नदी, जो केवल जल का प्रवाह नहीं, बल्कि सभ्यताओं की जीवनरेखा होती है। सदियों से मानवता नदियों के किनारे ही पली-बढ़ी है, और उन्हीं के जल से अपनी प्यास बुझाई है और खेतों को सींचा है। ब्रह्मपुत्र, जिसे तिब्बत में ‘यारलुंग जांगबो’ के नाम से जाना जाता है, एक ऐसी ही नदी है, जो सिर्फ एक जलधारा नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था, अर्थव्यवस्था और अस्तित्व का आधार है। हिमालय के सीने को चीरकर निकलने वाली यह शक्तिशाली नदी तिब्बत से भारत के अरुणाचल प्रदेश और असम से होते हुए बांग्लादेश तक का सफर तय करती है, और अपने साथ लाती है जीवन का वरदान। लेकिन अब इसी जीवनरेखा पर एक ऐसा संकट मंडरा रहा है, जो पूरे क्षेत्र के भू-राजनीतिक और पर्यावरणीय संतुलन को हमेशा के लिए बदल सकता है।
चीन ने भारत और बांग्लादेश के पुरजोर विरोध को दरकिनार करते हुए, तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया के सबसे बड़े बांध के निर्माण का कार्य शुरू कर दिया है। यह कोई साधारण परियोजना नहीं है, बल्कि एक ऐसी महा-परियोजना है जिसके आंकड़े किसी को भी चकित कर सकता हैं। चीनी प्रधानमंत्री ली कियांग द्वारा घोषित इस परियोजना की कुल लागत 1.2 ट्रिलियन युआन (लगभग 167 अरब डॉलर या 14 लाख करोड़ रुपये) है और इसका लक्ष्य प्रति वर्ष 300 अरब किलोवाट बिजली का उत्पादन करना है। चीन का आधिकारिक दावा है कि यह बांध तिब्बत के विकास और उसकी बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया जा रहा है, लेकिन इस विशालकाय संरचना के पीछे छिपी आशंकाएं कहीं अधिक गहरी और भयावह हैं।
भारत और बांग्लादेश के विशेषज्ञों का मानना है कि यह महाबांध विकास का नहीं, बल्कि चीन के हाथ में एक ऐसा 'जल-अस्त्र' होगा, जिसका इस्तेमाल वह अपनी मनमर्जी से कर सकेगा, और डाउनस्ट्रीम के देशों को या तो सूखे की मार झेलने के लिए या फिर विनाशकारी बाढ़ में डूबने के लिए मजबूर कर सकेगा। यह कहानी सिर्फ कंक्रीट और स्टील की एक विशाल संरचना की नहीं है, बल्कि यह कहानी है एक नदी के भविष्य की, करोड़ों लोगों की नियति की, और एशिया में पानी पर प्रभुत्व की एक खतरनाक दौड़ की।
चीन की इस महत्वाकांक्षी परियोजना की घोषणा उसकी 14वीं पंचवर्षीय योजना (2021-25) के हिस्से के रूप में की गई है। यह चीन के उन दीर्घकालिक उद्देश्यों का एक महत्वपूर्ण अंग है जिसे वह 2035 तक हासिल करना चाहता है। इस परियोजना के क्रियान्वयन के लिए विशेष रूप से एक नई कंपनी, "चाइना याजियांग ग्रुप," का गठन किया गया है, जिसे तिब्बत के दक्षिण-पूर्व में स्थित निंगची शहर में इस जलविद्युत परियोजना के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई है। यह परियोजना एक बांध तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें पांच जलप्रपात बांधों की एक श्रृंखला शामिल होगी।
यह स्थान रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह वही विशाल घाटी है जहां से यारलुंग जांगबो (ब्रह्मपुत्र) एक तीव्र मोड़ लेती है और भारत के अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है। इस स्थान पर नदी लगभग 50 किलोमीटर के क्षेत्र में 2,000 मीटर (6,560 फीट) की stupendous ऊंचाई से नीचे गिरती है, जो इसे जलविद्युत उत्पादन के लिए दुनिया की सबसे आकर्षक जगहों में से एक बनाती है। लेकिन यही भौगोलिक विशेषता इसे उतना ही खतरनाक भी बनाती है। इस महाकाय बांध के निर्माण का मतलब है कि चीन के पास नदी के प्रवाह को नियंत्रित करने की अभूतपूर्व क्षमता होगी।
