जनगणना के आँकड़ों से उठ सकता है राजनीतिक समस्या

Jitendra Kumar Sinha
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भारत जैसे बहुजातीय, बहुभाषायी, और बहुसांस्कृतिक देश में जनगणना केवल एक जनसांख्यिकी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि सामाजिक संरचना को जानने-समझने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण माध्यम है। वर्ष 2026-27 में होने वाली आगामी जनगणना को लेकर गृह मंत्रालय द्वारा अधिसूचना जारी हो चुका है। यह जनगणना कई मायनों में ऐतिहासिक और तकनीकी रूप से नया होगा। पहली बार यह पूरी तरह डिजिटल होगा और साथ ही लोगों को 'स्वगणना' यानि Self Enumeration की सुविधा भी दी जाएगी। इस जनगणना की सबसे विशेष बात यह है कि इसमें जातीय आंकड़े भी संकलित किए जाएंगे और यह काम केन्द्र और राज्य सरकार की मान्य जातीय सूचियों से मिलान कर किया जाएगा। यानि जो जातियां सूचीबद्ध होगी, केवल वही गिना जाएगा। इससे एक नई सामाजिक और राजनीतिक हलचल की संभावना बढ़ गई है।

जनगणना को दो चरणों में पूरा किया जाएगा। पहला चरण में पहाड़ी राज्य (उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख), जिसमें 1 अक्टूबर 2026 तक जनगणना पूरा किया जाएगा। दूसरा चरण में मैदानी राज्य, जिसमें 1 मार्च 2027 तक जनगणना की प्रक्रिया पूरा किया जाएगा। डिजिटल ऐप के माध्यम से कर्मचारी सीधे डेटा संग्रह करेंगे, वहीं लोग खुद भी मोबाइल पर अपने परिवार की जानकारी भर सकेंगे, जिसे बाद में सरकारी कर्मचारी जाकर सत्यापित करेंगे।

इस बार जनगणना में तकनीकी माध्यमों का भरपूर उपयोग किया जाएगा, जैसे- जियो टैगिंग, हर घर को जियो से टैग किया जाएगा जिससे स्थान की पुष्टि हो सके। मोबाइल ट्रैकिंग, जनगणना कर्मचारियों की गतिविधि की निगरानी। कोडिंग प्रणाली- हर प्रश्न को कोड से जोड़ा जाएगा जिससे डेटा का विश्लेषण और वर्गीकरण सटीक हो। गलत डेटा अलर्ट,  एप में ऑटोमेटिक अलर्ट सिस्टम होगा, जिससे गलत आंकड़ों को तुरंत पकड़ा जा सके। यह सभी उपाय इस उद्देश्य से किया गया है कि डेटा पारदर्शी, प्रमाणिक और तत्काल हो।

भारत में पहली बार नागरिकों को यह अधिकार दिया गया है कि वे खुद अपने मोबाइल या कंप्यूटर के माध्यम से अपने परिवार की जनगणना जानकारी भर सकेंगे। यह सुविधा शहरी शिक्षित वर्ग के लिए अधिक उपयोगी होगा। इससे प्रगणकों का कार्यभार घटेगा। नागरिकों में स्वतंत्रता और पारदर्शिता की भावना को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए जागरूकता अभियान चलाना होगा ताकि ग्रामीण एवं तकनीक से दूर तबकों तक इसकी पहुंच बन सके।

इस बार का सबसे बड़ा और संवेदनशील मुद्दा है जातीय जनगणना। अब तक जनगणनाओं में केवल एससी और एसटी की गिनती होती थी, लेकिन इस बार ओबीसी और सामान्य वर्ग की जातियों की भी गणना की जाएगी। केन्द्र और राज्य सरकार की ओबीसी, एससी और एसटी सूचियों से मिलान कर ही जातियों को गिना जाएगा। इसका उद्देश्य है कि सटीक जातीय आंकड़े इकट्ठा करना। नीतियों और आरक्षण को वास्तविक आंकड़ों के आधार पर बनाना। जातीय असमानताओं को पहचानना और कम करना। 2011 की जनगणना में 46 लाख जातीय उपनाम सामने आए थे, जिससे डेटा निष्कर्ष देना संभव नहीं हो सका था। इसलिए अब कोडिंग और लिस्टिंग के आधार पर जातियों की संख्या सीमित किया जाएगा।

