भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत स्वार्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था पर खड़ा करता है संकट

Jitendra Kumar Sinha
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भारतीय लोकतंत्र की सबसे सशक्त पहचान उसकी विधायिकाएं हैं- संसद और विधानसभाएं। इन्हीं के अंदर जनता की आवाज गूंजती है, जनता की समस्याएं उठती हैं और जवाबदेही तय होती है। लेकिन जब यही मंच भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत स्वार्थ के अड्डे में बदलने लगे, तो पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर संकट खड़ा हो जाता है। राजस्थान में भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी) के विधायक जयकृष्ण पटेल की घटना लोकतांत्रिक व्यवस्था पर संकट खड़ा करता है। 

भारतीय विधायिकाओं में प्रश्नकाल को लोकतंत्र की आत्मा कहा जाता है। यह वह समय होता है जब जनप्रतिनिधि सरकार से प्रश्न करते हैं, जनता की परेशानियों को सीधे-सीधे मंत्रियों और अधिकारियों के संज्ञान में लाते हैं। लेकिन अगर यह मंच व्यक्तिगत स्वार्थ में बदल जाए तो इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था का हत्या करना ही कहा जायेगा। 

चूकि राजस्थान के बीएपी विधायक जयकृष्ण पटेल को, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (ACB) ने रंगे हाथ पकड़ा है और आरोप है कि उन्होंने विधानसभा में खान विभाग से जुड़े सवाल को वापस लेने के लिए एक खनन कारोबारी से करोड़ों रुपये की मांग की थी। इससे स्पष्ट होता है कि यह केवल भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि सत्ता की ताकत का दुरुपयोग भी है। जबकि विधायिका का दायित्व होता है कि जनता के प्रति जवाबदेही तय करना, लेकिन जब वही विधायक सवाल उठाने या न उठाने के एवज में पैसे मांगे, तो यह सीधा लोकतंत्र पर हमला ही कहा जायेगा। 

जबकि विधायिका का प्रश्नकाल का उद्देश्य होता है जनता की समस्याओं को सामने लाना। मंत्रियों को जवाब देना होता है, जिससे नीतियों में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ती है। कई बार उठाए गए सवालों के चलते सरकारों को अपनी नीतियों में बदलाव करना पड़ता हैं। प्रश्नकाल से ही पता चलता है कि सरकार जनता के प्रति कितनी संवेदनशील है। लेकिन इन सभी उद्देश्यों पर तब पानी फिर जाता है जब कोई सवाल धन के बदले में बनाया या हटाया जाता है।

देखा जाय तो यह कोई पहला मामला नहीं है। क्योंकि 2005 में संसद में स्टिंग ऑपरेशन हुआ था, जिसमें  11 सांसदों को कैमरे पर पैसे लेकर सवाल पूछने का वादा करते हुए पकड़ा गया था। संसद ने इन्हें निष्कासित कर दिया था। यह भारत के संसदीय इतिहास का पहला बड़ा नैतिक झटका था। उसी प्रकार 2023 में महुआ मोइत्रा प्रकरण हुआ था, जिसमें तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा पर एक कारोबारी से प्रश्न पूछने के लिए लॉगिन क्रेडेंशियल साझा करने और पैसे लेने के आरोप लगा था। लोकसभा की एथिक्स कमेटी की सिफारिश पर उन्हें संसद से निष्कासित कर दिया गया था।

भारतीय संसद और विधानसभाओं में "आचरण समिति" का गठन इसीलिए किया गया है कि वह माननीय सदस्यों के आचरण पर निगरानी रखे। लेकिन वास्तविकता यह लगता है कि इन समितियों की सक्रियता केवल चर्चाओं तक सीमित रहती है। जब तक यदि सख्त कार्रवाई और पारदर्शी जांच नहीं होगी, ऐसे कृत्य दोहराए जाते रहेंगे।

जब कोई जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है, तो संबंधित दल का रवैया भी जांच के घेरे में आना चाहिए।क्योंकि संबंधित दल क्या उस विधायक को तुरंत पार्टी से निलंबित करता है? क्या उससे जवाब मांगता है? अफसोस की बात है कि ज़्यादातर दल या तो चुप्पी साध लेता हैं या फिर जांच को राजनीतिक साजिश करार देकर मामले को भटका देता हैं।

जनता को चाहिए कि वह सोच समझकर वोट करें ताकि ईमानदारी, पारदर्शिता और काम करने की इच्छा वाले उम्मीदवार ही चुनाव जीत सके, न कि अपना आदमी" या जाति-धर्म वाले। ऐसा करने पर ही जनप्रतिनिधि खुद को राजा नहीं समझेंगे। विधानसभाओं और संसद की कार्यवाही में लगातार गिरावट देखी जा रही है। कभी-कभी तो प्रश्नकाल पूरा ही स्थगित हो जाता है। कई बार माननीय अनुपस्थित रहते हैं या सवाल पूछने के बाद खुद ही मौजूद नहीं होते। 

जब कोई विधायक या सांसद पैसे लेकर सवाल पूछे या वापस ले, तो जनता के मन में एक ही सवाल उठता है, क्या हम इन्हें अपना प्रतिनिधि मानें या दलाल? यह सिर्फ सवालों की खरीद-फरोख्त नहीं है, यह भरोसे की हत्या है। लोकतंत्र का आधार ही यह है कि जनता अपने प्रतिनिधियों पर भरोसा कर सके। अगर यह भरोसा ही टूट जाए, तो लोकतंत्र केवल एक तमाशा बनकर रह जाता है। आज आवश्यकता प्रतीत होता है कि लोकतंत्र में जवाबदेही को केवल भाषणों तक सीमित न रखा जाए। ईमानदार जनप्रतिनिधि ही लोकतंत्र को जीवित रख सकते हैं। लेकिन इसके लिए जनता को भी जागरूक होना पड़ेगा और पार्टियों को स्वार्थ के बजाय सिद्धांतों की राजनीति करनी होगी।



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