चीन का दावा है कि इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन करना और तिब्बत के आर्थिक-सामाजिक विकास को गति देना है। सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ के अनुसार, यह परियोजना तिब्बत को बिजली के मामले में आत्मनिर्भर बनाएगी। चीन यह भी दावा करता है कि इस बांध का निचले इलाकों, यानि भारत और बांग्लादेश पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन चीन का यह आश्वासन खोखला प्रतीत होता है, खासकर जब हम उसके पिछले रिकॉर्ड और इस परियोजना के पैमाने को देखते हैं। यह पहली बार नहीं है कि चीन ने ब्रह्मपुत्र पर कोई बांध बनाया है। 2015 में ही वह 1.5 बिलियन डॉलर की लागत से जैम हाइड्रोपावर स्टेशन (जांगमु बांध) का संचालन शुरू कर चुका है, जो उस समय तिब्बत की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना थी। मौजूदा परियोजना उस पुराने बांध की तुलना में कई गुना बड़ी और अधिक शक्तिशाली है, जो यह दर्शाती है कि चीन इस नदी पर अपना नियंत्रण को लगातार और आक्रामक रूप से बढ़ा रहा है।
14 लाख करोड़ रुपये का भारी-भरकम निवेश यह स्पष्ट करता है कि यह परियोजना चीन के लिए केवल बिजली उत्पादन का माध्यम नहीं है। यह उसके लिए राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का विषय है और साथ ही, दक्षिण एशिया में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने का एक माध्यम भी है।
भारत के लिए चीन का यह महाबांध केवल एक विकासात्मक परियोजना नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक सीधा और गंभीर खतरा है। विशेषज्ञों के अनुसार, चीन ब्रह्मपुत्र के पानी को भारत के खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है, जिसके परिणाम विनाशकारी हो सकता है।
सबसे बड़ा डर यह है कि चीन इस बांध के जरिए ब्रह्मपुत्र के जल प्रवाह पर पूर्ण नियंत्रण हासिल कर लेगा। शांति के समय में भी, वह पानी की मात्रा को कम करके भारत के पूर्वोत्तर राज्यों, विशेषकर असम और अरुणाचल प्रदेश में सूखे जैसी स्थिति पैदा कर सकता है। इससे कृषि, पीने का पानी की आपूर्ति और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। लेकिन सबसे भयावह परिदृश्य संघर्ष या सीमा पर तनाव की स्थिति में उभरता है। चीन इस बांध में जमा अरबों क्यूबिक मीटर पानी को अचानक छोड़कर इन क्षेत्रों में कृत्रिम बाढ़ ला सकता है। यह एक ऐसा हमला होगा जिसके लिए किसी मिसाइल या सेना की जरूरत नहीं होगी। बिना किसी पूर्व सूचना के छोड़ा गया पानी का यह सैलाब गांवों, कस्बों और सैन्य प्रतिष्ठानों को बहा ले जाएगा, जिससे जान-माल का भारी नुकसान होगा। यह 'वाटर बम' किसी भी पारंपरिक हथियार से कम घातक नहीं होगा।
ब्रह्मपुत्र केवल पानी का स्रोत नहीं है, यह अपने साथ भारी मात्रा में गाद (silt) भी लाती है, जो खनिजों से भरपूर होती है। यह गाद असम के मैदानी इलाकों को उपजाऊ बनाती है और खेती के लिए अमृत समान है। यह तटीय इलाकों की स्थिरता के लिए भी आवश्यक है। एक विशालकाय बांध इस गाद के प्राकृतिक प्रवाह को रोक देगा। बांध के पीछे गाद जमा हो जाएगी, और नदी के आगे का पानी 'स्वच्छ' लेकिन 'मृत' होकर बहेगा। इसका सीधा असर असम के कृषि चक्र पर पड़ेगा, जिससे मिट्टी की उर्वरता धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। इससे न केवल खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा होगा, बल्कि उन लाखों किसानों की आजीविका भी छिन जाएगी जो इस नदी पर निर्भर हैं।
