भारत-पाकिस्तान की सीमा रेखा पर बसे राजस्थान के बाड़मेर जिले के गांव न केवल भौगोलिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील हैं, बल्कि यहां के ग्रामीणों का साहस, देशभक्ति और भारतीय सेना के प्रति निष्ठा भी अतुलनीय है। बाड़मेर के ऐसे 56 गांव हैं जो पाकिस्तान की सीमा से मात्र 100 मीटर की दूरी पर बसे हुए हैं। यहां न कोई भय है, न असमंजस। हर ग्रामीण के सीने में देश के लिए धड़कता दिल और 56 इंच का सीना है, जो हर परिस्थिति में भारतीय सेना के साथ खड़ा दिखता है।
बाड़मेर के ये गांव केवल वर्तमान की कहानियां नहीं सुनाती है, बल्कि इतिहास की धड़कनों को भी जीती हैं। आज जिन गांवों में ग्रामीणों की सघन बस्तियां हैं, वह कभी भारत-पाक विभाजन के समय खाली पड़ा हुआ था। विभाजन के बाद विस्थापितों ने इन्हीं सीमावर्ती इलाकों में अपना बसेरा बनाया। फिर 1965 और 1971 के युद्धों ने इन्हें एक बार फिर देशभक्ति की कसौटी पर परखा। खासकर 1971 में बाखासर से भारत की सेना ने पाकिस्तान के छाछरो तक कूच किया था। यह गांव युद्ध की शुरुआत का स्थल बना और फतेह का गवाह भी।
56 गांव पाकिस्तान की सरहद से केवल 100 मीटर की दूरी पर स्थित हैं। यह वह जगह है जहां केवल भूगोल नहीं, भावनाएं तय करती हैं कि कौन किस तरफ है। यह गांव गडरारोड, सुंदरा, जैसिंधर स्टेशन, रोहड़ी, तामलौर और त्रिमोही जैसे संवेदनशील स्थानों पर बसा हैं। चौहटन, सेड़वा, रामसर और धनाऊ क्षेत्र के गांवों में ऐसे ही सैकड़ों लोग हैं जो भारत में रहकर अपने गांवों की मिट्टी से जुड़े हुए हैं। ग्रामीण खुद स्वीकार करते हैं कि हमने खुद यह जीवन चुना है, किसी ने हमें मजबूर नहीं किया है। युद्ध, गोलीबारी, ड्रोन, रेडअलर्ट और धारा 144 इनके जीवन का हिस्सा हैं और ये लोग इसे बड़ी सहजता से जीते हैं।
युद्ध जैसी स्थिति बनने पर जब भारतीय सेना गांव खाली करने के आदेश देता है, तो महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे तो चले जाते हैं, लेकिन युवाओं का एक वर्ग वहीं रहकर सेना की सहायता करता है। यह सेना के लिए पानी भरने से लेकर भोजन तक की व्यवस्था में लग जाते हैं। कई ग्रामीणों के पास बीएसएफ के साथ पुराने संबंध होते हैं, तो कई ऐसे परिवार हैं जिनके सदस्य सेना या अर्धसैनिक बलों में कार्यरत हैं। त्रिमोही, बाखासर, नवातला, मिठड़ाऊ, हाथला जैसे गांवों में यह परंपरा है कि अगर युद्ध होता है तो गांव नहीं खाली किया जाता है बल्कि सेना को मदद की जाती है।
इन गांवों के बच्चे भी अद्वितीय जोश के साथ बड़े होते हैं। जब दूसरे हिस्सों में बच्चे कार्टून और गेम्स की दुनिया में रहते हैं, तब ये बच्चे टैंक और जवानों को खेलते हुए देखते हैं। कई बार स्कूल के रास्ते में उन्हें सेना की पेट्रोलिंग या बीएसएफ के अभ्यासों से होकर गुजरना पड़ता है। उन्हें यह भी बताया जाता है कि किसी अजनबी वस्तु को नहीं छूना चाहिए, सीमाओं के नियमों का पालन कैसे करना चाहिए, और ब्लैकआउट के समय कैसे व्यवहार करना चाहिए। यह शिक्षा उन्हें केवल किताबों से नहीं, बल्कि जीवन से मिलती है।
