स्वदेशी रक्षा तकनीक में आत्मनिर्भरता की ओर भारत

Jitendra Kumar Sinha
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भारत ने एक और ऐतिहासिक उपलब्धि अपने नाम दर्ज कर ली है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने मध्यम वायुमंडल (स्ट्रैटोस्फियर) में सफलतापूर्वक स्वदेशी एयरशिप का परीक्षण कर दिखाया है कि अब भारत न केवल जमीनी मोर्चे पर, बल्कि आकाशीय क्षेत्र में भी मजबूती से अपने कदम जमा रहा है। यह सफलता एक ओर जहां सैन्य निगरानी को नई ऊंचाइयां देगी, वहीं दूसरी ओर, यह तकनीकी आत्मनिर्भरता ‘मेक इन इंडिया’ मिशन की एक सशक्त झलक है।

रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) द्वारा विकसित स्ट्रैटोस्फेरिक एयरशिप का परीक्षण मध्यप्रदेश के श्योपुर स्थित परीक्षण स्थल से किया गया। इस स्वदेशी एयरशिप को एरियल डिलीवरी रिसर्च एंड डेवलपमेंट एस्टेबलिशमेंट (एडीआरडीई), आगरा ने तैयार किया है। एयरशिप लगभग 17 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंच कर पूरे 62 मिनट तक हवा में तैरता रहा। इस दौरान उड़ान के महत्वपूर्ण पहलुओं जैसे एन्क्लोजर प्रेशर कंट्रोल और इमरजेंसी डिफ्लेशन की भी जांच की गई।

स्ट्रैटोस्फेरिक एयरशिप एक उन्नत ‘लाइटर दैन एयर’ प्रणाली है जो बेहद ऊंचाई पर लंबे समय तक मंडरा सकती है। यह हवा से हल्की गैसों (जैसे हाइड्रोजन या हीलियम) से भरी होती है और बिना किसी पायलट के ऑटोमेटिक तरीके से कार्य करती है। इसका उपयोग मुख्यतः निगरानी, टोही, संचार और आपदा प्रबंधन में होता है। यह एक प्रकार का “अल्ट्रा हाई एल्टीट्यूड ऑब्जर्वेशन स्टेशन” है जो निरंतर दुश्मन की हरकतों पर नजर रखने में सक्षम है।

स्ट्रैटोस्फेरिक एयरशिप की पूरी तकनीक को भारत में डीआरडीओ द्वारा विकसित किया गया है, जिससे यह आत्मनिर्भर भारत के दृष्टिकोण को मजबूती प्रदान करता है। यह एयरशिप 17 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंच सकता है, जिससे सीमाओं पर सतत निगरानी रखना संभव हो जाता है। पारंपरिक सैटेलाइट या ड्रोन की तुलना में यह तकनीक ज्यादा किफायती और कम ऊर्जा में काम करने वाला है। यह एयरशिप लगातार घंटों से लेकर दिनों तक एक ही स्थान पर रह सकता है, जिससे रियल टाइम निगरानी संभव होती है। प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत सामग्री पहुंचाने, संचार बनाए रखने और क्षेत्रों की स्थिति समझने के लिए भी यह बेहद उपयोगी होगा।

स्ट्रैटोस्फेरिक एयरशिप के सफल परीक्षण से भारतीय सेना को सीमाओं पर एक रणनीतिक बढ़त मिलेगी। यह दुश्मन की घुसपैठ, मूवमेंट और गतिविधियों पर चौबीसी घंटा यानि दिन-रात (24x7) नजर रखने में सक्षम है। खासकर चीन और पाकिस्तान जैसी सीमाओं पर, जहां टेढ़े-मेढ़े इलाकों में निगरानी कठिन होती है, वहां यह तकनीक गेम चेंजर साबित हो सकता है।

अब तक अमेरिका, चीन और कुछ यूरोपीय देशों के पास ही स्ट्रैटोस्फेरिक एयरशिप जैसी तकनीक थी। भारत ने इस परीक्षण के जरिए न केवल इस श्रेणी में अपनी उपस्थिति दर्ज की है, बल्कि यह साबित कर दिया है कि भारतीय वैज्ञानिक और तकनीशियन किसी से कम नहीं हैं। यह ‘टेक्नोलॉजिकल संप्रभुता’ की दिशा में एक बड़ा कदम है।

