बिहार सरकार ने हाल ही में एक नया संस्कृत शिक्षा बोर्ड गठित किया है, लेकिन इसकी संरचना को लेकर अब विवाद खड़ा हो गया है। कुल 9 सदस्यों वाले इस बोर्ड में 7 सदस्य सवर्ण जातियों से हैं—जिसमें 3 ब्राह्मण, 2 भूमिहार और 2 राजपूत शामिल हैं। बाकी बचे दो सदस्यों में एक दलित और एक अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से हैं।
बोर्ड के अध्यक्ष बनाए गए हैं डॉ. मृत्युंजय झा, जो खुद एक ब्राह्मण हैं और संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान माने जाते हैं। उनके साथ बोर्ड में जो अन्य सदस्य हैं, वे सभी किसी न किसी रूप में लंबे समय से संस्कृत शिक्षा या उससे जुड़े प्रशासनिक ढांचे में कार्यरत रहे हैं।
इस नियुक्ति सूची के सामने आने के बाद राजनीतिक और सामाजिक हलकों में तीखी प्रतिक्रियाएं शुरू हो गई हैं। सवाल यह उठ रहा है कि एक लोकतांत्रिक राज्य में, जहां सामाजिक न्याय की नीति को लंबे समय से प्राथमिकता दी जाती रही है, वहां ऐसे किसी शैक्षिक बोर्ड में जातिगत संतुलन क्यों नहीं दिखता?
विपक्षी दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह नियुक्ति सामाजिक विविधता के खिलाफ है। उनका तर्क है कि संस्कृत केवल सवर्णों की भाषा नहीं रही, बल्कि यह आज भी व्यापक जनसमूह के बीच जीवंत है और दलितों–OBC समुदाय में भी संस्कृत के जानकार, विद्वान और शिक्षक बड़ी संख्या में मौजूद हैं। फिर इस प्रतिनिधित्व में असंतुलन क्यों?
सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि "नियुक्तियाँ योग्यता के आधार पर की गई हैं और इन सभी लोगों का संस्कृत भाषा और शास्त्रों में गहन अध्ययन और वर्षों का अनुभव रहा है। इसमें जाति कोई मुद्दा नहीं है।"
हालाँकि सामाजिक संगठनों का कहना है कि यदि संस्कृत जैसी पारंपरिक भाषा को समाज के सभी तबकों में लोकप्रिय बनाना है, तो उसके प्रशासनिक ढांचे में भी सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। अन्यथा यह भाषा एक वर्ग विशेष की बौद्धिक संपत्ति बनकर रह जाएगी।
यह मुद्दा ऐसे समय पर उठा है जब बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हो गई है और सामाजिक प्रतिनिधित्व, आरक्षण, युवाओं की शिक्षा और प्रशासन में भागीदारी जैसे विषय एक बार फिर गर्म हैं।