाडु सरकार ने तुरंत विरोध किया। उनका कहना था कि यह तमिल संस्कृति पर हमला है। लेकिन यही तर्क अरबी भाषा पर लागू क्यों नहीं होता?


अरबी में अजान पर कोई आपत्ति नहीं क्यों?

इस्लाम में दिन में पाँच बार अजान दी जाती है, और यह पूरी तरह अरबी भाषा में होती है। तमिलनाडु में बड़े स्तर पर इसका पालन किया जाता है। अजान को लेकर कोई विवाद नहीं खड़ा किया जाता, न ही डीएमके या अन्य राजनीतिक दल इसे ‘भाषा थोपने’ के रूप में देखते हैं।


क्या तमिलनाडु सरकार को यह नहीं सोचना चाहिए कि जब वे हिंदी को बाहरी भाषा बताकर विरोध करते हैं, तो अरबी भाषा पर चुप क्यों रहते हैं? आखिरकार, अरबी भाषा तमिलनाडु की संस्कृति का हिस्सा नहीं है। तो फिर हिंदी के लिए इतना आक्रोश और अरबी के लिए इतनी सहिष्णुता क्यों?


राजनीतिक लाभ का खेल?

सच्चाई यह है कि डीएमके का हिंदी विरोध राजनीति से प्रेरित है। हिंदी का विरोध करने से उन्हें तमिल गौरव का रक्षक बनने का अवसर मिलता है, जिससे वे स्थानीय जनता को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं। दूसरी ओर, अरबी भाषा या अजान का मुद्दा उठाने से वे एक विशेष वर्ग को नाराज़ कर सकते हैं, जिससे उनका वोट बैंक प्रभावित हो सकता है।


अगर तमिलनाडु में भाषा का सवाल उठाया जाता है, तो यह सभी भाषाओं के संदर्भ में होना चाहिए। अगर हिंदी का विरोध किया जाता है तो फिर अरबी भाषा को भी उसी कसौटी पर परखा जाना चाहिए। लेकिन अगर हिंदी को "बाहरी भाषा" कहकर खारिज किया जाता है, जबकि अरबी को बिना किसी आपत्ति के स्वीकार किया जाता है, तो यह दोहरे मापदंड को दर्शाता है।


तमिलनाडु में डीएमके सरकार का हिंदी विरोध केवल राजनीति से प्रेरित लगता है। अगर हिंदी को जबरदस्ती थोपना ग़लत है, तो फिर अरबी भाषा में दी जाने वाली अजान को भी इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। लेकिन जब तक राजनीतिक स्वार्थ हावी रहेगा, तब तक यह भेदभाव जारी रहेगा।

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