स्ट्रैटोस्फेरिक एयरशिप को इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि वह अत्यंत उच्च वायुमंडलीय दबाव, कम तापमान और तेज हवाओं का सामना कर सके। इसमें हीलियम गैस को सुरक्षित और संतुलित बनाए रखने की प्रणाली है। सौर पैनलों से संचालित ऊर्जा प्रणाली है, जिससे यह लंबे समय तक उड़ान भर सकता है। निगरानी और खुफिया जानकारी एकत्र करने के लिए अत्याधुनिक कैमरे और सेंसर लगे हैं, जिससे ग्राउंड स्टेशन को रियल टाइम डेटा भेजा जा सके और यह स्वचालित दिशा निर्धारण में सहायक है। 

स्ट्रैटोस्फेरिक एयरशिप का डिजाइन, निर्माण, परीक्षण और नियंत्रक प्रणाली को पूरी तरह से भारत में ही विकसित किया गया है। इस मिशन में खास ध्यान ‘सस्टेनेबल टेक्नोलॉजी’ और ‘मॉड्यूलर डिज़ाइन’ पर दिया गया है ताकि इसे भविष्य में और भी अधिक उन्नत बनाया जा सके।

भारत के रक्षा मंत्री ने इस उपलब्धि पर डीआरडीओ को बधाई देते हुए कहा कि यह परीक्षण देश को तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में तेजी से आगे ले जाने वाला कदम है। वहीं, डीआरडीओ प्रमुख डॉ. समीर वी. कामत ने इसे "मील का पत्थर" बताया है और कहा है कि आने वाले वर्षों में यह तकनीक न केवल सुरक्षा, बल्कि आपदा प्रबंधन और संचार के क्षेत्र में भी क्रांति लाएगी।

सूत्रों के अनुसार, डीआरडीओ ने इस तकनीक को और अधिक उन्नत बनाने की योजना पर काम कर रहा है। भविष्य में सीमाओं पर लगातार निगरानी के लिए एक पूर्ण ‘एयरशिप बैटालियन’ की स्थापना, आपदा-बाढ़-जंगल की आग जैसी घटनाओं में राहत कार्य के लिए प्रयोग, दूरदराज क्षेत्रों में मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट सेवा प्रदान करने के लिए उपयोग, उच्च ऊंचाई पर मौजूद होने के कारण यह छोटे उपग्रहों के प्रक्षेपण में सहायक हो सकता है, इन सभी संभावनाओं की दिशा में विस्तार किया जा सकता है।

अंतरराष्ट्रीय रक्षा विशेषज्ञों और मीडिया हाउसों ने भारत की इस उपलब्धि की सराहना की है। अमेरिका की ‘डिफेंस टुडे’ मैगज़ीन ने इसे “साइलेंट गेम चेंजर” कहा है, वहीं जापान के ‘टेक्नोलॉजी टुडे’ ने डीआरडीओ के वैज्ञानिकों को “एशिया के भविष्य निर्माता” की उपाधि दी है। 

यह परीक्षण सिर्फ एक एयरशिप की उड़ान नहीं थी, यह भारत की वैज्ञानिक सोच, सामरिक नीतियों और तकनीकी आत्मनिर्भरता की ऊंची उड़ान है। यह उन हजारों वैज्ञानिकों की मेहनत का फल है जो दिन-रात भारत को सुरक्षित, शक्तिशाली और आत्मनिर्भर बनाने में जुटे हैं। भारत का यह साहसिक कदम आने वाले वर्षों में उसकी सामरिक और तकनीकी पहचान को और मजबूत करेगा। यह मिशन दर्शाता है कि भारत अब केवल रक्षा उपकरणों का आयातक नहीं, बल्कि विश्व स्तरीय रक्षा तकनीकों का निर्यातक बनने की दिशा में भी आगे बढ़ रहा है। यह उड़ान, भारत की आकांक्षाओं, संकल्पों और भविष्य की राह को दर्शाने वाली प्रेरक है।

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