ईरान को छोड़ दिया गया: चीन, रूस और मुस्लिम देशों ने वजह बताई — आतंकवाद की नीतियाँ

Jitendra Kumar Sinha
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ईरान पर इजरायल के हालिया हमले के बाद वैश्विक प्रतिक्रिया से यह स्पष्ट हो गया है कि तेहरान अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ता जा रहा है। एक समय में मुस्लिम देशों, रूस और चीन जैसे शक्तिशाली सहयोगियों पर भरोसा करने वाला ईरान आज उनके भी समर्थन से वंचित होता दिख रहा है। इजरायल द्वारा किए गए ड्रोन और मिसाइल हमलों में ईरान के कई सैन्य प्रतिष्ठान, वैज्ञानिक केंद्र और रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के ठिकानों को निशाना बनाया गया, जिससे भारी नुकसान हुआ। लेकिन इन हमलों के जवाब में ईरान को जिस प्रकार की ठोस मदद की अपेक्षा थी, वह उसे नहीं मिल पाई।


सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और अन्य मुस्लिम देशों ने इजरायल के हमले की आलोचना तो की, लेकिन उन्होंने ईरान को समर्थन देने से स्पष्ट दूरी बना ली। न तो उन्होंने कोई सैन्य समर्थन प्रस्तावित किया, न ही कोई आर्थिक सहायता की घोषणा की। इसके पीछे का कारण यही माना जा रहा है कि ईरान की विदेश नीति, खासतौर पर उसकी आतंकी संगठनों को समर्थन देने की नीति, अब खुद उसी पर भारी पड़ रही है। हिज़्बुल्लाह, हमास, हौती विद्रोही और अन्य चरमपंथी संगठनों को ईरान द्वारा दी गई मदद ने क्षेत्रीय अस्थिरता को बढ़ाया है, जिससे उसके अपने संभावित सहयोगी देश भी असहज हैं।


चीन और रूस, जो लंबे समय से ईरान के रणनीतिक साझेदार रहे हैं, उन्होंने भी इस बार कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। रूस ने संयुक्त राष्ट्र में एक सामान्य निंदा प्रस्ताव पेश किया, लेकिन कोई प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं किया। चीन ने भी केवल कूटनीतिक संतुलन बनाए रखने की कोशिश की और स्पष्ट कर दिया कि वह सैन्य रूप से हस्तक्षेप नहीं करेगा। यह स्थिति यह दिखाती है कि भले ही ये देश ईरान के साथ व्यापार और रणनीति में जुड़े हों, लेकिन जब बात अंतरराष्ट्रीय दबाव और अपनी छवि की आती है, तो वे ईरान के लिए आगे नहीं आएंगे।


तेहरान में हालात तनावपूर्ण हैं। आम जनता में आक्रोश और भय दोनों है। राजधानी और अन्य संवेदनशील क्षेत्रों से लोगों के पलायन की खबरें सामने आई हैं। सरकार की ओर से प्रतिक्रिया में आक्रामक बयान जरूर आए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर किसी ठोस प्रतिघात की संभावना बेहद कम नजर आ रही है।


असल में, ईरान की वर्तमान स्थिति उसी की नीतियों का परिणाम है। आतंकी संगठनों को हथियार, प्रशिक्षण और फंडिंग देकर उसने अपने चारों ओर जो आभासी दुश्मन पैदा किए, अब वही नीतियाँ उसे वैश्विक कूटनीति में अलग-थलग कर रही हैं। आज जबकि उसे सामूहिक समर्थन की सबसे अधिक आवश्यकता है, तब उसके पास केवल बयानबाज़ी और आत्मनिर्भरता का भ्रम शेष है। यदि ईरान ने अपनी विदेश नीति और आतंकी नेटवर्कों से संबंधों पर पुनर्विचार नहीं किया, तो वह न केवल क्षेत्रीय राजनीति में बल्कि वैश्विक मंच पर भी प्रभावहीन होता चला जाएगा।


इस पूरे घटनाक्रम ने यह सिखाया है कि किसी देश की दीर्घकालिक रणनीतिक स्थिति केवल हथियारों और गठबंधनों से नहीं, बल्कि उसकी नीतियों और वैश्विक जिम्मेदारियों को समझने की क्षमता से तय होती है। ईरान की स्थिति फिलहाल दुनिया के लिए एक चेतावनी है कि आतंकवाद को कूटनीति का औज़ार बनाना अंततः विनाश की ओर ही ले जाता है।

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