मुगल सम्राट औरंगज़ेब की बेटी, शहज़ादी जेबुन्निसा, एक ऐसी शख्सियत थीं जिनकी विद्वता, काव्य-प्रतिभा और आत्मबल ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया। हालांकि, उनके जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि उन्हें अपने ही पिता द्वारा 21 वर्षों तक दिल्ली के सलीमगढ़ किले में कैद में रखा गया।
जेबुन्निसा का जन्म 15 फरवरी 1638 को हुआ था। वह औरंगज़ेब और दिलरस बानो बेगम की सबसे बड़ी संतान थीं। बचपन से ही उन्हें पढ़ाई-लिखाई का गहरा शौक था। केवल सात वर्ष की आयु में उन्होंने पूरा कुरान याद कर लिया था, जिससे औरंगज़ेब बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें सोने की मोहरें पुरस्कार में दीं। वह फारसी, अरबी, दर्शन और साहित्य में दक्ष थीं। ‘मख़्फ़ी’ नाम से उन्होंने कई बेहतरीन ग़ज़लें और रुबाइयां लिखीं। उनकी रचनाओं का संकलन “दीवान-ए-मख़्फ़ी” के नाम से प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि जेबुन्निसा का दिल बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल पर आ गया था। वह एक बार महफ़िल में उन्हें देखकर उन पर मोहित हो गई थीं। लेकिन औरंगज़ेब को यह प्रेम स्वीकार नहीं था, क्योंकि वह एक कट्टर विचारधारा वाले शासक थे। इसी कारण उन्होंने अपनी ही बेटी को 21 वर्षों के लिए सलीमगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया।
कैद के दौरान जेबुन्निसा का जीवन भले ही एक बंद कमरे तक सीमित हो गया, लेकिन उनकी रचनात्मकता की उड़ान नहीं रुकी। उन्होंने लगभग 5,000 से अधिक शेर और रुबाइयां लिखीं। उनके लेखन में गहरा आध्यात्मिक भाव और भक्ति की झलक देखने को मिलती है। माना जाता है कि कैद के दौरान उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति में भी कविताएं रचीं।
1702 में सलीमगढ़ किले में ही उनका निधन हो गया। उन्हें दिल्ली के काबुली गेट के पास तीस हजारी बाग में दफनाया गया। उनकी कविताएं आज भी दुनिया भर के साहित्य प्रेमियों को भावुक करती हैं और उनके साहस, प्रेम, और विद्वता की कहानी को जीवित रखती हैं।
जेबुन्निसा सिर्फ एक शहज़ादी नहीं थीं — वह एक विचार थीं, एक कलम थीं, जो तानाशाही के साए में भी सच्चाई, प्रेम और कविता की रोशनी जलाती रहीं।