जाति के जंजाल में जकड़ा है भारत - जातीय जनगणना से क्या समतामूलक, समरस और उदार समाज बनेगा?

Jitendra Kumar Sinha
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भारतीय समाज का ढांचा सदियों से जातीय संरचनाओं पर टिका रहा है। हालांकि संविधान ने सभी को समानता का अधिकार दिया है, लेकिन व्यवहार में आज भी जातिवाद की जड़ें गहराई तक फैली हुई हैं। आजादी के 77 वर्ष बाद भी यह सवाल प्रासंगिक बना हुआ है “क्या भारत जातिवाद से कभी मुक्त हो पाएगा?”

जाति-व्यवस्था का इतिहास वैदिक काल से चला आ रहा है, जब समाज को चार वर्णो में यथा- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र में, विभाजित किया गया था। यह व्यवस्था का मूल उद्देश्य, समाज में कार्य-विभाजन था, लेकिन समय बदलता गया और इसके साथ ही वर्ण व्यवस्था बदल कर, यह व्यवस्था जन्म आधारित हो गई और जाति के आधार पर श्रेष्ठता और हीनता की अवधारणाएं समाज में इतनी गहराई से पैठ बना ली है कि अब यह एक सामाजिक अन्याय का स्थायी रूप बन गई है।

भारत का संविधान जातिवाद के पूरी तरह खिलाफ है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान निर्माण के समय इस बात पर विशेष बल दिया था कि सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलें। अनुच्छेद 15 और 17 जातीय भेदभाव को गैरकानूनी घोषित करता हैं और अस्पृश्यता को अपराध मानता हैं। इसके अलावा बावजूद, समाज में जातीय भेदभाव व्यावहारिक रूप में अब भी जिंदा है।

हाल ही में केन्द्र सरकार ने जातीय जनगणना कराने का के संकेत दिया हैं। यह निर्णय एक तरह से उस सैद्धांतिक विरोध के विरुद्ध है, जो अब तक, दक्षिणपंथी विचारधारा अपनाती रही है। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लंबे समय तक जातीय विभाजन की राजनीति का विरोध किया है। लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में यह भी जातीय गणना की वकालत कर रही हैं।

जाति भारत की राजनीति में एक प्रभावशाली कारण रही है। 1990 के दशक में “मंडल कमीशन” की रिपोर्ट ने इस मुद्दे को नई दिशा दी। पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिलने से समाज के एक बड़े वर्ग को प्रतिनिधित्व मिला, लेकिन इससे जातीय ध्रुवीकरण भी गहरा हुआ।

नेताओं में लालू प्रसाद, अखिलेश यादव, मायावती इत्यादि की राजनीति का आधार ही जातीय समीकरण रहा हैं। लालू यादव ने हाल ही में कहा है कि "हम इन्हें नचाते रहेंगे" । यह बयान न सिर्फ राजनीतिक कटाक्ष है, बल्कि इस सच्चाई को उजागर करता है कि जातिवाद भारतीय राजनीति का स्थायी औजार बन चुका है।

उम्मीद किया जा सकता है की जाति ही है कि सामाजिक संगठन में, जातीय भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठायेगा। लेकिन दुर्भाग्यवश, आज सामाजिक संगठन भी, जाति आधारित बनने लग गया हैं। जैसे- जातीय महासंघ, ब्राह्मण सभा, यादव परिषद, कुशवाहा संघ जैसे संगठन समाज को एक करने की बजाय और विभाजित कर रहा हैं। यह संगठन न केवल सामाजिक समरसता को बाधित करता हैं, बल्कि चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों के लिए 'वोट बैंक' बन जाता हैं।

भारतीय समाज में जाति का सबसे बड़ा प्रभाव 'रोटी और बेटी' के संबंधों पर देखा जाता है। अंतरजातीय विवाह आज भी सामाज में अस्वीकृति का शिकार होता हैं। जब तक विवाह और खानपान जैसे मामलों में जाति का हस्तक्षेप होता रहेगा, तब तक जातिवाद का उन्मूलन एक सपना ही बना रहेगा।

