हनुमान: वानर के वेश में ब्रह्म का प्रकटीकरण

Jitendra Kumar Sinha
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अरण्य की नीरवता और दो तेजस्वी आगंतुक

दोपहर का समय था। सूर्य की किरणें पर्वत की चोटी से छन-छनकर नीचे गिर रही थीं। ऋष्यमूक पर्वत के समीप, पीपल और अशोक के वृक्ष मंद पवन में हिल रहे थे, जैसे प्रकृति भी किसी विशेष आगंतुक के स्वागत में स्वयं को तैयार कर रही हो।

सुग्रीव पर्वत की ऊँचाई से नीचे देख रहा था। वहाँ दो पुरुष चल रहे थे — एक कांति से युक्त, गम्भीर और गरिमामय, और दूसरा तेजस्वी परंतु विनम्र।

“कौन हैं ये दो?” सुग्रीव की आँखों में भय की लकीर दौड़ गई।

“क्या ये मेरे भाई बालि के भेजे हुए सैनिक हैं? क्या इन्हें मुझे मारने भेजा गया है?”

उसने अपने सबसे विश्वस्त मंत्री को बुलाया — हनुमान।


सुग्रीव का संशय और हनुमान की मौन मुस्कान

“हनुमान,” सुग्रीव बोला, “तुम तो नीतिवान, बुद्धिमान और रूपविन्यस्त हो। ब्राह्मण वेश धारण करो, और जाकर पता लगाओ कि ये दो पुरुष कौन हैं। यदि शत्रु हों तो पहचान लो, यदि मित्र हों तो उन्हें यहां आमंत्रित करो। पर ध्यान रहे... अपना असली रूप प्रकट मत करना।”

हनुमान एक क्षण के लिए मौन रहे। उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया —

“स्वामी, मेरा रूप तो केवल एक आवरण है। मैं कोई साधारण वानर नहीं — मैं उस पवन का पुत्र हूँ, जिसकी गति को भी दिशाएँ नहीं बाँध सकतीं। यदि प्रभु श्रीराम को पाने के लिए मुझे वानर वेश छोड़ना पड़े, तो मैं छोड़ दूँ — पर मेरी सेवा का भाव वही रहेगा।”


हनुमान का ब्राह्मण वेश और श्रीराम से पहली भेंट

हनुमान ने मन ही मन प्रणाम किया। उन्होंने योगबल से अपना स्वरूप बदल लिया — अब वे एक सौम्य ब्राह्मण प्रतीत हो रहे थे, जिनकी आँखों में करुणा और मुख से नीति-संयुक्त वाणी निकलती थी।

वे पर्वत से उतर कर दो आगंतुकों के समीप पहुँचे।

“आप कौन हैं, हे वीरों? आपके वक्षस्थल पर धारण किया गया धनुष और नेत्रों में जो तेज है, वह सामान्य नहीं। आप तपस्वी प्रतीत होते हैं, पर योद्धा जैसे भी लगते हैं। क्या आप ब्रह्मा के लोक से आये हैं, या किसी रक्षित तीर्थ से?”

श्रीराम ने लक्ष्मण की ओर देखा। लक्ष्मण ने मुस्कराकर उत्तर दिया —

“ये अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम हैं, और मैं उनका अनुज लक्ष्मण। हम अपनी पत्नी सीता की खोज में वन-वन भटक रहे हैं।”

हनुमान सुनकर स्थिर रह गए। उनकी आँखों में जल भर आया।
जिस नाम को वर्षों से उन्होंने ध्यान में पुकारा था — वह अब सामने था।


अवधिपर्यंत भक्ति का विस्फोट

एक क्षण बाद, हनुमान ने अपनी मुद्रा बदली। उन्होंने हाथ जोड़ लिए और आँखें बंद कीं।
पवनदेव का पुत्र अब स्वयं को रोक नहीं पाया। ब्राह्मण वेष त्याग कर वे अपने दिव्य वानर रूप में प्रकट हो गए — पर वह रूप भी केवल आधा सत्य था। असली सत्य तो था उनकी ब्रह्म-चेतना, जो हर रोम में नर्तन कर रही थी।

वे रामचरणों में गिर पड़े। आँखों से अश्रुधारा बह निकली।


“प्रभु, मैं हनुमान हूँ। पवन का पुत्र, अंजना का गर्भधारण, और शिव का अंश। मेरा जन्म ही आपके चरणों की सेवा के लिए हुआ है। मुझे अपनी छाया बना लीजिए।”


श्रीराम का आशीर्वाद और अंतर की पहचान

श्रीराम ने मुस्कराते हुए उन्हें उठाया और लक्ष्मण से कहा:


“लक्ष्मण, जिसने इतनी निपुणता से, व्याकरण और नीति का पालन करते हुए संवाद किया — वह कोई सामान्य जीव नहीं हो सकता। यह तो ब्रह्मज्ञानी है। योग से पूरित, नीति में पारंगत।”

 

हनुमान के नेत्रों से बहती भक्ति, उनका झुकाव, और नम्रता — यह सब केवल भाव नहीं थे, बल्कि एक परम संन्यासी की तपस्या की परिणति थी।


अंतिम दृश्य: वानर रूप का रहस्य

हनुमान ने श्रीराम को सुग्रीव से मिलाया। लेकिन राम के हृदय में अब यह संदेह मिट चुका था — यह कोई साधारण वानर नहीं, बल्कि वही ब्रह्म का अंश है, जो प्रेम के रूप में प्रकट हुआ है।

वाल्मीकि रामायण में हनुमान को “कविः, मनीषी, शास्त्रवेद्यः” कहा गया है — अर्थात्:

  • कवि: जिनकी वाणी में सृजन है

  • मनीषी: जो तत्त्वज्ञान में सिद्ध हैं

  • शास्त्रवेद्यः: जो वेद और शास्त्रों के ज्ञाता हैं

यहाँ से हनुमान केवल एक योद्धा नहीं, राम के कार्यों के अनिवार्य स्तंभ बनते हैं।

हनुमान का वानर वेश केवल एक रूप था — एक छलावा नहीं, बल्कि तपस्या का आवरण।
वे ना तो बंदर थे, ना केवल वीर। वे थे:

  • शिव के अंश,

  • नीति के ज्ञानी,

  • रामभक्ति के परम उदाहरण,

  • और सनातन धर्म के आधार स्तंभ।


"जो जाने हनुमान को देह,
वो जाने न आत्मा की गेह।
जो जाने उन्हें केवल बंदर,
वो अंधा है, न देखे अंतर।"


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