सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर राष्ट्रपति मुर्मू की आपत्ति: क्या न्यायालय को ऐसा अधिकार है?

Jitendra Kumar Sinha
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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2025 के फैसले पर आपत्ति जताई है, जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा निर्धारित की गई थी। राष्ट्रपति ने इस फैसले को संविधान की भावना के प्रतिकूल बताया और कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 में ऐसा कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। उन्होंने कहा कि संविधान में राष्ट्रपति या राज्यपाल के विवेकाधीन निर्णय के लिए किसी समय-सीमा का उल्लेख नहीं है।


राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की अनुच्छेद 142 के तहत की गई व्याख्या और शक्तियों के प्रयोग पर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जहां संविधान या कानून में स्पष्ट व्यवस्था मौजूद है, वहां धारा 142 का प्रयोग करना संवैधानिक असंतुलन पैदा कर सकता है।


इसके अलावा, राष्ट्रपति ने यह भी सवाल उठाया कि राज्य सरकारें संघीय मुद्दों पर अनुच्छेद 131 (केंद्र-राज्य विवाद) के बजाय अनुच्छेद 32 (नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा) का उपयोग क्यों कर रही हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सरकारें उन मुद्दों पर रिट याचिकाओं के माध्यम से सीधे सुप्रीम कोर्ट आ रही हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 131 के प्रावधानों को कमजोर करता है।


राष्ट्रपति ने संविधान की अनुच्छेद 143(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय से 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। यह प्रावधान बहुत कम उपयोग में आता है, लेकिन केंद्र सरकार और राष्ट्रपति ने इसे इसलिए चुना क्योंकि उन्हें लगता है कि समीक्षा याचिका उसी पीठ के समक्ष जाएगी जिसने मूल निर्णय दिया और सकारात्मक परिणाम की संभावना कम है।


यह घटनाक्रम भारत के संवैधानिक ढांचे में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन और सीमाओं पर एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दे सकता है।

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