यह बांध जिस क्षेत्र में बनाया जा रहा है, वह चीन का एक राष्ट्रीय प्रकृति अभयारण्य और देश के प्रमुख जैव विविधता केंद्रों में से एक है। हिमालय का यह क्षेत्र अपनी अनूठी वनस्पतियों और जीवों के लिए जाना जाता है। बांध का निर्माण और उसके कारण होने वाला जल-जमाव इस नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को स्थायी रूप से नष्ट कर सकता है। नदी के प्रवाह में बदलाव का असर मछलियों और अन्य जलीय जीवन पर पड़ेगा, जो नदी के किनारे रहने वाले समुदायों के लिए भोजन का एक प्रमुख स्रोत हैं। अरुणाचल प्रदेश, जिसे अपनी समृद्ध जैव विविधता के लिए जाना जाता है, पर इसका विशेष रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। नदी के प्रवाह और गाद की मात्रा में परिवर्तन पूरे क्षेत्र के इको-सिस्टम को अस्त-व्यस्त कर सकता है।
यह दिलचस्प है कि इस परियोजना को लेकर केवल भारत और बांग्लादेश ही चिंतित नहीं हैं, बल्कि चीन के अपने पर्यावरणविद भी लंबे समय से इसके अपरिवर्तनीय प्रभावों को लेकर चेतावनी देते रहे हैं। वे जानते हैं कि इस संवेदनशील भूगर्भीय क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर निर्माण भूकंपीय गतिविधियों को भी प्रेरित कर सकता है, जिसके परिणाम अप्रत्याशित हो सकता हैं। ब्रह्मपुत्र घाटी में इस तरह के हस्तक्षेप के दीर्घकालिक परिणाम क्या होंगे, इसका कोई विश्वसनीय अध्ययन मौजूद नहीं है। जब चीन के अपने विशेषज्ञ चिंतित हैं, तो भारत और बांग्लादेश की आशंकाएं और भी अधिक पुष्ट हो जाता है।
भारत और चीन के बीच सीमा पार की नदियों से संबंधित मुद्दों पर चर्चा के लिए 2006 में एक विशेषज्ञ स्तरीय तंत्र (Expert Level Mechanism - ELM) की स्थापना की गई थी। इस तंत्र के तहत, चीन बाढ़ के मौसम (मानसून) में भारत को ब्रह्मपुत्र और सतलुज नदी के जल-प्रवाह से संबंधित हाइड्रोलॉजिकल डेटा (वैज्ञानिक जानकारी) प्रदान करता है। हालांकि यह एक सकारात्मक कदम है, लेकिन यह इस महाबांध जैसी विशाल चुनौती का सामना करने के लिए पूरी तरह से अपर्याप्त है।
यह डेटा साझाकरण केवल भविष्यवाणी में मदद कर सकता है, रोकथाम में नहीं। यह बता सकता है कि बाढ़ आ रही है, लेकिन यह उस बाढ़ को रोक नहीं सकता है जिसे चीन ने जानबूझकर पैदा किया हो। इस तंत्र के तहत भारत का बांध के संचालन या जल प्रबंधन में कोई दखल नहीं है। चीन जो भी जानकारी साझा करता है, वह उसकी सद्भावना पर निर्भर करता है, और तनाव के समय इस सद्भावना पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दुनिया के सबसे बड़े बांध का निर्माण इस मौजूदा तंत्र को लगभग अप्रासंगिक बना देता है और एक अधिक मजबूत, पारदर्शी और कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करता है।
इस चीनी आक्रामकता के जवाब में, भारत चुप नहीं बैठा है। भारत भी ब्रह्मपुत्र पर एक बड़ी बांध परियोजना का निर्माण कर रहा है, लेकिन यह परियोजना तिब्बत में नहीं, बल्कि अरुणाचल प्रदेश में है। इस जवाबी बांध के कई उद्देश्य हैं। पहला, यह भारत को अपने क्षेत्र में नदी के प्रवाह को कुछ हद तक नियंत्रित करने और चीन द्वारा अचानक छोड़े गए पानी के प्रभाव को कम करने में मदद करेगा। दूसरा, यह भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए जलविद्युत उत्पन्न करने में सक्षम बनाएगा। और तीसरा, यह नदी के जल पर भारत के अधिकार (lower riparian rights) को स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। हालांकि, यह समझना महत्वपूर्ण है कि भारत का बांध चीन के बांध से होने वाले खतरों का पूर्ण समाधान नहीं है। यह केवल एक रक्षात्मक उपाय है, क्योंकि पानी का मूल स्रोत और नियंत्रण अभी भी चीन के हाथों में ही रहेगा।
