जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) देश के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में से एक है, जो हमेशा अपने प्रगतिशील विचारों और सामाजिक बदलाव के समर्थन के लिए जाना जाता है। हाल ही में जेएनयू में एक ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है, अब विश्वविद्यालय में ‘कुलपति’ के पद को ‘कुलगुरु’ कहा जाएगा। इस बदलाव का मुख्य उद्देश्य जेंडर न्यूट्रल भाषा को अपनाना है ताकि भाषा के माध्यम से लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया जा सके।
वर्तमान कुलपति डॉ. शांतिश्री धुलीपुडी पंडित ने यह प्रस्ताव जेएनयू की एग्जीक्यूटिव काउंसिल की बैठक में रखा। उनका मानना है कि ‘कुलपति’ शब्द में पितृसत्ता की छाया है, जो केवल पुरुषों को प्राथमिकता देती है। जबकि 'कुलगुरु' शब्द लिंग-निरपेक्ष है और सभी लिंगों के लिए समान सम्मान प्रदर्शित करता है। यह बदलाव सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक वैचारिक परिवर्तन है जो उच्च शिक्षा संस्थानों में समावेशिता और लैंगिक समानता के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
‘कुलगुरु’ शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है “समस्त परिवार या संस्था का शिक्षक या मार्गदर्शक।” यह शब्द केवल पद का संकेत नहीं करता, बल्कि उस आदर्श का प्रतीक भी है जो ज्ञान, नेतृत्व और मार्गदर्शन को दर्शाता है, बिना किसी लैंगिक भेदभाव के। इस शब्द के चयन से जेएनयू ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह न केवल शिक्षा में, बल्कि भाषा और संस्कृति में भी समावेशिता को प्राथमिकता देता है।
इस फैसले पर देशभर के शैक्षणिक और सामाजिक जगत से मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। कई शिक्षाविदों और छात्रों ने इस पहल की सराहना की है और इसे समय की मांग बताया है। वहीं, कुछ आलोचक इसे ‘अनावश्यक भाषा सुधार’ कह रहे हैं और इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठा रहे हैं। अधिकांश छात्र संगठनों और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने इस कदम को लैंगिक समानता की दिशा में एक प्रेरणादायक कदम बताया है।
इस बदलाव से प्रेरित होकर अन्य विश्वविद्यालय भी अपने प्रशासनिक पदों की भाषा पर पुनर्विचार कर सकता हैं। इससे भारत की शैक्षणिक संस्कृति में एक नई शुरुआत हो सकता है जहां भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का भी माध्यम बनेगा।
जेएनयू का 'कुलपति' से 'कुलगुरु' की ओर यह परिवर्तन केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि मानसिकता में बदलाव का प्रतीक है। यह निर्णय आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाएगा कि शिक्षा का मतलब सिर्फ ज्ञान देना नहीं होता है, बल्कि सामाजिक समरसता और समानता को भी बढ़ावा देना है।