पश्चिम बंगाल में भाषा और संस्कृति - देती है सुरक्षा संकट

Jitendra Kumar Sinha
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भारत और बांग्लादेश की साझा सीमाएं केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, भाषायी और पारिवारिक संबंधों से भी जुड़ी हुई हैं। खासकर पश्चिम बंगाल में भाषा और संस्कृति की समानता ने एक ऐसा सामाजिक आवरण तैयार कर दिया है जो स्थानीय लोगों की पहचान को चुनौती दे रहा है। यही आवरण अब राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा बन गया है। 

भारत और बांग्लादेश के बीच कुल 4,096 किलोमीटर लंबी सीमा है, जिसमें से लगभग 2,217 किलोमीटर अकेले पश्चिम बंगाल से लगी है। यह सीमा जटिल भौगोलिक परिस्थितियों से भरी हुई है। दोनों देशों के बीच गंगा, पद्मा, इच्छामती, तीस्ता और दूसरी सहायक नदियाँ सीमाओं को विभाजित करती हैं, लेकिन पारगमन को भी आसान बनाती हैं। दलदल और वन क्षेत्र जहां नियमित निगरानी मुश्किल है। घनी आबादी: सीमा पर बसे गांवों में दिन-रात की आवाजाही सामान्य है जिससे पहचान करना कठिन होता है कि कौन स्थानीय है और कौन घुसपैठिया। यहाँ की सीमा की प्रकृति इतनी नरम है कि इसे 'रेशमी पट्टी' कहा जाने लगा है। यह ऐसा मार्ग है जिससे,  बांग्लादेशी नागरिक बिना ज्यादा रोक-टोक के भारत में प्रवेश कर जाते हैं।

पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा और मेघालय जैसे राज्यों में बांग्ला और उससे मिलती-जुलती भाषाएं बोली जाती हैं। खानपान, पोशाक और रीति-रिवाज भी इतने समान हैं कि बांग्लादेशी घुसपैठिए स्थानीय लोगों में आसानी से घुल-मिल जाते हैं। क्योंकि पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश दोनों में बांग्ला भाषा बोली जाती है, जिससे पहचान करना मुश्किल होता है। त्योहार, शादी की परंपराएं, यहां तक कि नाम रखने की शैली भी पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में समान है। इसी सांस्कृतिक समानता की वजह से सीमा सुरक्षा बल (BSF) और स्थानीय पुलिस को अक्सर गलतफहमी होती है कि कौन व्यक्ति स्थानीय है और कौन विदेशी।

बांग्लादेश से भारत में घुसपैठ कोई अचानक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि लगता है कि यह एक सुव्यवस्थित नेटवर्क के तहत चलता है। इच्छामती, गंगा, तीस्ता जैसी नदियाँ सीमा पार करने का मुख्य माध्यम हैं। रात के अंधेरे और मौसम की आड़ में पारगमन होता है। सीमावर्ती गांवों में कुछ लोग पैसे के लालच में घुसपैठ में मदद करते हैं। इनके पास नावें, छुपाने के लिए जगहें, और BSF मूवमेंट की जानकारी होती है। घुसपैठ के बाद सबसे पहले नकली दस्तावेज बनवाए जाते हैं। फर्जी आधार कार्ड, राशन कार्ड, पैन कार्ड, और जन्म प्रमाणपत्र—सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाता है। सूत्रों के अनुसार, 2021 से 2023 के बीच पश्चिम बंगाल में 12,000 से ज्यादा फर्जी आधार कार्ड जब्त किए गए हैं।

जैसे ही घुसपैठियों के हाथ में नकली दस्तावेज आता हैं, वह पश्चिम बंगाल छोड़कर देश के अन्य राज्यों की ओर बढ़ जाते हैं। उनकी प्रमुख ठिकाने दिल्ली है जहां मजदूरी, निर्माण और घरेलू कामकाज में घुल-मिल जाना उनके लिए आसान होता है। गुजरात में कपड़ा उद्योग, हीरा कटिंग और छोटी फैक्ट्रियों में आसानी से रोजगार मिल जाता है। उसी प्रकार महाराष्ट्र के मुंबई और पुणे जैसे शहरों में मजदूरी और ड्राइवरी में घुसपैठ हो जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि फर्जी दस्तावेज से बैंक खाता, मोबाइल सिम, और किराए पर मकान लेना, समय के साथ स्थानीय समाज में शादी और सामाजिक संबंध स्थापित करना, इनके लिए आसान हो जाता है।

असम में ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे गांवों से घुसपैठ आसान होता है। NRC (National Register of Citizens) लागू होने के बावजूद सैकड़ों घुसपैठिए अभी भी मौजूद हैं। त्रिपुरा की अधिकांश जनसंख्या बांग्लाभाषी होने के कारण नागरिकता की पुष्टि चुनौतीपूर्ण है। सूत्रों के अनुसार, हर वर्ष अनुमानित 1,000 से 1,200 घुसपैठिए प्रवेश करते हैं। मेघालय के घने जंगल, ग्रामीण मार्ग और नदी क्षेत्र घुसपैठ के लिए उपयुक्त है।

जब घुसपैठिए भारत में रहकर वैध दस्तावेज हासिल कर लेते हैं, तो वे केवल नागरिक ही नहीं बनते, बल्कि देश की सुरक्षा व्यवस्था के लिए भी खतरा बन जाते हैं। कई बार समाचारों में ऐसी रिपोर्ट सामने आती हैं कि बांग्लादेशी घुसपैठिए आतंकी संगठनों के लिए काम करते हैं, फर्जी दस्तावेज के आधार पर वोटर ID बनवाकर चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं और  महिलाओं एव बच्चों की तस्करी में कई बांग्लादेशी गिरोह शामिल हैं।

बांग्लादेशी घुसपैठ का असर केवल सुरक्षा तक सीमित नहीं है, यह सामाजिक और आर्थिक ढांचे को भी प्रभावित कर रहा है। कम मजदूरी पर काम करने को तैयार घुसपैठिए स्थानीय श्रमिकों के लिए चुनौती बन जाते हैं। शहरों के किनारे अवैध कॉलोनियां बसती जा रही हैं। कई रिपोर्टों में देखा गया है कि चोरी, लूट, दंगा और तस्करी जैसे अपराधों में ऐसे लोगों की संलिप्तता है।

बांग्लादेशी घुसपैठ भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक संरचना और आर्थिक स्थिरता के लिए गंभीर चुनौती है। 'रेशमी पट्टी' की नरम सीमाएं, साझा संस्कृति का सुरक्षा कवच और प्रशासनिक उदासीनता ने इस समस्या को और गहरा कर दिया है। अब आवश्यकता है एकजुट राजनीतिक संकल्प, तकनीकी सुदृढ़ता और नागरिक चेतना की। अगर समय रहते कठोर कदम नहीं उठाए गए, तो यह 'रेशमी पट्टी' भविष्य में पूरे राष्ट्र के लिए कांटों का ताज बन सकती है।

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