भारत के चौथे राष्ट्रपति डॉ. वी. वी. गिरि: संघर्षों से राष्ट्रपति भवन तक का स

Jitendra Kumar Sinha
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भारत के चौथे राष्ट्रपति वराहगिरी वेंकट गिरि (वी. वी. गिरि) का जीवन प्रेरणादायक संघर्षों और देशभक्ति से भरा हुआ था। उन्होंने एक स्वतंत्रता सेनानी, मज़दूर नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता के रूप में देश की सेवा की और 1969 में भारत के पहले निर्दलीय राष्ट्रपति बनने का इतिहास रच दिया।


वी. वी. गिरि का जन्म 10 अगस्त 1894 को आंध्र प्रदेश के ब्रह्मपुर (अब ओडिशा में) में हुआ था। उनके पिता वराहगिरी वेंकट रत्नम एक प्रतिष्ठित वकील और स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनसे गिरि को देशसेवा की प्रेरणा मिली। प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने आयरलैंड के डबलिन यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई की। वहां पढ़ाई के दौरान ही वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और मजदूर वर्ग के हक के लिए सक्रिय हो गए।


विदेश से लौटने के बाद गिरि जी ने भारत की आज़ादी की लड़ाई में खुलकर हिस्सा लिया। वह 1920 के असहयोग आंदोलन में शामिल हुए और इसके चलते उन्हें जेल जाना पड़ा। इसके बाद वे कई बार गिरफ्तार किए गए, लेकिन उनका हौसला कभी नहीं टूटा। वे महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी रहे और मजदूरों की दशा सुधारने के लिए आजीवन समर्पित रहे।


वी. वी. गिरि ने भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन को नई दिशा दी। वे ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) के अध्यक्ष बने और मज़दूरों के अधिकारों की लड़ाई में सबसे प्रभावशाली चेहरा बनकर उभरे। उन्होंने 1947 में स्वतंत्र भारत के पहले श्रम मंत्री के रूप में काम किया और कई ऐतिहासिक श्रम सुधारों को लागू किया। उनका विश्वास था कि देश की तरक्की तभी संभव है जब मजदूरों को न्याय और सम्मान मिले।


गिरि जी ने अलग-अलग समय पर कई प्रमुख पदों पर कार्य किया। वे भारतीय संसद के सदस्य, केंद्रीय मंत्री, केरल, मैसूर (अब कर्नाटक), और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल तथा भारत के उपराष्ट्रपति (1967-1969) रहे। 1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के निधन के बाद उन्होंने कार्यवाहक राष्ट्रपति का पद संभाला।


1969 के राष्ट्रपति चुनाव में वी. वी. गिरि ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा। उस समय कांग्रेस पार्टी दो धड़ों में बंटी हुई थी — एक इंदिरा गांधी के समर्थकों का और दूसरा पुराने कांग्रेस नेताओं का। इंदिरा गांधी ने खुले तौर पर वी. वी. गिरि का समर्थन किया, जबकि पार्टी ने नीलम संजीव रेड्डी को आधिकारिक उम्मीदवार बनाया था। गिरि ने “अपने विवेक से मतदान करें” (Vote according to your conscience) का नारा देकर सांसदों और विधायकों से समर्थन मांगा — और जीत गए। इस ऐतिहासिक जीत ने न केवल गिरि को राष्ट्रपति बना दिया, बल्कि इंदिरा गांधी को भी कांग्रेस पार्टी पर पूरी तरह हावी कर दिया।


गिरि एक “कार्यकर्ता राष्ट्रपति” माने जाते थे। वे सिर्फ संवैधानिक पद तक सीमित नहीं रहे, बल्कि सामाजिक न्याय, श्रमिक कल्याण और राष्ट्रीय एकता के मुद्दों पर लगातार मुखर रहे। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति की भूमिका को केवल “रबर स्टैम्प” तक सीमित न रहने देने की पहल की।


भारत सरकार ने उन्हें 1975 में भारत रत्न, देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्रदान किया। उनका जीवन दर्शाता है कि संघर्ष, ईमानदारी और सेवा भाव के दम पर कोई भी व्यक्ति देश की सबसे ऊंची कुर्सी तक पहुंच सकता है।


वी. वी. गिरि का जीवन साधारण परिवार से निकलकर असाधारण ऊंचाइयों तक पहुंचने का प्रमाण है। वे न केवल संविधान के संरक्षक थे, बल्कि श्रमिकों, आम लोगों और लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी भी थे। आज भी जब हम “लोकतंत्र की शक्ति” की बात करते हैं, तो वी. वी. गिरि जैसे नेताओं का संघर्ष और योगदान हमारे सामने एक प्रेरणास्रोत बनकर खड़ा होता है।

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