इस पूरे प्रकरण में बांग्लादेश शायद सबसे कमजोर और सबसे अधिक प्रभावित होने वाला देश है। एक डेल्टा देश होने के नाते, बांग्लादेश का अस्तित्व गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों के ताजे पानी और उनके द्वारा लाई गई गाद पर निर्भर करता है। चीन द्वारा पानी रोके जाने की स्थिति में बांग्लादेश के एक बड़े हिस्से में गंभीर जल संकट पैदा हो सकता है, जिससे उसकी कृषि और मत्स्य पालन उद्योग पूरी तरह से तबाह हो सकता है। समुद्र का खारा पानी देश के अंदरूनी हिस्सों में प्रवेश कर जाएगा, जिससे जमीन बंजर हो जाएगी।
इसके विपरीत, यदि चीन अचानक पानी छोड़ता है, तो घनी आबादी वाला बांग्लादेश एक विनाशकारी बाढ़ में डूब जाएगा, क्योंकि उसके पास पानी के इतने बड़े वेग को संभालने की क्षमता नहीं है। गाद के रुकने से बांग्लादेश का डेल्टा, जो धीरे-धीरे समुद्र के बढ़ते जल स्तर के कारण डूब रहा है, और भी तेजी से सिकुड़ने लगेगा। चीन का यह कदम न केवल भारत, बल्कि पूरे बंगाल की खाड़ी क्षेत्र की पारिस्थितिकी और स्थिरता के लिए एक बड़ा खतरा है। चीन के इस एकतरफा फैसले ने भारत और बांग्लादेश को एक साझा मंच पर ला दिया है, जहां दोनों देश अपने अस्तित्व के लिए इस खतरे का मिलकर सामना कर रहा है।
चीन का ब्रह्मपुत्र पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने का निर्णय सिर्फ एक बुनियादी ढांचा परियोजना नहीं है, यह एक भू-राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन है जो दक्षिण एशिया के जल-नक्शे को हमेशा के लिए बदल सकता है। चीन इसे विकास और स्वच्छ ऊर्जा के चमकदार पर्दे के पीछे छिपाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन इसके रणनीतिक और पर्यावरणीय निहितार्थ इतने गंभीर हैं कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
यह परियोजना शक्ति के उस खतरनाक असंतुलन को उजागर करता है जो सीमा-पार नदियों के प्रबंधन में मौजूद है, जहां एक ऊपरी हिस्से में स्थित देश (upper riparian) अपनी भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाकर निचले हिस्से के देशों (lower riparian) की जीवनरेखा को नियंत्रित कर सकता है। भारत और बांग्लादेश के लिए, यह अस्तित्व का संकट है। यह बांध चीन को एक ऐसा स्विच प्रदान करता है जिससे वह जब चाहे पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश में 'सूखा' या 'बाढ़' ला सकता है।
मौजूदा द्विपक्षीय तंत्र, जैसे कि ELM, इस चुनौती का सामना करने में पूरी तरह से अक्षम साबित हुआ हैं। अब समय आ गया है कि जल-बंटवारे पर एक व्यापक, पारदर्शी और कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय संधि हो, जिसमें सभी हितधारक देशों के अधिकारों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए। भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे को और अधिक मजबूती से उठाना होगा और चीन पर अपने एकतरफा कदमों को रोकने के लिए कूटनीतिक दबाव बनाना होगा।
ब्रह्मपुत्र, जो हजारों वर्षों से जीवन का पोषण करती आई है, आज संघर्ष और टकराव का एक नया केंद्र बन गया है। चीन का यह 'महाबांध' या तो मानव इंजीनियरिंग का एक चमत्कार साबित हो सकता है जैसा कि वह दावा करता है, या फिर यह एक ऐसा 'टाइम बम' बन सकता है जो पूरे क्षेत्र की शांति, स्थिरता और पारिस्थितिकी को नष्ट कर देगा। भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या विवेक, सहयोग और अंतरराष्ट्रीय कानून, शक्ति और एकतरफा महत्वाकांक्षा पर विजय प्राप्त कर पाता हैं या नहीं। अन्यथा, हिमालय से निकलने वाली यह पवित्र नदी दोस्ती का नहीं, बल्कि विनाशकारी 'जल-युद्ध' का कारण बन जाएगी।