युद्ध हो, या कोई आतंकी खतरा, यहां जीवन रुकता नहीं है। 12 महीने धारा 144 के अंतर्गत रहना, रात में बिना रोशनी के रहना, ड्रोन की आवाजों के साथ सोना, यह इनका सामान्य जीवन बन चुका है। कई बार सीमा के पास गोलीबारी की आवाज आती है, लेकिन यहां डर नाम की कोई चीज नहीं है। गांववाले कहते हैं, "हमें तो यह सब सामान्य लगता है, हमें भारतीय सेना पर पूरा भरोसा है।"
इन गांवों में देशभक्ति तो चरम पर है, लेकिन मूलभूत सुविधाओं की कमी अब भी खटकती है। पानी के लिए आज भी कई गांवों में बेरी (पारंपरिक कुएं) से पानी खींचा जाता है। शिक्षा की व्यवस्था सीमित है और स्वास्थ्य सेवाएं नजदीकी कस्बों पर निर्भर हैं। सरकार की कुछ योजनाएं पहुंची हैं, लेकिन सुरक्षा कारणों से कई बार निर्माण कार्यों में देरी हो जाती है। ग्रामीणों की मांग है कि देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले इन गांवों के लिए विशेष नीति बने जिससे उनका जीवन और सुदृढ़ हो सके।
1971 के युद्ध के दौरान बाड़मेर के बाखासर गांव से भारत की सेना ने कूच किया था और पाकिस्तान के छाछरो क्षेत्र में प्रवेश कर विजय प्राप्त की थी। यह गांव उस समय रणभूमि बन गया था। उस समय यहां के ग्रामीणों ने सेना को भोजन, पानी, दिशा और सहयोग सब कुछ दिया था। स्थानीय लोग कहते हैं कि "हमारी तो जिंदगी ही बीएसएफ और फौज के साथ है। हमने तब भी साथ दिया था और आज भी देंगे।"
युद्ध के समय जब गांव खाली करवाए जाते हैं, तो महिलाएं बुजुर्गों और बच्चों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने में अग्रणी भूमिका निभाती हैं। इसके अलावा कई महिलाएं सेना के कैंपों के लिए रोटियां बनाती हैं, कपड़े धोती हैं, और जरूरत पड़ने पर प्राथमिक चिकित्सा में भी हाथ बंटाती हैं। इनकी भूमिका अक्सर समाचारों में नहीं आती, परंतु देश की सीमाओं की रक्षा में यह भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।
सरकार समय-समय पर इन गांवों के लिए विशेष योजनाएं लाती है, जैसे कि सीमावर्ती क्षेत्र विकास योजना (BADP)। इन योजनाओं के अंतर्गत सड़क, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, और जलापूर्ति जैसी सुविधाएं देने की कोशिश होता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि अभी भी कई गांव बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। दूरसंचार, इंटरनेट और परिवहन जैसी सुविधाएं अब भी सीमित हैं। ग्रामीणों की मांग है कि जब वो इतना कुछ सहन करते हैं और देश की सीमाओं पर खड़े हैं, तो उन्हें विशेष ‘वीर ग्राम’ घोषित किया जाए और उन्हें टैक्स, राशन, शिक्षा आदि में प्राथमिकता दी जाए।
बाड़मेर के सीमावर्ती गांवों के लोग केवल भारतीय नहीं हैं बल्कि भारतीयता के प्रतीक हैं। उनके लिए देशप्रेम कोई त्यौहार नहीं, बल्कि दिनचर्या है। जब हम लोग दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, जयपुर जैसे शहरों में चैन की नींद सोते हैं, तब इन गांवों में लोग 12 महीने अलर्ट मोड में जीते हैं। इनकी जिन्दगी, संघर्ष और साहस हमें यह याद दिलाते हैं कि देश की सुरक्षा केवल हथियारों से नहीं होती बल्कि दिलों की ताकत, गांवों की जड़ें और नागरिकों के सहयोग से होती है।