भारतीय सनातन संस्कृति में हर शब्द और परंपरा का गहरा अर्थ छिपा होता है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण शब्द है "वामांगी"। शास्त्रों में पत्नी को वामांगी कहा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है, पति के शरीर का बायां अंग। यह मात्र एक शब्द नहीं है, बल्कि पति-पत्नी के बीच के गहन आध्यात्मिक, सामाजिक और भावनात्मक संबंध का द्योतक है।
अब प्रश्न उठता है कि पत्नी को वामांगी क्यों कहा गया? भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार, स्त्री की उत्पत्ति भगवान शिव के बाएं अंग से हुई है और इसका सर्वोत्तम प्रतीक अर्धनारीश्वर स्वरूप है, जिसमें भगवान शिव का दाहिना भाग पुरुष का और बायां भाग माता पार्वती का है। अर्धनारीश्वर दर्शन यह बताता है कि पुरुष और स्त्री दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना एक के दूसरा अधूरा है। इसलिए, पत्नी को वामांगी कहा गया है, जो पति के बायें अंग की अधिकारी होती है और उसके अस्तित्व को पूर्णता प्रदान करती है।
देखा जाए तो हस्तरेखा विज्ञान में भी वामांगी सिद्धांत का महत्व बताया गया है, जिसमें पुरुष के दाहिने हाथ से पुरुष की स्थिति देखी जाती है और बाएं हाथ से पत्नी या जीवनसंगिनी की स्थिति का विश्लेषण किया जाता है। इससे यह दिखता है कि बायां भाग, यानि वाम अंग, स्त्री होती है जो ऊर्जा (शक्ति) का प्रतीक है। स्त्री हमेशा पुरुष जीवन में सौम्यता, प्रेम और पोषण का संचार करती है।
भारतीय धार्मिक अनुष्ठानों में भी स्त्री को पति के बाईं ओर बैठने की परंपरा है। जबकि स्त्री सोते समय, सभा में बैठते समय, सिंदूरदान के समय, द्विरागमन के समय, आशीर्वाद ग्रहण करते समय और भोजन करते समय पति के बायीं ओर बैठती है। मान्यता है कि इन सभी अवसरों पर पत्नी का बायीं ओर रहना शुभ और फलदायी होता है और पति-पत्नी के बीच प्रेम, सौहार्द और समृद्धि बढ़ती है।
सामान्य जीवन में पत्नी हमेशा बायीं ओर रहती है, लेकिन कुछ विशेष धार्मिक अवसरों पर पत्नी को पति के दायीं ओर बैठने का विधान किया गया है। जैसे कन्यादान के समय, विवाह संस्कार में, यज्ञकर्म के दौरान,
जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार और अन्नप्राशन संस्कार। इन कर्मों को पारलौकिक कर्म माना जाता है, जो पुरुष प्रधान होते हैं। इन पवित्र कार्यों में पत्नी दायीं ओर बैठती है ताकि पति-पत्नी एक समर्पित और संगठित जीवन को साकार कर सके।
पत्नी को वामांगी और अर्धांगिनी कहा जाता है। अर्धांगिनी का अर्थ होता है पति का आधा अंग। इसका भावार्थ है कि पति और पत्नी मिलकर एक संपूर्ण इकाई का निर्माण करता हैं। यदि एक अधूरा है तो दूसरा भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार सूर्य के बिना चंद्रमा, दिन के बिना रात और जीवन के बिना मृत्यु अधूरी है। वैसे ही पति के बिना पत्नी और पत्नी के बिना पति अधूरा है।
सनातन धर्म में पति-पत्नी के संबंध को केवल सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी माना गया है। यह रिश्ता प्रेम का, त्याग का, सहयोग का और कर्तव्य का प्रतीक है। पति पत्नी की रक्षा करता है, उसके सम्मान का ध्यान रखता है। वहीं, पत्नी पति का सहचर बनकर उसके सुख-दुख में साथ देती है और दोनों मिलकर परिवार रूपी वृक्ष को सींचते हैं।
महाभारत के शांतिपर्व में भीष्म पितामह ने पत्नी के महत्व पर जोर देते हुए कहा था कि "पति को सदैव पत्नी को प्रसन्न रखना चाहिए, क्योंकि उसी से वंशवृद्धि होती है, वही घर की लक्ष्मी है। यदि लक्ष्मी प्रसन्न होगी, तभी घर में सुख, समृद्धि और शांति का वास होगा।" यह उपदेश आज भी प्रत्येक घर-परिवार के लिए प्रासंगिक है। जब पत्नी प्रसन्न रहती है तो उसका सकारात्मक प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है।
धार्मिक ग्रंथों में पत्नी के विभिन्न तरह के गुणों का वर्णन मिलता है। एक आदर्श पत्नी के लक्षण भी बताए गए हैं, जिसमें स्त्री को पतिव्रता होना, सहनशीलता रखना, मधुर वाणी बोलना, गृहकार्य में निपुण होना, बड़ों का सम्मान करना, धैर्यशीलता और निष्ठा का पालन करना। शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि ऐसी पत्नी ही पति के लिए सौभाग्य का प्रतीक होती है।
आज के परिप्रेक्ष्य में, समाज में जीवनशैली बदल गई है या कहे कि बदल रही है। महिलाएं शिक्षित और आत्मनिर्भर हो रही है, लेकिन पति-पत्नी के रिश्ते की बुनियादी भावना अब भी वही है प्यार, सम्मान और समझ। आज भी, विवाह जैसे पवित्र बंधन में वामांगी की अवधारणा का गहरा असर दिखता है, चाहे वह मंगलसूत्र बांधने की रस्म हो या फिर फेरे लेते समय पति का दायां और पत्नी का बायां स्थान लेना।
पत्नी वामांगी होती है यह केवल एक धार्मिक अवधारणा नहीं है, बल्कि जीवन के सबसे सुंदर रिश्ते का जीवंत उदाहरण भी है। क्योंकि पत्नी पति का सहारा है, उसका संबल है, उसकी अर्धांगिनी है और उसकी वामांगी है। यह रिश्ता प्रेम, विश्वास और सहयोग से चलता है, जो केवल शरीर का ही नहीं, आत्मा का भी मिलन है। सनातन धर्म की यह महान परंपरा आज भी मानव जीवन को प्रेम, करुणा और आनंद की ओर प्रेरित करती है।
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