राजस्थान जैसे राज्य में जहां जातिगत राजनीति की गहरी जड़ें है, जनगणना के यह आंकड़ा सियासी समीकरण बदल सकता हैं। गुर्जर, जाट, मीणा, बिश्नोई जैसे प्रभावशाली समुदायों की हिस्सेदारी को लेकर नया दावा उठ सकता है। पहले से 50% आरक्षण की संवैधानिक सीमा पार हो चुका है, ऐसे में ओबीसी वर्ग के अंदर उपवर्गीकरण की मांग तेज हो सकता है। ईडब्ल्यूएस आरक्षण को लेकर भी नया सवाल उठेगा कि सामान्य वर्ग में कितने लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं।

जातिगत आंकड़ों से सभी प्रमुख राजनीतिक दलों, भाजपा, कांग्रेस, क्षेत्रीय दल, के सामने अपनी रणनीतियां बदलने की चुनौती होगी। गठबंधन नीति में किस समुदाय को कितनी टिकट देनी है? चुनावी घोषणा पत्र में किस जाति समूह के लिए क्या वादा करना है? नए राजनीतिक समीकरण में जातीय समूहों के अनुसार नए दल या फ्रंट का गठन करना। जातीय आंकड़ा सामने आने के बाद संभव है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही अपने परंपरागत वोट बैंक को पुनर्परिभाषित करें।

अब तक यह माना जाता रहा है कि देश में ओबीसी वर्ग की आबादी 50% से ज्यादा है, लेकिन इसकी पुष्टि के लिए कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। यह जनगणना पहली बार बतायेगा कि देश में किस जाति की आबादी कितनी है? कौन-से जातीय समूह सामाजिक रूप से कमजोर हैं? किन्हें वास्तव में सरकारी योजनाओं की जरूरत है? इससे न केवल नीतियों की पुनर्संरचना होगी, बल्कि आरक्षण के असली लाभार्थियों की पहचान भी संभव हो सकेगा।

आदिवासी बहुल क्षेत्र भीलवाड़ा, बांसवाड़ा, डूंगरपुर जैसे जिलों में आंकड़ा सामने आने के बाद क्षेत्रीय आंदोलन फिर जोर पकड़ सकता हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व और संसाधनों की मांग नए रूप में उठ सकता है। जनप्रतिनिधियों पर नई सामाजिक जवाबदेही बन सकता है।

इस डिजिटल जनगणना में नाम, आयु, जन्मतिथि, शिक्षा स्तर, वैवाहिक स्थिति, रोजगार या बेरोजगारी, धर्म, जाति, उपजाति, घर का मालिक कौन है?, आवास स्थिति, शौचालय की सुविधा, बिजली, वाहन, गैस कनेक्शन आदि शामिल हैं। इससे सरकार की योजनाओं की लाभार्थी पहचान आसान होगी।

डिजिटल जनगणना और जातीय आंकड़ों को लेकर कई चुनौतियां भी सामने आ सकता है, जैसे- डेटा गोपनीयता,  इतने संवेदनशील आंकड़ों की सुरक्षा सुनिश्चित करना बड़ी जिम्मेदारी होगी। राजनीतिक दुरुपयोग, जातीय आंकड़ों के आधार पर भड़काऊ राजनीति का खतरा। तकनीकी पहुंच, ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में मोबाइल ऐप से जुड़ना कठिन होगा। सूची विवाद, कौन सी जाति सूचीबद्ध है, कौन नहीं, इस पर विवाद संभावित।

2026-27 की जनगणना सिर्फ आंकड़ों की प्रक्रिया नहीं होगी बल्कि यह भारत की सामाजिक आत्मा का दस्तावेज बनने वाली है। यह पहली बार होगा जब जातियों की पूरी तस्वीर सामने आएगी और नीति निर्माण उसी के आधार पर तय होगा। यह कदम एक ओर जहां सामाजिक न्याय की दिशा में मील का पत्थर हो सकता है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक हलचलों, क्षेत्रीय आंदोलनों और सामाजिक संवादों का नया दौर भी शुरू कर सकता है।



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