"पहलगाम में धर्म पूछकर ली गई जानें - क्या यह सिर्फ आतंकी हमला था या जिहादी कहर?"

Jitendra Kumar Sinha
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पहलगाम, जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है, वहां अचानक मातम छा गया। जहां हँसी-खुशी, झरनों और बर्फीली वादियों की बातें होती थी, वहां गोलियों की आवाज गूंज उठी। 28 निर्दोष पर्यटकों की हत्या सिर्फ घाटी को ही नहीं, पूरे देश को झकझोर दिया है। लेकिन इस हत्याकांड की भयावहता यहीं खत्म नहीं होती है, क्योंकि यह हत्या किसी सामान्य आतंकी घटना की तरह नहीं है, बल्कि यह हमला धर्म पूछ-पूछकर, पहचान के आधार पर किया गया जघन्य अपराध है।

इस हमले में जिस तरह से पहले पर्यटकों से उनका धर्म पूछा गया, कलमा पढ़ने को कहा गया, खतना की जांच की गई और फिर धर्म के आधार पर उन्हें मारा गया। यह स्पष्ट करता है कि यह एक जिहादी हमले की रणनीति का हिस्सा है।

बीबीसी, अल जज़ीरा और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस ने इस घटना को "armed attack" करार दिया है। यह अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की विश्वसनीयता पर सवाल खडा होता है कि जब मारे गए लोगों का धर्म पूछा गया, उनके धार्मिक प्रतीकों को देखा गया, और फिर मारा गया, तो इसे एक आम आतंकी हमला कहना केवल सच्चाई से मुंह फेरने जैसा है।

घटना के प्रत्यक्षदर्शियों और पीड़ित परिवारों के अनुसार, हमलावरों ने कई लोगों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थक होने का आरोप लगाकर गोली मारी। इसका सीधा मतलब है कि यह हमला भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और चुनी हुई सरकार पर भी था। क्या यह केवल डर फैलाने का प्रयास था या एक राजनीतिक और मजहबी संदेश? भारत को इसका उत्तर तलाशना ही होगा, क्योंकि यह हमला न केवल मासूम नागरिकों पर था बल्कि भारत के संविधान, लोकतंत्र और सांस्कृतिक एकता पर भी है।

अक्सर यह कहा जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन इस हमले में धर्म की जांच करके की गई हत्याएं इस दावे को भी खोखला सिद्ध करती हैं। यदि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, तो फिर यह कैसे हुआ कि सिर्फ एक विशेष धर्म के लोग ही निशाने पर रहे? आतंकियों ने न केवल कलमा पढ़ने को मजबूर किया बल्कि खतना की भी जांच की। क्या यह केवल आतंकवाद था या मजहबी जिहाद? यह सवाल अब उनलोगों से बार-बार पूछना होगा कि आतंकवाद का कोई धर्म होता है या नहीं?, क्योंकि इसमें देश के भविष्य की सुरक्षा छिपी हुई है।

भारत में बहुसंख्यक हिंदू समुदाय ने हमेशा सहिष्णुता का परिचय दिया है, लेकिन क्या उसे ही बार-बार निशाना नहीं बनाया गया है? कश्मीर से लेकर केरल तक, और पाकिस्तान-बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों में, हिंदुओं को या तो मारा गया है या पलायन के लिए मजबूर किया गया है।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू समुदाय का लगातार घटता आंकड़ा इस कटु सत्य का गवाह है। वहां अब मंदिरों को तोड़ा जा रहा है, हिंदू लड़कियों का अपहरण हो रहा है और धार्मिक पहचान के कारण अत्याचार किया जा रहा है। आए दिन समाचारों के माध्यम से सुना जा रहा है।

इस घटना के बाद जिस तरह से कुछ राजनीतिक दलों और तथाकथित सेक्युलर नेताओं ने चुप्पी साधी है, वह निंदनीय है। क्या सेक्युलरिज्म का अर्थ यह है कि बहुसंख्यक समुदाय पर होने वाले अत्याचारों पर चुप रहें? इस तरह की चुप्पी अपने आप में पक्षपात करने का प्रमाण होता है। क्या अगर मरने वाले किसी और समुदाय से होते, तो भी यही चुप्पी होती?  मुझे लगता है कि भारत को अब सच्चे सेक्युलरिज्म और न्यायप्रियता के रास्ते पर चलना चाहिए, न कि राजनीतिक वोट बैंक के तर्क पर।

भारत को अब यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह किसी भी तरह के मजहबी आतंकवाद से न तो डरेगा, न झुकेगा। इसके लिए जरूरी है कि आतंकी संगठनों के खिलाफ सीधी कार्रवाई की जाए, आतंकियों के समर्थकों और प्रोपेगेंडा चलाने वालों पर सख्त कदम उठाए जाएं, धर्म के नाम पर हिंसा को आतंकवाद की सबसे घृणित श्रेणी में रखा जाए और पीड़ित परिवारों को न केवल मुआवजा, बल्कि सम्मान और सुरक्षा भी दी जाए।

पहलगाम की घटना केवल एक आतंकी हमला नहीं है। यह एक चेतावनी है कि मजहब के नाम पर चल रही हिंसा अब हदें पार कर रही है। यह अब जरूरी हो गया है कि भारत नरम रुख छोड़कर कड़े कदम उठाए। देश को यह सोचना होगा कि कब तक हम "धर्मनिरपेक्षता" के नाम पर अपनी आंखें मूंदे रहेंगे? कब तक मासूम जानें जाती रहेंगी और हम उन्हें "armed conflict" कहकर भूल जाएंगे? अब समय आ गया है कि पहलगाम को केवल एक खबर न बनने दिया जाए, बल्कि इसे आंख खोलने वाली सच्चाई माना जाए। ताकि भविष्य में कोई पर्यटक, कोई बच्चा, कोई बुज़ुर्ग धर्म के आधार पर न मारा जाए।

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