जातीय आरक्षण ने कई दलित और पिछड़े वर्गों को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाया है, लेकिन यह भी सच है कि यह व्यवस्था अब राजनीतिक सौदेबाजी का रूप ले लिया है। आरक्षण की मांग अब आर्थिक नहीं, बल्कि जातिगत जनसंख्या के अनुपात पर की जा रही है। इससे समाज में नए प्रकार का असंतोष जन्म ले रहा है, खासकर उन जातियों में जो 'सवर्ण' कहलाते हैं लेकिन आर्थिक रूप से पिछड़े हैं।

जातिवाद के खिलाफ लड़ाई केवल राजनीतिक निर्णयों से नहीं जीती जा सकती है, बल्कि इसके लिए ज़रूरी है कि शिक्षा प्रणाली में जातीय संतुलन बनाया जाए। अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित किया जाए और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाए। मीडिया और फिल्मों के माध्यम से जातीय समरसता का संदेश फैलाया जाए। आरक्षण को समयबद्ध और मूल्यांकन आधारित बनाया जाए और जातीय संगठनों पर नियंत्रण तथा उनकी भूमिका की समीक्षा किया जाए।

देखा जाय तो नेताओं की भूमिका, आज के समय में, जातीय लाभ उठाने तक किसी भी स्तर पर जाने को तैयार है। कोई भी राजनीतिक पार्टियां भी जातिप्रथा को खत्म करने की दिशा में कोई नीति नहीं बनाई है। बल्कि हर बार जातिवाद का मुद्दा सिर्फ चुनावी रणनीति बनकर उभरा है। नेताओं में लालू प्रसाद, मायावती, अखिलेश यादव और अब राहुल गांधी जैसे नेता जहां जातीय जागरूकता की बात करते हैं, वहीं उन्होंने जातीय मतों को अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए इस्तेमाल करते हैं।

जातिप्रथा केवल सरकार खत्म नहीं कर सकती है बल्कि समाज खत्म कर सकती है वह भी तब, जब आम नागरिक जाति के आधार पर किसी को छोटा-बड़ा नहीं मानेगा, और तभी समाज में असली परिवर्तन आएगा।
यह स्वयं सोचने की बात है कि क्या हमलोग अपने मित्रों, सहकर्मियों, पड़ोसियों, दुकानदारों ……..के साथ जाति पूछकर व्यवहार करते हैं? क्या हम अपनी संतान को जाति से परे रिश्ते बनाने की आज़ादी देते हैं?

वर्तमान समय में जातीय जनगणना का तर्क यह दिया जा रहा है कि जब तक किसी वर्ग की वास्तविक जनसंख्या का अनुमान नहीं होगा, तब तक नीति निर्माण सही नहीं हो सकता है। लेकिन आलोचकों का माने तो यह जातीय जनगणना समाज को और अधिक बांटेगा। जातीय आंकड़े सामने आने पर नए वर्ग आरक्षण की मांग करेंगे और पुराने वर्ग और अधिक आरक्षण बढ़ाने की। सही मायने में यह अंतहीन प्रक्रिया बन जाएगी।

जातिवाद से मुक्ति पाना आसान काम नहीं है, लेकिन असंभव भी प्रतीत नहीं होता है। इसके लिए आवश्यक लगता है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए, सामाजिक समरसता का वातावरण बनना चाहिए, प्रगतिशील शिक्षा नीति लागू होना चाहिए और  नवयुवकों की भागीदारी सुनिश्चित होना चाहिए। जब तक रोटी और बेटी के मामले में जाति बंधन नहीं टूटेगी तब तक जातिवाद का अंत नहीं होगा। भारत को एक समतामूलक, समरस और उदार समाज बनाने के लिए केवल नारों से नहीं, बल्कि ठोस कदमों से और समाज को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा।

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